बेरोजगारी का हुनर अगर शिक्षा ने ओढ़ लिया है, तो हमें रोजगार के हुनर की तलाश होनी चाहिए। हिमाचल की
विडंबना यह है कि यहां रोजगार के सारे मायने और नौकरी के सारे सपने, सरकारों को अलंबरदार बना देते हैं।
यानी रोजगार का स्वामित्व ओढक़र सरकारें बेरोजगारी में से नौकरी का हुनर तलाशती हैं और इसके सदके अप्रत्यक्ष
रूप से सौदेबाजी होती है। ऐसे में प्रदेश की शिक्षा केवल एक इंतजाम है, न कि इसे रोजगार का मुकाम बनाने की
कोशिश हो रही है। इसी साल का ब्यौरा देखें, तो रोजगार कार्यालयों तक पहुंची बेरोजगारी के आलम में पौने लाख
के करीब स्नातकोत्तर उपाधियां खाक छान रही हैं, तो डेढ़ लाख स्नातक इस सूची में नाम दर्ज करवा चुके हैं। करीब
सवा छह लाख मैट्रिक और इससे नीचे अनपढ़ता और पढ़ाई के खाने में रोजगार के लिए करीब तीस हज़ार लोग
आशावान हैं। रोजगार पाने की इस ख्वाहिश से अलग भी युवाओं की एक दुनिया है, जो रोजगार कार्यालयों से बाहर
आकाश खोज रही है।
अधिकांश इंजीनियरिंग छात्र और एमबीए जैसे डिग्रीधारकों के लिए हिमाचल में रोजगार के मायने पैदा ही नहीं हुए,
नतीजतन अधिकांश युवा या तो सरकारी नौकरी के उपलब्ध विकल्पों से समझौता करते हैं या अपनी डिग्रियों को
कोसते हैं। हिमाचल के निजी विश्वविद्यालयों तथा इंजीनियरिंग कालेजों की योग्यता पर बट्टा लगाते रोजगार क्षेत्र
का हुनर, अगर शिक्षा का यही स्तर पैदा कर रहा है, तो सरकारी घोषणाओं से रहम की भीख मांगें। आश्चर्य यह
कि तकनीकी विश्वविद्यालय ने इंजीनियरिंग और बिजनेस स्कूलों के तबेले में डिग्रियां भेड़-बकरियां बना दीं।
हिमाचल से निकलती एमबीए की डिग्री अगर सरकारी नौकरी में क्लर्क भर्ती की प्रतीक्षा कर रही है, तो लानत ऐसे
संस्थान को दें या पठन-पाठन की ऐसी फिजूलखर्ची को कोसें। कमोबेश यही हाल आगे चलकर हिमाचल से निकलती
मेडिकल डिग्री का भी होगा, जब करीब आठ सौ डाक्टर बेरोजगारी से लाइलाज हो जाएंगे। हम शिक्षा विस्तार से
बेरोजगारी का हुनर पाल रहे हैं, जबकि हमारे हुनर में रोजगार की योग्यता पैदा नहीं हो रही। हिमाचल के अधिकांश
कालेज स्नातकोत्तर स्तर तक पहुंच कर अप्रासंगिक हो रहे हैं, लेकिन हर नेता को अपने वजूद में शिक्षा के ऐसे
तमगे ढोने हैं, सो युवा पढ़ कर काबीलियत खो रहे हैं।
यानी एक बच्चा मैट्रिक के बाद अगर रोजगार का रास्ता चुनते हुए हुनर सीख ले, तो यह उसके जीवन के लिए
कारगर होगा, लेकिन एमए करने के बाद अगर नौकरी पाने की भीड़ में खड़ा रहने का आदी हो जाए, तो जीवन
पश्चाताप से ही भीगता रहेगा। दरअसल शिक्षा का वर्तमान ढर्रा और सरकारों का शिक्षा के प्रति नज़रिया हमारे
बच्चों को बेरोजगार बना रहा है। होना इसके विपरीत चाहिए और यह रोजगार के लिए हुनर पैदा करने का माहौल
है जो शिक्षा में उचित व अनुचित का फर्क पैदा करता है। उदाहरण के लिए अगर हर स्कूल, कालेज और
विश्वविद्यालय से पूछा जाए कि शिक्षा के राग में रोजगार का हुनर पैदा करने में क्या किया, तो मालूम हो जाएगा
कि परिसरों में केवल डिग्रियां ही तप रही हैं। हमारी शिक्षा में स्वरोजगार, स्टार्टअप या नवाचार का हुनर अगर पैदा
ही नहीं होगा, तो तालीम केवल नौकरी के तलवे चाटने की एक लंबी प्रक्रिया बनकर रह जाएगी।