-डा. अश्विनी महाजन-
आज जब दुनिया के कई मुल्क अपनी खाद्य सुरक्षा को लेकर आशंकित हैं, भारत दुनिया के सामने
एक मिसाल बनकर उभरा है। महामारी काल में जब सभी आर्थिक गतिविधियां ठप्प हो गई थीं और
गरीबों, मजदूरों और वंचितों के आय के स्रोत समाप्त हो रहे थे, ऐसे में भारत सरकार द्वारा 80
करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन उपलब्ध कराने की योजना और उसका सफल निष्पादन अचंभित करने
वाला कहा जा सकता है। हालांकि अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां भारत में खाद्य सुरक्षा को लेकर भ्रामक
प्रचार में जुटी हैं, लेकिन धरातल पर एक अलग चित्र उभर रहा है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा
सकता है। एक समय था जब 1964-65 में भारत में खाद्यान्न उत्पादन मात्र 890 लाख टन ही
था, जबकि भारत की कुल जनसंख्या 50 करोड़ ही थी। ऐसे में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता
मात्र 178 किलोग्राम प्रतिवर्ष ही थी। उस समय खाद्यान्नों की कमी तो थी ही, साथ ही साथ अन्य
पोषक खाद्य पदार्थों का उत्पादन भी बहुत कम होता था। हमने देखा कि वर्ष 1964-65 में देश में
कुल 205 लाख लीटर ही दूध का उत्पादन होता था, यानी 28 मिली लीटर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन।
फल-सब्जियां और अंडों इत्यादि का उत्पादन भी बहुत कम मात्रा में होता था। ऐसे में तत्कालीन
प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने देशवासियों से सप्ताह में एक दिन उपवास करने का भी आह्वान
किया था, ताकि खाद्यान्न एवं अन्य खाद्य पदार्थों की कमी से निपटा जा सके। अन्य खाद्य पदार्थों
का उत्पादन भी कम होने के कारण देश में खाद्यान्नों की आवश्यकता कहीं ज्यादा होती थी। इन
हालात में देश के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था कि वो विदेशों से खाद्यान्न आयात करे।
अमरीका एक ऐसा देश था जिसके पास अतिरिक्त खाद्यान्न उत्पादन था। जब अमरीका से इस
संबंध में संपर्क साधा गया तो उसने पीएल-480 योजना के तहत भारत को गेहूं भेजा। अमरीका
द्वारा भेजा गया गेहूं जिसे लाल गेहूं के नाम से भी पुकारा जाता था, अत्यंत घटिया किस्म का था
कि देशवासी बहुत कम मात्रा में उसका उपभोग कर पाए। लेकिन विडंबना यह थी कि उसके साथ ही
कई प्रकार के फफूंद एवं खरपतवार भी भारत में प्रवेश कर गए। एक अत्यंत खतरनाक खरपतवार
जिसे ‘कांग्रेस ग्रास’ के नाम से भी जाना जाता है, वो भी साथ में आ गया। देश इस खरपतवार से
तब से जूझ रहा है और हमारी लाखों एकड़ भूमि ही इसके कारण बर्बाद नहीं हुई, बल्कि इसे साफ
करने के लिए हर साल हजारों करोड़ रुपया बर्बाद हो जाता है।
लेकिन आज दुनिया को खाद्य सुरक्षा दे रहा है भारत। हाल ही में दुनिया में खाद्य पदार्थों की कमी
और बढ़ती कीमतों के मद्देनजर भारत सरकार ने गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था।
बाजारवादी अर्थशास्त्रियों ने तब इस बात के लिए भारत सरकार की आलोचना भी की थी कि सरकार
बाजार के सिद्धांतों से इतर, गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया है। समझना होगा कि दुनिया के
खाद्यान्नों के बाजार पर कुछ बड़ी कंपनियां काबिज हैं, जो अंतरराष्ट्रीय बाजारों से खाद्यान्न
खरीदकर उससे अधिकाधिक लाभ कमाने की कोशिश करती हैं। ऐसे में दुनिया में जब खाद्यान्नों की
कमी का संकट आ रहा था, यह उनको लाभ अधिकतम करने का सुनहरा अवसर था। यदि उन्हें ऐसा
करने दिया जाता तो वह उन गरीबों के साथ अन्याय होता जिन्हें खाद्य पदार्थों के लिए ऊंची कीमतें
देनी पड़ती।
यह बात हम इस तथ्य से समझा सकते हैं कि वित्त वर्ष 2021-22 में भारत ने लगभग 2.12
बिलियन डॉलर मूल्य के 7 मिलियन टन से अधिक गेहूं का रिकॉर्ड निर्यात किया, जो पिछले वर्ष की
इसी अवधि की तुलना में मूल्य के संदर्भ में 274 प्रतिशत अधिक था। इस प्रकार सरकार द्वारा गेहूं
के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के कारण बाजारी शक्तियों के मंसूबे पूरे नहीं हो पाए। लेकिन इसका
मतलब यह नहीं है कि सरकार द्वारा अन्य जरूरतमंद देशों को गेहूं का निर्यात नहीं किया गया।
गौरतलब है कि सरकार द्वारा गेहूं निर्यात जारी रखा गया है। सरकार का मानना है कि किसी भी
देश को जरूरत पडऩे पर भारत उन्हें खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करने के लिए तैयार है। इस वित्तीय
वर्ष 22 जून तक पिछले वर्ष से लगभग चार गुना अधिक 18 लाख टन गेहूं अफगानिस्तान,
बांग्लादेश, भूटान, इजऱाइल, इंडोनेशिया, मलेशिया, नेपाल, ओमान, फिलीपींस, कतर, दक्षिण कोरिया,
श्रीलंका, सूडान, स्विट्जरलैंड, थाईलैंड, संयुक्त अरब अमीरात, वियतनाम और यमन सहित कई देशों
को भेजा गया है। निर्यात पर प्रतिबंध लगाने का मतलब यह नहीं है कि भारत में खाद्यान्नों की
कमी है।
खाद्य सुरक्षा ही नहीं, सुपोषण भी : लंबे समय तक यह विचार किया जाता रहा है कि खाद्य सुरक्षा
व्यक्ति की भूख शांत करना और काम के लिए आवश्यक कैलोरी उपलब्ध कराना मात्र ही है। इसीलिए
खाद्यान्न उत्पादों पर ही अधिक ध्यान केन्द्रित रखा गया। आज भारत खाद्यान्न ही नहीं, अन्य
खाद्य पदार्थों में भी केवल आत्मनिर्भर ही नहीं, बल्कि एक निर्यातक देश भी है। भारत में वर्ष
2021-22 में कुल खाद्यान्न उत्पादन 3160 लाख टन है, यानी 227 किलो प्रति व्यक्ति। भारत में
खाद्यान्न एवं अन्य खाद्य पदार्थों जैसे दूध, अंडे, सब्जी, फल, मछली आदि सभी का उत्पादन बढ़ा
है। पिछले दो दशकों को देखें तो पता चलता है कि दूध का कुल उत्पादन वर्ष 2000 में मात्र 777
लाख टन था, जो 2021-22 तक बढ़ता हुआ 2100 लाख टन तक पहुंच चुका है।
खाद्यान्न भंडार : किसानों की अथक मेहनत और सरकारी प्रोत्साहनों के चलते भारत में खाद्यान्न
उत्पादन काफी बढ़ा है, और 2021-22 तक यह रिकार्ड 3160 लाख टन तक पहुंच गया। इसका
परिणाम यह हुआ कि देश की आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद भी सरकार के खाद्यान्न भंडार 2019-
20 तक लगातार बढ़ते गए। 2020 की कोरोना महामारी के बाद इन्हीं खाद्यान्न भंडारों का उपयोग,
पिछले 28 महीनों तक ऐसी लगभग 80 करोड़ जनसंख्या की खाद्य सुरक्षा के लिए उपयोग किया
गया और भारत ने दुनिया में एक ऐसी शक्ति के रूप में पहचान बनाई कि महामारी के दौरान जब
सभी आर्थिक गतिविधियों पर विराम लग गया था, गरीबों की आमदनी शून्य हो गई थी, जब एक
तरफ समाज के सहयोग और दूसरी ओर सरकार के समर्थन के साथ देश में सभी की खाद्य सुरक्षा
को सुनिश्चित किया जा सका। यही नहीं, बीमारी से बचने हेतु सभी को टीका ही नहीं, बीमारी के
दौरान इलाज की भी यथासंभव व्यवस्था हुई और भारत में दुनिया के अन्य मुल्कों की तुलना में कहीं
कम मौतें दर्ज हुई।
दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम : प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा कोविड-19 की पहली
लहर के दौरान 26 मार्च 2020 को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना की शुरुआत की गई।
लगातार 28 महीनों तक 80 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन उपलब्ध कराने जैसी खाद्य सुरक्षा
व्यवस्था की मिसाल दुनिया में कहीं नहीं है।
वैश्विक एजेंसियों की आंकड़ेबाजी : उत्पादन में संतोषजनक वृद्धि और खाद्य की पौष्टिकता में
लगातार सुधार, कोरोना काल में भी खाद्य सुरक्षा के मामले में भारत सरकार की संवेदनशील
योजनाएं और उनका क्रियान्वयन होने और यही नहीं, दुनिया के कई अन्य देशों की खाद्य सुरक्षा को
सुनिश्चित करने के बावजूद हाल ही में ‘वेल्टहंगरहाईफ’ नाम की एजेंसी द्वारा भुखमरी के मामले में
भारत को 121 देशों की सूची में 107वें स्थान पर रखना इस एजेंसी और ऐसी किसी भी रपट पर
संदेह उत्पन्न करता है। इस रपट की जांच करने पर पता चलता है कि वेल्टहंगरहाईफ द्वारा राष्ट्रीय
पोषण निगरानी बोर्ड के आंकड़े उपलब्ध न होने के कारण किसी निजी संस्था द्वारा तथाकथित
‘गैलप’ सर्वेक्षण जिसका कोई सैद्धांतिक औचित्य भी नहीं, का उपयोग कर भारत की भुखमरी रैंकिंग
तैयार कर दी। एक अन्य दिलचस्प सवाल यह है कि क्या वैश्विक भूख सूचकांक में इस्तेमाल होने
वाले संकेतक जैसे बच्चों में ठिगनापन और पतलापन वास्तव में भूख को मापते हैं? यदि ये संकेतक
भूख के परिणाम हैं तो अमीर लोगों को भोजन तक पहुंच की कोई समस्या नहीं है। उनके बच्चे
ठिगने और पतले (स्टंटिंड और वेस्टिड) क्यों होने चाहिए।