डॉ. राममनोहर लोहिया के प्रेमियों और प्रशंसकों को सवाल बुरा लग सकता है कि डॉ. लोहिया में खास क्या है। वे कहेंगे, उनकी हर चीज खास है, उनका चिंतन, उनकी राजनीति, उनके द्वारा उठाए गए मुद्दे और सबसे बढ़ कर उनका व्यक्तित्व, जो प्रत्येक व्यक्ति को सदा के लिए उनके निकट ला देता था। सच तो यह है कि उनकी हर चीज खास थी, अनोखी थी, दूसरों से हट कर थी, इसीलिए भारत का परंपरागत समाज उन्हें पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर पाया। हताशा में आ कर उन्होंने कहा था : लोग मेरी बात सुनेंगे, पर मेरी मृत्यु के बाद। डॉ. लोहिया की मृत्यु 12 अक्टूबर, 1967 को दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में हुई थी। तब से पचास वर्ष बीत चुके हैं। क्या आज कोई लोहिया की बात को सुनता नजर आ रहा है? कह सकते हैं, स्थिति ठीक उलटी है। 1967 में भारत एक नये उभार में था। कांग्रेस की संभावनाएं खत्म हो चुकी थीं, गैर-कांग्रेसवाद के नतीजे सामने आने वाले थे। ठीक ऐन मौके पर जब देश के अनेक राज्यों में साझा गैर-कांग्रेसी सरकारें बन चुकी थीं, और भारतीय राजनीति का यह अभिनव प्रयोग कसौटी पर था, उसके प्रणोता नहीं रहे। मेरा अनुमान है कि वह और दस साल भी जिंदा रहते तो आज भारतीय राजनीति की दिशा और होती।लेकिन भारत की किस्मत ही कुछ ऐसी है कि जब किसी नेता की जरूरत सबसे ज्यादा रहती है, वह अनंत की यात्रा पर निकल चुका होता है। आजाद भारत को महात्मा गांधी की सबसे ज्यादा जरूरत थी। गांधी जी रहते, तो विकास की उस धारा पर राष्ट्रीय बहस हो सकती थी, जिसकी भयावह परिणतियों का सामना हम आज कर रहे हैं। जेपी तब चल बसे, जब जनता पार्टी की सरकार को अपनी भावी दिशा तय करनी थी। पिछले दो सौ साल के सभी भारतीय नेताओं को याद कीजिए और सोचिए कि गांधी और लोहिया को छोड़ कर कौन नेता ऐसा था, जिसने जीवन और समाज के लगभग सभी पहलुओं पर गंभीरता से विचार किया है? गांधी को ‘‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना भाल’ या ‘‘शांति का दूत’ तक सीमित रखना उनसे ज्यादा अपने साथ अन्याय है, क्योंकि इस स्थिति में हम गांधी से आज जो कुछ ले सकते हैं, नहीं ले सकते। गांधी के लिए स्वतंत्रता संघर्ष गौण चीज थी, जो उन्होंने बार-बार दुहराया भी। उनकी बुनियादी रु चि इसमें थी कि हम क्या खाएं, क्या पहनें, कैसे शौच करें, रोजगार कैसे हों, खेती कैसी हो, पशु पालन के लक्ष्य क्या हों, हमारे बच्चे कैसे पढ़ें, स्त्री-पुरु ष संबंध कैसे हों, सरकार का ढांचा क्या हो, हमें शहर चाहिए या गांव, राज्य और नागरिक का रिश्ता क्या हो, विभिन्न समुदाय एक दूसरे के साथ कैसे रहें, युद्ध के सम्मुख हम क्या करें, वगैरह-वगैरह। यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि गांधी जी को भारत से और भारत की जनता से बहुत लगाव था। इसी कारण ही वे देश की मिट्टी से ले कर आसमान तक, प्रसव से ले कर मृत्यु तक, सोच सके और जो उन्हें ठीक लगा, वह हमारे सामने रख सके। मेरा निवेदन है कि गांधी के बाद लोहिया के ही मन में भारत के लोगों, यहां के भूगोल, इतिहास और भविष्य से इतना लगाव था। इसीलिए लोहिया की राजनीति को किसी एक या दो-चार बिंदुओं तक सीमित नहीं किया जा सकता। लोहिया समाजवादी थे और वह समाजवाद ही क्या जो जीवन के बड़े से बड़े और छोटे से छोटे पहलू पर विचार न करे। भारतीय समाज की बनावट, उसके अंतर्सघर्ष, संस्कृति, इतिहास, साहित्य, जीवन पद्धति, जाति, रंग, भाषा, नर-नारी संबंध, इतिहास के पेच, सीमाओं की संवेदना, शिक्षा, विविद्यालय, पुरातत्व, नदियां, पेड़-पौधे, हिमालय, कृषि और उद्योग, कीमतों की लूट, हिंसा और अहिंसा का प्रश्न, अन्याय का सामना कैसे करें, उत्पादन कैसे बढ़े, विषमता कैसे कम हो, मानव अधिकारों को जीवन में कैसे प्रतिष्ठित किया जाए, शिष्टाचार, पोशाक, राजनैतिक दलों का संगठन, अनुशासन और स्वतंत्रता, क्रांति, विदेश नीति, पंचायत, जिला, सरकार, राष्ट्रवाद, विश्व सरकार यानी कोई ऐसा पहलू नहीं है, जिस पर लोहिया ने गहराई और सुसंगति के साथ विचार न किया हो। आखिर क्या बात है कि लोहिया के अलावा उनके समकालीन किसी भी नेता का ध्यान इस ओर नहीं गया कि अंग्रेजी ने अधिकांश भारतीयों की अभिव्यक्ति छीन ली है, जाति भारतीय मनुष्य को किस-किस तरह से पतित कर रही है, फैंसी स्कूल शिक्षा व्यवस्था को नष्ट कर रहे हैं, सीमाओं की सुरक्षा कैसे की जाए, नदियों को कैसे साफ रखा जाए, कीमतों में स्थिरता कैसे लाई जाए और अधिकतम और न्यूनतम आमदनी के बीच रिश्ता क्या हो; ये चीजें किसी अंधे को भी दिख सकती थीं। स्पष्ट है कि स्वतंत्र भारत का जो ढांचा बना, उसकी बुनियाद में संवेदना नहीं थी। देश-दुनिया से प्रेम नहीं था। जब प्रेम होता है, तब एक-एक जर्रे की हरकतें हमें स्पर्श करती हैं। डॉ. लोहिया में यही खास था। वे देश और धरती से प्रेम करते थे, इसलिए उनका सरोकार हर चीज से था। भविष्य में जब कोई अच्छी राजनीति बनेगी, तब वह भी सभी चीजों पर पुनर्विचार करेगी और साहसिक निर्णय लेगी।