-भारत डोगरा-
इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछली एक-दो शताब्दियों में विज्ञान व तकनीकी ने बहुत उल्लेखनीय उपलब्धियां प्राप्त
की हैं, पर इसके बावजूद यह सवाल बना रहा है कि मनुष्य की प्रगति कितनी वास्तविक है और कितनी भ्रामक।
हवा, पानी, मिट्टी, जो जीवन की सबसे बुनियादी जरूरतें हैं, उन सभी की स्थिति बेहद चिंताजनक है। युद्ध व
उसके हथियार इतने विनाशक हो चुके हैं कि कई हंसते-खेलते देश चंद वर्षों में इनसे तबाह हो चुके हैं। इन बड़े
मुद्दों को रहने दें तो भी दैनिक जीवन में, आसपास के जीवन में नाहक, बेवजह इतनी हिंसा व तबाही बिखरी हुई
है व उसके विश्व स्तर के आंकड़े डरावने हैं और निरंतर चल रहे युद्ध की तरह लगते हैं। बेशक भोग-विलास के
साधन बहुत बढ़ गए हैं, पर दुनिया की एक बड़ी आबादी किसी तरह मूल आवश्यकताओं को जुटाने के लिए
संघर्षरत है या असमर्थ है। जिस तरह मिट्टी, पानी, हवा आदि जीवन के आधार की क्षति हो रही है, उस स्थिति में
भविष्य में जीवन का यह संघर्ष विश्व की आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए और भी अधिक दुर्गम व जटिल हो
सकता है। तिस पर जलवायु बदलाव व इससे जुड़ी गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं तथा महाविनाशक हथियारों के
भंडार, अंतरिक्ष युद्ध की संभावना के कारण धरती की जीवनदायिनी क्षमताएं भी खतरे में पड़ती जा रही हैं। इस
आशय की अनेक चेतावनियां विश्व के जाने-माने वैज्ञानिक दे चुके हैं।
यह समकालीन दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है। जाहिर है, यह कहना उचित नहीं होगा कि हाल की शताब्दियों या
हाल के दशकों का इतिहास वास्तविक प्रगति का इतिहास रहा है। हां, इतना जरूर हो सकता है कि कुछ देशों का
कुछ वर्षों का इतिहास प्रगति का इतिहास रहा हो। उदाहरण के लिए भारत का 1950-1960 के दशक का इतिहास
कुल मिलाकर प्रगति का इतिहास रहा है। इसी तरह अशोक के राज्य काल के इतिहास को देखें तो कलिंग युद्ध के
बाद का दौर प्रगति का रहा, पर यह कलिंग युद्ध के पूर्व के दौर के बारे में नहीं कहा जा सकता। इतिहास को इस
तरह से देखना उचित नहीं है कि समय बीतने के साथ निरंतर प्रगति ही होती है। किसी भी समयावधि की हमें
जांच करनी होगी कि कुल मिलाकर इस समय में वास्तविक प्रगति हुई या नहीं। इस जांच का पैमाना क्या होगा?
मूलत: यह जांच पांच-स्तरीय हो सकती है। पहला सवाल तो यह है कि यह समय समता व न्याय बढ़ाने वाला रहा
कि नहीं। दूसरा सवाल यह है कि लोकतंत्र व पारदर्शिता की स्थितियां मजबूत हुई हैं या नहीं। तीसरा सवाल यह है
कि अहिंसा और अमन-शांति के लिए लोगों की प्रतिबद्धता बढ़ी है या नहीं। युद्ध के विरोध और अहिंसा की
प्रतिष्ठा में लोग कहां तक आगे बढ़ रहे हैं, हथियारों की दौड़ से उन्होंने अपने को दूर रखा है या नहीं। अगला
सवाल है कि क्या इस समयावधि के दौरान पर्यावरण व जैव-विविधता की रक्षा की गई है? क्या अन्य सभी जीव-
जंतुओं के प्रति करुणा भाव अपनाया गया? एक महत्त्वपूर्ण पैमाना यह भी है कि नजदीकी सामाजिक रिश्तों में,
सामाजिक समरसता को आगे बढ़ाने में सफलता मिल रही है कि नहीं? इन पांच पैमानों के आधार पर हम किसी
समाज का, किसी समयावधि के दौरान अध्ययन करें तो हम निष्पक्षता से बता सकते हैं कि इस दौर में इस समाज
ने प्रगति की या अवनति।