-राकेश अचल-
सामंतों के जमाने में चारण और भाट हुआ करते थे। कलिकाल में मैं चारण और भाटों को एक जाति के रूप में नहीं बल्कि एक ख़ास विधा के कलाकार के रूप में मान्यता देता आया हूँ। ये दोनों प्रजाति के लोग कवि हृदय होने के साथ-साथ ही मौखिक इतिहास लेखक भी होते है। इनकी इसी कला के चलते इन्हें जागीरें भी मिलीं और ये जागीरदार हो गए। बाद में इन्होंने अपनी कला को लिपिबद्ध भी किया।
सामंतों का प्रारंभिक इतिहास खासतौर पर मध्यकाल से लेकर 19वीं शताब्दी तक का समय मुख्य रूप से चारणों द्वारा रचित है। चारण और राजपूतों का संबंध इतिहास में बहुत गहरा है। चूंकि चारण राजपूतों के साथ-साथ युद्ध में भाग लेते थे, तो वे न केवल उन युद्धों के साक्षी थे बल्कि समकालीन राजपूत जीवन का हिस्सा बनने वाले कई अन्य अवसरों और प्रकरणों के भी साक्षी थे। ऐसे युद्धों और घटनाओं के बारे में लिखे गए काव्य ग्रन्थों में दो गुण समाहित थे पहला बुनियादी ऐतिहासिक सत्य और दूसरा विशद यथार्थवादी और सचित्र वर्णन बढ़ा चढ़ाकर, विशेष रूप से नायकों, साहसी उपलब्धियों और युद्धों का। कलिकाल में ये चारण और भाट किसी और शक्ल में आपके सामने हैं।
अपने जमाने के मशहूर शायर वलीउल्लाह मुहिब कहते हैं कि-
*इश्क़िया कहे शे’र ओ या मदह-ओ-मनाक़िब*
*आलम का बनवाड़ा कहे शाइर नहीं है भाट*
उस जमाने में भी चारण और भाट का काम घटिया माना जाता था और कलिकाल में भी। चारणों और भाटों के लिए उनका काम हर काल में सम्मान और स्वाभिमान का रहा है। जो जितना ज्यादा खुशामदी और यशोगान करने में दक्ष होता है उसे उतना ज्यादा इनाम-इकराम मिलता था। पहले चारण अपने-अपने सामंतों से बाबस्ता होते थे, उनके बीच ये काम खानदानी तौर से होता था, इसलिए उनमें प्रतिस्पर्द्धा नहीं होती थी, बल्कि ये काम विरासत का माना जाता था। किन्तु अब जमाना बदल गया है, कलिकाल में चारण और भाट का काम भी प्रतिस्पर्द्धा का हो गया है। जो जितना ज्यादा खुशामदी और यशोगानकर्ता होता है उसे उतना ज्यादा सम्मान और अनुदान मिलता है। हमारे यहां तो आज से चार दशक पहले तक किसी भी विवाह को तब तक पूरा नहीं माना जाता था, जब तक की बरात में भाट साथ न हो। हमारे पुश्तैनी भाट कुकरगांव (जालौन ) के राव साहब थे, हम सब उन्हें राव मामा कहते थे। वे हमारे कुनबे के हर विवाह में हमारे कुल की विरुदावली गाकर सुनाते थे। मंडप के नीचे पहरावन के लिए बारातियों का नाम उनके पिता और गांव के साथ लेकर पुकारने का काम भी भाटों का होता था।
बहरहाल हमारे गुरु कहा करते थे कि चारण साहित्य की शैली अधिकतर वर्णनात्मक है और इसे दो रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है। कथात्मक और प्रकीर्ण काव्य। चारण साहित्य के कथात्मक काव्यरूप को विभिन्न नामों से जाना जाता है, जैसे, रास, रासौ, रूपक, प्रकाश, छंद, विलास, प्रबंध, आयन, संवाद, आदि। इन काव्यों की पहचान मीटर से भी कर सकते हैं जैसे, कवित्त, कुंडलिया, झूलणा, निसाणी, झमाल और वेली आदि। प्रकीर्ण काव्यरूप की कविताएँ भी इनका उपयोग करती हैं। डिंगलभाषा में लिखे गए विभिन्न स्रोत, जिन्हें बात (वार्ता), ख्यात, विगत, पिढ़ीआवली और वंशावली के नाम से जाना जाता है। चारण और भाटों को अमरत्व का वरदान है शायद, क्योंकि ये हर युग में पाए जाते हैं। आगे भी इनके नष्ट होने कि कोई संभावना मुझे दिखाई नहीं देती।