-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-
कुछ दिन पहले असम सरकार का एक विज्ञापन उत्तरी भारत के प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ
है। विज्ञापन के अनुसार असम के महान सेनापति लचित बडफूकन (1622-1671) की जयंती, जो
24 नवम्बर को आती है, के उपलक्ष्य में दिल्ली के विज्ञान भवन में तीन दिवसीय लचित बडफूकन
उत्सव का आयोजन किया जा रहा है जिसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी शिरकत कर रहे हैं। असमिया
भाषा में फूकन सेनापति को कहते हैं और बडफूकन यानी प्रमुख सेनापति। लेकिन लचित ने ऐसा
कौन सा काम किया था जिसके कारण उनको इतनी सदियों बाद भी स्मरण किया जा रहा है।
दरअसल प्रश्न तो यह होना चाहिए था कि लचित को आज तक याद क्यों नहीं किया गया? भारतीय
विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाने वाले इतिहास का दुर्भाग्य यही है कि न तो उसमें दक्षिण भारत के
इतिहास को शुमार किया जाता है और न ही पूर्वोत्तर भारत के इतिहास को। भारत में से मुगल शासन
को निपटाने में जितना श्रेय शिवाजी मराठा, महाराणा प्रताप और खालसा पंथ को जाता है, उतना ही
श्रेय लचित बडफूकन के हिस्से में भी आता है। लेकिन मुगल शासकों को भारत के स्थानीय शासक
मानने वाले इतिहासकारों ने इस प्रकार के नायकों को भुलाना ही ज्यादा अच्छा समझा।
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, नुरूल हसन और हुमांयू कबीर जैसे लोग भारत के शिक्षा मंत्री रहे हों
तो ज़ाहिर है बीडी पांडेय जैसे तथाकथित इतिहासकार ही मान्य होंगे जिसने औरंगजेब की प्रशस्ति में
एक ग्रन्थ लिख दिया। लचित बडफूकन उसी औरंगजेब की सेना को असम में पराजित करने वाले
सेनानायक थे। मुग़लों ने पूर्वोत्तर में बंगाल पर कब्जा तो अरसा पहले कर लिया था, लेकिन असम के
पर्वतीय प्रदेश उनके कब्जे में नहीं आ रहे थे। असम मुग़लों के कब्जे में आ जाता तो दक्षिण पूर्व
एशिया तक में घुसने का रास्ता मिल जाता। तब हिन्द-चीन भी इस्लामी देश बन जाते। यह काम
औरंगजेब ने अपने कार्यकाल में संभाला। उसने असम पर कब्जा करने के लिए मीरजुमला के नेतृत्व
में अपनी सेना भेजी। मीर जुमला कुशल सेनापति था। वह असम सेना को पराजित करता हुआ भीतर
तक घुस गया। बहुत से असम सैनिक इस युद्ध में शहीद हो गए। असम नरेश जयध्वज सिंह को
राजधानी छोडक़र गढगांव जाना पड़ा। मीर जुमला ने असम के अनेक हिस्सों को तबाह कर दिया।
बस्तियाँ जला दीं। इतना ही नहीं असम के पुराने राजाओं की क़ब्रों को उखाड़ा गया। राजा को
मीरजुमला के साथ अपमानजनक संधि करनी पड़ी। बहुत सा इलाक़ा मुग़लों को देना पड़ा। मुग़लों के
अधीन राजा बन कर रहना पड़ा। अपनी बेटी मुग़लों को देनी पड़ी। इसी अपमान के चलते जयध्वज
सिंह की मृत्यु हो गई। उसके उपरान्त चक्रध्वज सिंह राजा बना। चक्रध्वज ने कहा मुग़लों के निशान
ढोने से बेहतर है यमराज के पास चले जाना। चक्रध्वज सिंह किसी भी तरह असम को मुग़लों के
कब्जे से छुड़ाना चाहता था। औरंगजेब बलशाली था। देश के अधिकांश हिस्से पर उसका कब्जा था।
लेकिन चक्रध्वज सिंह को चैन नहीं थी। उसने इस काम के लिए लचित बडफूकन को सेनापति
नियुक्त कर दिया। नए सिरे से असमिया सेना गठित की गई।
असम की सेना ने मुग़लों से असम को आज़ाद ही नहीं करवाया बल्कि इस अभियान में गुवाहाटी भी
मुक्त हो गया। असम का मुक्त हो जाना औरंगजेब के लिए चुनौती बन गया। उसने जयपुर के राम
सिंह के नेतृत्व में विशाल सेना दिल्ली से असम भेजी ताकि किसी भी तरीक़े से असम पर कब्जा कर
हिन्द चीन तक जाने के लिए रास्ता साफ किया जा सके। दिल्ली से जा रही औरंगजेब की यह सेना
असम जाने से घबरा रही थी क्योंकि असम के लोग काला जादू जानते हैं, ऐसी प्रसिद्धि थी। इसलिए
औरंगजेब ने सेना के साथ पाँच सैयद पीर रवाना किए ताकि वे वहाँ के काला जादू का मुक़ाबला कर
सकें। उधर असम सेना अपने सेना नायक लचित बडफूकन गुवाहाटी में सन्नद्ध थी। असमिया सेना
के मुक़ाबले औरंगजेब की सेना कहीं ज्यादा थी। लेकिन लचित ने गुरिल्ला युद्ध का रास्ता अपनाया।
राम सिंह ने संदेश भेजा कि यह अधर्म है। लचित ने उत्तर दिया कि विदेशी मुग़लों का भारत पर
आक्रमण क्या धर्म के दायरे में आता है? इसके विपरीत लचित ने राम सिंह को लानत भेजी कि वह
अपने देशवासियों का साथ छोडक़र विदेशी मुग़लों का साथ दे रहा है। राम सिंह ने लज्जित होकर
ताबड़तोड़ हमले किए। हार जीत का सिलसिला चलता रहा। लेकिन औरंगजेब की सेना गुवाहाटी के
अन्दर प्रवेश नहीं कर सकी। राम सिंह ने लचित को समझौता कर लेने का पैग़ाम भी भेजा।
लचित ने उत्तर दिया, यह बात औरंगजेब को करनी चाहिए। उधर औरंगजेब असम को न जीत पाने
के कारण व्याकुल हो रहा था। इसलिए उसने राम सिंह को डाँट लगाई। इसी बीच चक्रध्वज सिंह का
देहान्त हो गया। नए राजा ने भी मुग़लों को हराने का संकल्प जारी रखा। मुग़लों द्वारा गुवाहाटी को
घेरा डाले हुए लगभग अढाई साल हो गए थे। अब अंतिम चढ़ाई का वक्त आ गया था। लचित
बडफूकन चाहते थे कि औरंगजेब की सेना किसी तरीक़े से ब्रह्मपुत्र पर आ जाए। ब्रह्मपुत्र पर असम
की सेना का मुक़ाबला करना कठिन था। लचित की रणनीति सफल रही। सरायघाट के स्थान पर
दोनों ने मोर्चाबन्दी की हुई थी। लेकिन दुर्भाग्य से लचित बीमार हो गए। परन्तु यह असम का ही
नहीं बल्कि भारत के भाग्य का प्रश्न था। पश्चिमी भारत में शिवाजी मराठा ने मुग़लों की नाक में
दम किया हुआ था। पश्चिमोत्तर में दशगुरु परम्परा से नई चेतना जागृत हो गई थी जिसके चलते
मुगल सत्ता चौकन्ना हो गई थी। अब यदि असम में औरंगजेब जीत जाता है तो पूरे भारत में मुग़लों
को नई ऊर्जा मिल जाती। इसलिए इस मुगल प्रवाह को रोकने का दायित्व अब लचित पर आ गया
था। उसने अपनी बीमारी की चिन्ता नहीं की। रात्रि को लचित गश्त पर निकले तो उसका मामा थक
कर सो गया था। लचित ने कहा, देश पहले और मामा बाद में। लचित ने तलवार से अपने मामा की
गर्दन काट दी। पूरी सेना में जैसे करंट दौड़ गया हो। ब्रह्मपुत्र की लहरों पर सरायघाट के स्थान पर
असम सेना और मुगल सेना में भयंकर युद्ध हुआ। रक्त से नदी मानों लाल हो गई हो। लचित की
सेना जीत गई। औरंगजेब की पराजय हुई। यह पराजय मुगल साम्राज्य के कफन की कील साबित
हुई। आज लचित बडफूकन की चार सौवीं जयंती है।