गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा
यह सत्य है कि स्वयं को स्वस्थ व प्रसन्न रखने का प्रयास करते रहना चाहिए क्यों कि जीवन में हर वस्तु का विकल्प या तोड़ है यदि हम हैं पर यह पूर्ण सत्य और सटीक सोच नहीं है।
हमारे स्वत्व का अस्तित्व विश्व की अवस्थिति, साम्य, समन्वय और प्रमा पर निर्भर रहता है!
यदि विश्व शांत नहीं तो उसका कोई अवयव, पंचभूत, जीव, मानव, मनीषी, ब्रह्म ज्ञानी-विज्ञानी, सृष्टि प्रबंधक या सृष्टि निदेशक भी उससे प्रभावित होगा!
जो जिस अवस्था में होगा उसे सृष्टि की स्थिति, अवस्थिति व परिस्थिति से समन्वय करना पड़ेगा! इसी समायोजन में कुछ सुख दुख का अनुभव होगा। जो अनन्त सुख में रह पाएँगे वे ही आनन्द का अनुभव कर पाएँगे!
बिना इस आपेक्षिक सुख, दुख या आनन्द की अनुभूति के जीवन में कुछ रस रास भी परिलक्षित नहीं होगा! केवल स्वयं को प्रसन्न या आनन्दमय रखने का प्रयास प्रकृति में सफलीभूत नहीं हो पाएगा!
सृष्टि एक सार्वभौमिक व्यवस्था है! सबका स्वास्थ्य, अस्तित्व, विकास और विनिमय परस्पर संबद्ध और लयबद्ध है!
सृष्टि के हर एक अवयव ब्राह्मी मन, पंचभूत, वनस्पति तंतु, जीव जंतु, मानव संत और मुक्त मन को स्वयं
यथा-सम्भव, यथा-शक्ति, यथा-शीघ्र स्वयं-सेवा करनी है पर साथ ही सृष्टि के हर अवयव की भी सेवा करनी है।
सृष्टा के उर-सुर से अपना उर-सुर मिलाकर चलना होगा; उनकी भावना से अपनी भावना-चाहना मिला सृष्टि के सामूहिक विकास में सहयोग व समर्पण कर हर देश (स्थान), काल व पात्र की सेवा का लक्ष व भाव रखना पड़ेगा!
यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमारा स्वयं का स्वास्थ्य, सुख, आनन्द या तथाकथित उपलब्धि या विकास अधूरा या अपूर्ण रह जाएगा!
पंचभूत के प्रत्येक अवयव (आकाश, वाताश, अग्नि, जल व पृथ्वी) का स्फुरण, परिष्फुटन व प्रचेष्टा, प्रति
पुष्प का प्रहसन, प्रति जीव जंतु व कोशिका की कुहक, प्रति मनुज की
अभिव्यक्ति, अनुभूति व संतृप्ति और प्रति मुक्त मन या त्राणी की ध्यान ज्ञान सृष्टि प्रबंधन की प्रक्रिया सृष्टि के हर आयाम में हर कण-गण को ऊर्जा, आभोग, आशीष व कृपा देती चल रही है और उसी से हम स्थिति, साम्य, सौम्य और सार्वभौमिक लय, सुरभि व आनन्द पा रहे हैं!
हर जीव जीवन या कण-गण की कृपा बिन हम जीवित व आल्ह्वादित नहीं रह पाएँगे! केवल स्वयं में हम न अस्तित्व पाएँगे और न व्यक्तित्व-कृतित्व और ना ही आनन्द उल्लास! ना अभिलाष रहेगी, ना त्रास, ना हास और ना कोई मिठास!
इसलिए जिओ, जीने दो, जिलाओ, आत्म-ज्योति जलाओ, जगत पति से दिल मिलाओ, प्रकृति की कृति समझो और सृष्टि नियंता व निदेशक के कार्य में हाथ बटाओ!
सृष्टा स्वयं सृष्टि में मिल गए हैं! सृष्टि-चक्र चला वे प्रकृति से व हम सब से सब समय उन्मुख हुए लीला कर रहे हैं! लीलामय का लावण्य अद्भुत है पर हम उन्हें पहचान नहीं पाते, प्रीति नहीं कर पाते! और वे हैं कि जनाना भी नहीं चाहते और हम सोचते हैं कि हम ही वही हैं!
ब्रह्म व जीव की इस लुका-छिपी खेला का रस, रहस्य व ललित एक अद्भुत कला, विज्ञान व प्रबंध कौशल है जिसे हम तब तक नहीं समझते जब तक वे स्वयं हम में प्रविष्ट हो इष्ट न बन जाएँ!
इष्ट से एकात्म हो द्वैत समाप्ति, भय विलुप्ति, कर्म में सार्वभौमिक प्रचेष्टा व अनुरक्ति, धर्म में धृति और भक्ति में ऐश्वर्य आजाता है!
तब अप्रतिम प्रचेष्टा होंगी, प्रचेता प्रकट होंगे, रचना बनेंगी, विराट ज्ञान-विज्ञान प्रकट होगा, भाषा साहित्य व कला आत्मीय भाव प्राकट्य करेंगी और भाव गंगा में ज्वार देख हर जीव थिरकित पुलकित हो वह पाता जाएगा जो उसकी सोच से परे होगा!
तब जीव और विश्व की पृथकता का भाव तिरोहित हो आल्ह्वाद आएगा! स्वयं की सेवा का भाव तब स्वयंभू की सेवा का भाव बन जाएगा! परस्पर आनन्द दे, हर प्राण अविरल अभिराम आनन्द पा जाएगा!
अपनी सृष्टि के स्वास्थ्य, सुख व सम्पन्नता के लिए उनकी यही इच्छा है!