-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-
कुछ समय पहले दि कश्मीर फाइल्स फिल्म प्रदर्शित हुई थी। फिल्म में आतंकवादियों द्वारा
कश्मीरियों पर किए गए अत्याचार, उनकी सामूहिक हत्याओं का मार्मिक चित्रण किया गया था।
लेकिन आतंकवादियों और उनके समर्थकों का एक समूह चाहता था कि इस फिल्म का प्रदर्शन रोका
जाए। उसको लगता था कि यदि उनके अमानवीय कुकृत्य सामने आ गए तो उनके बारे में देश-विदेश
में जनमत प्रभावित होगा। उनका मामला कुछ कुछ ‘मारे भी और रोने भी न दे’ जैसा था। इसलिए
आतंकवादी समर्थक इन समूहों ने फिल्म को रोकने के लिए कोर्ट कचहरी तक का दरवाजा
खटखटाया। लेकिन वहां उन्हें सफलता नहीं मिली। फिल्म को सुनहरे पर्दे पर अपार सफलता मिली।
लेकिन इन आतंकवादी समूहों और उनके समर्थकों का, जैसा कि सभी जानते हैं, अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क
है। भारत में इस फिल्म को रोकने में वे असफल रहे तो उनके अंतरराष्ट्रीय समर्थकों ने अमेरिका से
लेकर लंदन तक में फिल्म का विरोध करना शुरू किया। इससे एक बात तो सिद्ध हो गई कि कश्मीर
में इतने दशकों से जो क़त्लेआम हो रहा था, उसके पीछे आतंकवादियों की ब्रिगेड नम्बर दो, सिविल
सोसायटी के नाम पर सक्रिय थी। तथाकथित आधुनिक काल में, कश्मीर में जो कुछ हुआ, किस
प्रकार कश्मीर से कश्मीरियों को ही निष्कासित होना पड़ा, उन्हीं के अपने ही भाई बंधुओं ने इस पर
जश्न मनाया, इसको विवेक अग्निहोत्री ने फिल्म के माध्यम से आम आदमी तक पहुंचाने का प्रयास
किया। अब गोवा में भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भी यह फिल्म पहुंच गई। इस समारोह
में कला विशेषज्ञों की बहुत बड़ी ज्यूरी बैठती है। वह फिल्मों को कला के दृष्टिकोण से जांचती
परखती है। उसका पोस्टमार्टम करती है। ज्यूरी के अध्यक्ष नदव लैपिड थे, जो इजराइल के रहने वाले
हैं और ख़ुद भी फिल्में बनाते हैं। समारोह के अंत में लैपिड को ज्यूरी की ओर से प्रदर्शित की गई
फिल्मों के बारे मे अपना अभिमत देना था।
उसने अन्य फिल्मों पर अपनी राय प्रस्तुत करते हुए अचानक दि कश्मीर फाइल्स को लेकर आक्रामक
रुख अपना लिया। उसने कहा यह फिल्म कला सैक्शन में तो रखने लायक थी ही नहीं। मैं हैरान हूं
यह इस सैक्शन में पहुंच कैसे गई? यह फिल्म बिल्कुल वाहियात है। यह केवल मात्र प्रोपेगंडा है।
लैपिड केवल यहीं तक नहीं रुका। उसने अपनी सीमा भी पार कर ली। उसने कहा फिल्म वल्गर है।
यह एक प्रकार की गाली ही है। बाद में उसने यह भी कहा कि जब किसी देश के लोग डर के कारण
नहीं बोलते तो किसी को तो बोलना पड़ता है। इसलिए मुझे फिल्म को लेकर यह कहना पड़ा। लैपिड
अपना यह सारा बयान किसी लिखे हुए कागज से पढ़ रहे थे। साथ ही उसने यह भी कहा कि आम
तौर पर मैं इस प्रकार के कार्यक्रमों में पढ़ कर नहीं बोलता, लेकिन आज पहली बार ऐसा कर रहा हूं।
लैपिड ने दूसरे दिन यह भी कहा कि मुझे कश्मीर में क्या हो रहा है, उसके बारे में बहुत जानकारी
नहीं है। लेकिन कश्मीर से संबंधित फिल्म पर टीका-टिप्पणी करने के लिए मुझे कश्मीर के बारे में
ज्यादा जानने की जरूरत भी महसूस नहीं होती। दि कश्मीर फाइल्स को लेकर देश में टुकड़े टुकड़े
गैंग पहले ही सक्रिय था। लेकिन उसकी लाख कोशिशों के बावजूद फिल्म को लोगों ने सराहा। ज़ाहिर
है टुकड़े टुकड़े गैंग निराश हुआ। लेकिन यह भी सभी जानते हैं कि टुकड़े टुकड़े गैंग की भुजाएं देश से
बाहर भी फैली हुई हैं। किसान आंदोलन के समय उसके सबूत व संकेत भी मिले ही थे।
क्या नदव लैपिड उस गैंग के नेटवर्क की पकड़ में आ गया? यदि ऐसा न होता तो उसे यह कहने की
जरूरत न होती कि इस देश में डर के मारे लोग फिल्म के खिलाफ बोल नहीं सकते, इसलिए मुझे
इसके बारे में बोलना पड़ा। इतना ही नहीं बिना कश्मीर के बारे में जानते हुए बोलना पड़ा। इससे यह
प्रश्न स्वाभाविक ही उठता है कि लैपिड किस का लिखा हुआ कागज़़ पढ़ रहे थे? क्योंकि लैपिड द्वारा
कागज़़ को पढ़ देने के तुरंत बाद स्वरा भास्कर से लेकर कांग्रेस व टूट चुकी शिवसेना तुरंत एक बार
फिर फिल्म की निंदा करने लगी और लैपिड की हां में हां मिलाती हुई अपनी मुंडियां हिलाने लगीं।
अब रहा फिल्म के कला सैक्शन के अयोग्य होने और वल्गर होने का प्र्रश्न। लैपिड की दृष्टि में
फिल्म में मर रहा कश्मीरी रोता है, इसलिए वह प्रचार बन गया है। कश्मीरी इतने साल से मर रहा है
और रो रहा है। केवल रो ही नहीं रहा, चीत्कार कर रहा है। उस चीत्कार से कला की पारखियों के
चिंतन में ख़लल पड़ता है। यदि यह कश्मीरी न रोता, न चीत्कार करता, केवल अपने चेहरे पर अंदर
का दर्द दिखा देता तो यक़ीनन यह लैपिड के पैमाने के हिसाब से कला की उत्कृष्ट फिल्म बन जाती।
लेकिन विवेक अग्निहोत्री जानते थे कि यदि अब भी कश्मीरी न रोया तो उसकी नस्लें बिना नोटिस
लिए दबा दी जाएंगी। इसलिए अब चीखऩा जरूरी था। कोई भी कला अपने युग की ही अभिव्यक्ति
को ही समर्पित होती है।
वही कला का उत्कृष्ट रूप होता है। यदि कोई कला अपने युग को उत्तर नहीं देती तो वह कला न रह
कर वल्गर बन जाती है। मुझे नहीं पता लैपिड अपनी फिल्मों में अपने युग को कितनी अभिव्यक्ति
देते हैं लेकिन क्या वे सचमुच मानव को उसके भाव प्रकटीकरण की प्रक्रिया को जानते भी हैं? यह
दोष लैपिड का नहीं है बल्कि आधुनिक कला के नाम पर अभिव्यक्ति को यथार्थ से जितना दूर रखा
जाएगा, वह उतनी ही कलात्मक अभिव्यक्ति मानी जाएगी। लेकिन विवेक अग्निहोत्री यथार्थ से एक
क़दम भी पीछे नहीं हटना चाहते क्योंकि वे जानते हैं कि एक क्षण के लिए भी ओझल होता हूं तो
कला कला के नाम पर कल्पना लोक में चली जाएगी। दि कश्मीर फाइल्स भीतर से निकली हुई
चीत्कार है, वह कला के नाम पर किया गया रुदाली रुदन नहीं है जो लैपिड करते हुए दिखाई दे रहे
हैं। वह दर्शकों के दिल में झंझावत पैदा कर देने वाली कश्मीरियों की दर्दनाक चीख़ है जो हर उस
व्यक्ति को दहला देती है जो लैपिड न हो। दरअसल लैपिड की टिप्पणी इससे अलग हो ही नहीं
सकती थी क्योंकि उसके आचरण से लगता है कि वह पूरे फेस्टीवल में इसी फिल्म की उसी प्रकार
तलाश कर रहा था जिस प्रकार कोई शिकार जंगल में शिकार की तलाश कर रहा होता है। खोजने की
बात केवल इतनी ही है कि लैपिड के हाथ में वह कागज़़ किसने पकड़ाया था। लैपिड ने स्वयं कहा
कि आज तक मैंने कभी भी कागज़़ से पढ़ कर अपना वक्तव्य नहीं दिया था। आज पहली बार लिखा
हुआ पन्ना पढ़ रहा हूं। यह पढऩा लैपिड को किसने सिखाया? जो लोग कश्मीरियों के दर्द को नहीं
जानते वे लोग दयालु नहीं हो सकते।