शिशिर गुप्ता
नई शिक्षा नीति के तहत 2030 तक शत-प्रतिशत बच्चों को स्कूली शिक्षा में नामांकन कराने का लक्ष्य है। इसका
मतलब हर बच्चे तक शिक्षा पहुंचाना या उन्हें शिक्षा से जोडऩा है। इसके अलावा राज्य स्कूल मानक प्राधिकरण में
अब सभी सरकारी और निजी स्कूल शामिल होंगे। पहली बार सरकारी और निजी स्कूलों में एक नियम लागू होंगे।
इससे निजी स्कूलों की मनमानी और फीस पर लगाम लगेगी।
बदलती जरूरतों के अनुसार शिक्षा नीति में बदलाव की दरकार लंबे समय से महसूस की जा रही थी। मगर अब
तक 1986 में बनी शिक्षा नीति के अनुसार ही शिक्षा व्यवस्था को संचालित किया जा रहा था। 1992 में इस
नीति में कुछ बदलाव जरूर किया गया, पर उसे पर्याप्त नहीं माना जा रहा था। इसलिए भाजपा ने 2014 के
अपने चुनाव घोषणा-पत्र में नई शिक्षा नीति लाने का भी अहम वादा किया था। सत्ता में आने के बाद उसने इस
दिशा में कदम भी उठा दिया था। आखिरकार व्यापक सलाह-मशविरों और सुझावों के बाद के. कस्तूरीरंगन समिति
द्वारा तैयार नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित कर दी गई है। स्वाभाविक ही इससे शिक्षा के क्षेत्र में अपेक्षित बदलाव
की उम्मीद जागती है। नई शिक्षा नीति का मकसद स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक समय की मांग के अनुसार
पाठ्यक्रमों में बदलाव और उसके जरिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर युवाओं को प्रतस्पिर्धी परिवेश के लिए तैयार करना है।
इससे युवाओं में कौशल विकास, नवोन्मेषी अनुसंधान और रोजगार के नए अवसर पैदा करने में मदद मिल सकती
है। नई शिक्षा नीति का जोर विद्यार्थियों के व्यक्तित्व और कौशल विकास के लिए शिक्षकों के प्रशिक्षण पर भी है।
इसके अलावा शिक्षा खर्च को छह फीसद तक ले जाने का संकल्प है। अब मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम
बदल कर फिर से शिक्षा मंत्रालय हो गया है।
वैश्वीकरण के बाद की नई स्थितियों में शिक्षा क्षेत्र में बदलाव बड़ी जरूरत थी। यूपीए सरकार के समय ज्ञान
आधारित अर्थव्यवस्था विकसित करने की बात उठी थी। उसके अनुसार शिक्षा क्षेत्र में बदलाव लाने और
रोजगारोन्मुख शिक्षा प्रणाली बनाने का संकल्प लिया गया था। मगर इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो
पाई थी। फिर हमारे देश में जिस तरह शिक्षा क्षेत्र में विषमता बढ़ती गई है, उसमें बुनियादी शिक्षा और फिर उच्च
शिक्षा के स्तर पर व्यावहारिक बदलाव करने की मांग उठती रही है। फिलहाल सरकारी और निजी शिक्षण संस्थानों
की पढ़ाई-लिखाई के स्तर और सुविधाओं में बहुत बड़ा अंतर नजर आता है। इसे लेकर व्यापक सामाजिक असंतोष
भी देखा जाता है। इस अंतर को पाटना बहुत जरूरी है। फिर उच्च शिक्षा के स्तर पर हमारे देश के विश्वविद्यालय
पढ़ाई-लिखाई के तरीके, अनुसंधान, सुविधाएं आदि के पैमाने पर दुनिया के विश्वविद्यालयों के सामने फिसड्डी
साबित होते रहे हैं। इस स्थिति से उबरने की जरूरत भी रेखांकित की जाती रही है। अब उच्च शिक्षा केवल
सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रमों के तहत विद्यार्थियों को एक से दूसरे देशों में भेजने का मामला नहीं रह गया
है। यह व्यावसायिक मामला भी है। नई शिक्षा नीति में इसे ध्यान में रखते हुए सरकारी और निजी विश्वविद्यालयों
को प्रोत्साहित और विकसित करने की रूपरेखा तैयार की गई है।
शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार न आ पाने या फिर विद्यार्थियों के कौशल विकास की दिशा में अपेक्षित नतीजे न आ
पाने की बड़ी वजह शिक्षकों का नवोन्मेषी और नई जरूरतों के मुताबिक तैयार न होना रहा है। नई शिक्षा नीति में
इस बिंदु पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया गया है। फिर पाठ्यक्रमों का स्वरूप रोजगार और विशेष योग्यता
अर्जित करने, अनुसंधान आदि के आधार पर तैयार करने पर जोर दिया गया है। दरअसल, अब शिक्षा प्रणाली को
न सिर्फ अपने देश की, बल्कि वैश्विक जरूरतों के मुताबिक ढालना बहुत जरूरी है, ताकि विज्ञान, तकनीकी शिक्षा,
सामाजिक विज्ञान आदि क्षेत्रों में प्रतिभाओं को आगे बढऩे का मौका मिल सके। नई शिक्षा नीति से यह मकसद सध
सकता है। अब सरकार का जोर इसे पूरी तरह लागू करने पर होना चाहिए।