-डॉ. सी.पी. राय-
देश में राजनीतिक और लोकतांत्रिक सत्ता का उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा भागीदार प्रदेश है, जहां की 80 सीट देश का भाग्य तय करती हैं। कहा जाता है कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। आज तक देश के जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, उनमें से आधे उत्तर प्रदेश से रहे। पिछले दो चुनावों में उत्तर प्रदेश ने भाजपा के लिए आधार का काम किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार दो बार से बनारस से सांसद हैं।इस बार उत्तर प्रदेश बहुत खामोश है। यह खामोशी सभी दलों को बेचैन किए हुए है। राजनीतिक पंडितों का मानना है की अगर मतदाता का रु झान सत्ता की तरफ होता है तो वो चुनाव शुरू होने के साथ ही दिखाई देने लगता है। ज्यों-ज्यों चुनाव उठान लेता है, सत्ता समर्थक मतदाता ज्यादा मुखर होता जाता है। इस बार वो या तो खामोश है, या अलग-अलग खांचे में सत्ता से जुड़े प्रत्याशियों के प्रति नाराजगी जता रहा है। भाजपा ने अपने काफी सांसदों को फिर से टिकट दिया है। इनमें से अधिकांश जीतने के बाद लौट कर अपने क्षेत्र में गए ही नहीं या जिस केंद्रीकृत तरीके से भाजपा की सत्ता चल रही है, और उसमें केंद्र तथा प्रदेश के चंद लोगों को छोड़ कर किसी की भी प्रभावी भूमिका नहीं है। यहां तक कि मंत्री, सांसद और विधायक का अधिकारी या दरोगा फोन तक उठाने की जहमत नहीं करते। जनप्रतिनिधि जनता या कार्यकर्ता की आवश्यक मदद करने में असफल रहे हैं, और इसलिए भी लोगों से कटे रहे। इसलिए उनका क्षेत्र में जबरदस्त विरोध है। एक दूसरा विरोध, जो बड़े पैमाने पर हाल में दिखा, सहारनपुर में हुआ जब क्षत्रिय समाज ने विशाल सम्मेलन किया जिसमें भाजपा का विरोध करने का फैसला किया गया। कुछ राजनीतिक पंडित मानते हैं कि अज्ञात कारणों से एक हवा चल गई है कि यदि केंद्र में दुबारा मोदी सरकार आ गई तो उसमें न तो राजनाथ सिंह के लिए स्थान होगा और न गडकरी के लिए और उससे भी ज्यादा चर्चा व्यापक है कि उस स्थिति में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी मोदी और अमित शाह तुरंत हटा देंगे क्योंकि योगी इन लोगों के सामने मजबूत विकल्प के रूप में उठ खड़े हुए हैं। इस अफवाह का असर भी मतदाता के एक बड़े वर्ग को प्रभावित करता दिख रहा है।इस बार के चुनाव को अचानक उठ खड़े हुए इलेक्टोरल बॉन्ड के बवंडर ने भी ग्रहण लगा दिया है। इसके उजागर होने के बाद पीएमकेयर फंड को लेकर शंका के बादल घुमडऩे लगे हैं। देखा गया है कि जब भी कोई सत्ता नौकरशाही और व्यवस्था को सारी ताकत सौंप कर खुद को सुरक्षित समझने लगती है, दरअसल तभी वो ज्यादा असुरक्षित हो जाती है क्योंकि राजनीति नेता या कार्यकर्ता, कैसा भी हो, को जनता का लिहाज करना ही होता है। दरवाजे पर आए व्यक्ति के लिए निकलना ही होता है। नौकरशाही के साथ ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। जनता के साथ उनके व्यवहार का खमियाजा सरकार को भुगतना पड़ता है। यही स्थिति इस बार नासूर जैसी दिख रही है।उत्तर प्रदेश में कैराना से इकरा हसन, सहारनपुर से इमरान मसूद, आजमगढ़ से धम्रेद्र यादव, बदायूं से शिवपाल यादव के पुत्र, मैनपुरी से डिंपल यादव, बांदा से शिवशंकर पटेल, बिजनौर से यशवीर सिंह, हाथरस से जसवीर बाल्मिकी, फतेहपुर सीकरी से भाजपा विधायक चौधरी बाबू लाल के पुत्र रामेर सिंह, अलीगढ़ से बृजेंद्र सिंह, लालगंज से दरोगा सरोज, मछली शहर से तूफानी सरोज, फरूखाबाद से डॉ. नवल किशोर शाक्य, फिरोजाबाद से अक्षय यादव, बरेली से प्रवीण सिंह ऐरन, मुजफ्फरनगर से हरेंद्र मलिक, रामपुर से विपक्षी प्रत्याशी, अमरोहा से दानिश अली, कानपुर से आलोक मिश्र, उन्नाव से अनु टंडन, गाजीपुर से अफजाल अंसारी, अंबेडकर नगर से लालजी वर्मा, गोंडा से श्रेया वर्मा, घोसी से राजीव राय, बासगांव से सफल प्रसाद, बस्ती से राम प्रसाद चौधरी, संभल से जियाउर्रहमान वर्क सहित मुलायम सिंह यादव के परिवार वाली अन्य सीट तथा अमेठी और रायबरेली सहित करीब 45 सीटें ऐसी हैं, जो सत्ताधारियों के लिए कठिन डगर साबित हो रही हैं, और ये विपक्षी उम्मीदवार चुनौती देते दिख रहे हैं, तो भाजपा के नाराज लोग भितरघात करते भी दिखलाई पड़ रहे हैं। गौर करने की बात है कि जहां 2014 में भाजपा 71 सीट जीती थी, वहीं 2019 में पुलवामा और बालाकोट की लहर के बावजूद उत्तर प्रदेश में उसकी सीट घट कर 62 हो गई थीं, इस बार तो कोई लहर भी नहीं है। इस कारण लगता है कि मतदाता ने खामोशी बरतते हुए मतदान के दिन ही फैसला सुनाने का निश्चय कर लिया है।राजनीतिक पंडितों की भविष्यवाणियां और समीक्षकों की समीक्षा तथा एग्जिट पोल वालों को अक्सर मतदाता झुठलाता दिखता रहा है। बहरहाल, हमें 4 जून का इंतजार करना होगा और उसका इंतजार भविष्य को भी है, और भारत में रुचि रखने वाली दुनिया में भी सभी को।