-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर संसद में धन्यवाद प्रस्ताव पारित किया जाता है। यदि सत्ता पक्ष और
विपक्ष में संख्या का अंतर बहुत ही कम हो तो कई बार विपक्ष जोड़-तोड़ करता है और धन्यवाद
भाषण पर इस आशा में मतदान करवाता है कि शायद सरकार गिर जाए। लेकिन यदि अंतर ज्यादा
हो और सरकार मज़बूत हो तो विपक्ष प्राय: अभिभाषण के मुद्दों पर चर्चा करता है। लेकिन इस बार
कांग्रेस की ओर से इस अवसर का उपयोग एक तीसरे उद्देश्य के लिए किया गया लगता है। सब
जानते हैं कि संसद में विपक्ष बुरी तरह बिखरा हुआ है। संख्या के हिसाब से भी और रणनीति के
हिसाब से भी। कांग्रेस के सांसदों की संख्या और अन्य विपक्षी दलों की कुल जमा संख्या से कम है।
यदि सभी विपक्षी दलों के लोक सभा सदस्यों को भी मिला दिया जाए और वे सचमुच मिल भी जाएं,
तब भी वे सत्ता पक्ष से काफी दूर हैं।
लेकिन न मिल पाने का एक अन्य कारण भी है। कांग्रेस को अभी भी भ्रम है कि वह यूपीए काल की
तरह सारे विपक्षी दलों की धुरी बन सकती है और दूसरे दलों को यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए।
लेकिन दूसरे विपक्षी दलों का मानना है कि कांग्रेस अभी भी अपने भूतकाल में आ रही है। इक्कीसवीं
शताब्दी की राजनीति समझने के लिए उसे सबसे पहले भूतकाल से निकल कर वर्तमान काल में
आना पड़ेगा। लेकिन कांग्रेस को फिलहाल यह स्वीकार नहीं है। इसलिए विपक्ष के स्थान पर हम यहां
केवल कांग्रेस की ही बात करेंगे। कांग्रेस ने धन्यवाद प्रस्ताव के इस अवसर का प्रयोग कैसे और क्यों
किया। कांग्रेस की इस समय सबसे बड़ी समस्या राहुल गांधी हैं। कांग्रेस में इतना तो अलिखित रूप
से तय है कि उसकी नकेल सदा नेहरु-गान्धी राजपरिवार के हाथ में ही रहेगी। वह भी शायद राज
परिवार के पुरुष सदस्य के पास। यह अलग बात है कि इस राज परिवार ने इन्दिरा गान्धी के बाद
अपने नाम से नेहरु शब्द हटा दिया है जिसकी ओर व्यंग्य से नरेन्द्र मोदी ने भी संकेत किया था।
इस गणित से इस राज परिवार में गद्दी के हकदार राहुल गान्धी ठहरते हैं। लेकिन इसे राज परिवार
का दुर्भाग्य ही कहना होगा कि राहुल गान्धी बढ़ती उम्र के साथ परिपक्व नहीं हो रहे हैं। यही कारण
था कि वे भारतीय राजनीति में पप्पू के नाम से प्रसिद्ध हो गए। अब यदि किसी व्यक्ति की छवि
उस प्रकार की बन जाए तो उसके गले में माला डाल कर कोई भी पार्टी चुनाव के मैदान में कैसे उतर
सकती है? इसलिए पार्टी के पास दो काम थे। जब तक पप्पू सयाना नहीं हो जाता, तब तक पार्टी का
प्रधान किसी ‘अपने’ व्यक्ति को बना दिया जाए। सत्ता काल में तो सभी व्यक्ति राज परिवार के
‘अपने’ व्यक्ति बनने को लालायित रहते थे, लेकिन अब अन्धकार काल में लोग इस काम से कन्नी
कतराने लगे हैं।
राजस्थान के अशोक गहलोत ने तो मुख्यमंत्री पद का त्याग कर राजपरिवार का ‘अपना व्यक्ति’ बनने
से सार्वजनिक रूप से इन्कार कर दिया। तब विवशता में लगभग जीवन की चौथ में पहुंचे
मल्लिकार्जुन खडग़े को ‘अपने’ आदमी की भूमिका में उतारा गया। वैसे इसके लिए चुनाव बगैरह के
सभी सांसारिक कर्मकांड भी पूरे कर लिए गए। राज परिवार ने पहला काम तो जैसे तैसे निपटा दिया।
वैसे पार्टी में सभी को उनकी हैसियत बताने के लिए वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने इसके लिए ‘राम
की खड़ाऊं’ वगैरह का उदाहरण भी दिया। इसके साथ ही राहुल गान्धी कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर
तक की पद यात्रा करने के लिए घर से निकले। इसका भी उद्देश्य यही था कि लोग राहुल गान्धी को
भी गंभीरता से लें। गंभीर और गहरा बनने के लिए यात्रा से पूर्व रिहर्सल वगैरह भी की ही होगी।
लेकिन इस सबके बावजूद वे कहीं कहीं ऐसी बातें कहते थे जिनकी व्याख्या करने के लिए दरबारियों
को काफी मशक्कत करनी पड़ रही थी। उदाहरण के लिए यात्रा में एक जगह कहने लगे, राहुल गान्धी
मर गया है। जिसे तुम देख रहे हो वह राहुल गान्धी नहीं है। वह राहुल गान्धी कब का मर चुका है।
मैं मैं नहीं हूं। राहुल गान्धी तुम्हारे दिमाग में है, बाहर वह है ही नहीं। इस प्रकार के ‘नाव में नदिया
डूबी जाए’ टाईप बयानों को सार्थक बनाने के लिए प्रवक्ताओं के पसीने छूटते थे। फिर भी लम्बी यात्रा
पूर्ण हुई। लेकिन लाभ के नाम पर यात्रा से केवल यह मिला कि लोग शायद पप्पू के स्थान पर
बोलचाल में भी राहुल गान्धी कहने लगे। अब राज परिवार के सामने तीसरा काम पड़ा था। नए राहुल
गान्धी को लोकसभा में लांच करना ताकि विपक्ष समझ ले कि अब राज परिवार का मुखिया सचमुच
विपक्ष का नेता बनने योग्य हो गया है। इसलिए सारे विपक्ष को उसका नेतृत्व स्वीकार कर लेना
चाहिए।
और देश के लोग समझ लें कि अब राहुल गान्धी उनका प्रधानमंत्री बनने के काबिल हो गया है। ये
दोनों उद्देश्य ध्यान में रखकर राहुल गान्धी धन्यवाद प्रस्ताव पर बोले। लेकिन लगता है इस बार भी
राहुल गान्धी को तैयार करने वाले किसी ‘भीतरी’ ने उनके हाथ हिंडनबर्ग की विदेश मार्का फुलझड़ी
देकर मैदान में उतार दिया। वे भी किसी अच्छी तरह सिधाए व्यक्ति की तरह राष्ट्रपति के
अभिभाषण पर चर्चा करने की बजाय हिंडनबर्ग की फुलझड़ी जला कर स्वयं ही प्रसन्न होते रहे।
शायद इसीलिए अब कांग्रेस के भीतर ही सवाल उठने लगे हैं कि कहीं हजारों किलोमीटर की यह
पद्यात्रा बेकार ही तो नहीं चला गई। राहुल गान्धी तो अब भी वहीं खड़े लगते हैं जहां यात्रा से पहले
फुलझडिय़ां चलाया करते थे। बेचारे सलमान खुर्शीद अभी भी खड़ाऊं लेकर खड़े हैं। परिपक्व हुए बिना
भारतीय राजनीति में बड़ा स्थान बनाना मुश्किल है। हालांकि इस बार पद्यात्रा में राहुल गांधी ने सेना
का हौसला जरूर बढ़ाया और उसका मान बढ़ाकर जरूर यह कहा कि सेना के किसी अभियान पर
किसी तरह के सबूत की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन फिर भी कई बातें उन्होंने ऐसे कर दी कि वह
मैच्योर नजर नहीं आए। उनकी माता सोनिया गांधी अब बुजुर्ग हो चली हैं, इसलिए जरूरत इस बात
की है कि कांग्रेस की कमान संभालने के लिए राहुल गांधी को जल्द से जल्द मैच्योर होना है।