एडल्टरी में महिलाएं दोषी या नहीं, संविधान पीठ करेगी विचार

asiakhabar.com | January 6, 2018 | 4:59 pm IST

नई दिल्ली। विवाहेतर संबंध बनाने पर महिला को अपराधी मानने से छूट देने वाले कानून की वैधानिकता पर अब संविधान पीठ विचार करेगी। कोर्ट देखेगा कि शादीशुदा महिला के पर-पुरुष से संबंध बनाने में सिर्फ पुरुष ही दोषी क्यों, महिला क्यों नहीं।

सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ ने शुक्रवार को विवाहिता को संरक्षण देने वाली आईपीसी की धारा 497 (व्यभिचार (एडल्टरी) और सीआरपीसी की धारा 198(2) की वैधानिकता का मामला पांच जजों की संविधान पीठ को भेज दिया है। शुक्रवार को प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस एएम खानविलकर व जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने इस कानून की वैधानिकता पर पूर्व में आ चुके दो फैसलों का जिक्र करते हुए मामला विचार के लिए पांच जजों की संविधान पीठ को सौंप दिया।

कोर्ट ने कहा कि यह कानून बहुत पुराना पड़ चुका है। समाज ने काफी प्रगति कर ली है। खासतौर पर सामाजिक प्रगति, बदल चुकी अवधारणा, लैंगिक समानता और लैंगिक संवेदनशीलता को देखते हुए पूर्व फैसलों पर पुनर्विचार की जरूरत है। बात यह है कि अनुच्छेद 15 में धर्म, जाति, लिंग, वर्ण और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव की मनाही है। लेकिन इसी अनुच्छेद का उपबंध 3 अपवाद प्रस्तुत करता है। यह सरकार को महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है।

सुप्रीम कोर्ट के दो पूर्व फैसलों में एक फैसला 1954 का यूसुफ अब्दुल अजीज मामले में आया था, जिसमें चार जजों ने आईपीसी की धारा 497 को अनुच्छेद 15(3) के आधार पर संवैधानिक ठहराते हुए कहा था कि यह धारा अनुच्छेद 14 व 15 के तहत मिले बराबरी के अधिकार का उल्लंघन नहीं करती। दूसरा फैसला 1985 का सौमित्र विष्णु मामले में आया था और उसमें भी कोर्ट ने कानून की पारिवारिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्या करते हुए कहा था कि यह कानून किसी से भेदभाव नहीं करता।

गत 8 दिसंबर को पिछले आदेश में भी कोर्ट ने कहा था कि प्रथम दृष्टया धारा 497 देखने से लगता है कि इसमें पत्नी को राहत दी गई है, उसे पीड़िता माना गया है। लेकिन यह दर्ज करना भी जरूरी है कि दो लोग मिलकर अपराध को अंजाम देते हैं। एक अपराध का भागी होता है और दूसरा पूरी तरह दोष मुक्त। ऐसा लगता है कि यह कानून सामाजिक अवधारणा पर आधारित है। सामान्य तौर पर आपराधिक कानून में लैंगिक भेदभाव नहीं होता लेकिन इसमें यह अवधारणा नदारद है। कोर्ट ने यह भी कहा था कि क्या किसी महिला को सकारात्मक अधिकार प्रदान करते समय इस हद तक जाया जा सकता है कि उसे पीड़िता मान लिया जाए।

कानून की भाषा देखी जाए तो अगर उसमें पति की सहमति साबित कर दी जाए तो अपराध खत्म हो जाता है। इस तरह तो यह प्रावधान वास्तव में महिला की व्यक्तिगत पहचान पर कुठाराघात करता है। पति की सहमति का मतलब है कि महिला पति के अधीन है, जबकि संविधान उसे बराबरी का दर्जा देता है।

कोर्ट ने कहा था कि अब समय आ गया है कि समाज यह अहसास करे कि महिला हर क्षेत्र में पुरुष के बराबर है। जोसेफ शाइनी की जनहित याचिका में आईपीसी की धारा 497 और सीआरपीसी की धारा 198(2) को पुरुषों के साथ भेदभाव वाला बताते हुए चुनौती दी गई है।

आईपीसी की धारा 497 (एडल्टरी)

कोई व्यक्ति जानबूझकर दूसरे की पत्नी से उसके पति की सहमति के बगैर संबंध बनाता है और वह संबंध दुष्कर्म की श्रेणी में नहीं आता बल्कि वह व्यक्ति एडल्टरी का अपराध करता है। उसे पांच वर्ष तक की कैद या जुर्माने की सजा हो सकती है।

सीआरपीसी की धारा 198(2)

इस अपराध में सिर्फ पति ही शिकायत कर सकता है। पति की अनुपस्थिति में महिला की देखभाल करने वाला व्यक्ति कोर्ट की इजाजत से पति की ओर से शिकायत कर सकता है।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *