-योगेंद्र योगी-
दो राज्यों के विधानसभा और दिल्ली नगर निगम के चुनाव परिणामों ने साबित कर दिया कि लोगों
की अपेक्षाएं पूरी नहीं करने की कीमत सत्ता गंवा कर चुकानी पड़ती है। इन चुनाव परिणामों में
सर्वाधिक घाटा भारतीय जनता पार्टी को रहा। भाजपा के हाथों से दिल्ली नगर निगम और हिमाचल
प्रदेश निकल गया। चुनाव से कांग्रेस को हिमाचल में संजीवनी मिल गई। गुजरात में भाजपा अपनी
सत्ता को बचाने में कामयाब रही। इसके बावजूद यह निश्चित है कि भाजपा को लगे झटके से पार्टी
को अपनी रीति-नीतियों पर आत्मनिरीक्षण करना पड़ेगा। सिर्फ पार्टी और किसी व्यक्ति विशेष के
नाम पर वोट की अपील से मतदाताओं को प्रभावित नहीं किया जा सकता। पार्टी की रीति-नीति से
ज्यादा महत्वपूर्ण विकास कार्य हैं। गुजरात में भाजपा विकास के बूते ही लगातार विजय प्राप्त करने
में सफल रही। इसके विपरीत हिमाचल और दिल्ली नगर निगम के चुनावों में शिकस्त का सामना
करना पड़ा। इन तीनों ही चुनावों में असली मुद्दा विकास का ही रहा। भाजपा दिल्ली और हिमाचल
में पिछले पांच सालों में उपलब्धियों को गिनाने के बजाए विपक्षी दलों की कमियां ही गिनाती रही।
भाजपा की यह नकारात्मक शैली मतदाताओं को रास नहीं आई। भाजपा चुनावी प्रचार के दौरान
गुजरात में जहां उपलब्धियों को गिनाती रही, वहीं दिल्ली निगम और हिमाचल में विपक्षी दलों को
कोसती रही। भाजपा यह भूल गई कि दूसरों की आलोचना करने से मतदाताओं की तकलीफों को कम
नहीं किया जा सकता।
हिमाचल, गुजरात और दिल्ली नगर निगम के चुनावों ने यह भी साबित कर दिया है कि अब वो दिन
लद गए जब सिर्फ नारों और पुरातन विचारधारा के दम पर मतदाताओं को बरगलाया जा सकता है।
इसका व्यापक संदेश है कि मतदाताओं की परवाह नहीं करने वाले राजनीतिक दलों की खैर नहीं है।
मतदाताओं को फिजूल के मुद्दों की चर्चा कर गुमराह नहीं किया जा सकता। महंगाई और बेरोजगारी
जैसी राष्ट्रीय समस्याओं को छोड़ दें, तो स्थानीय स्तर पर हर रोज होने वाली समस्याओं के समाधान
का ठोस आश्वसान और कार्रवाई के बगैर किसी भी राजनीतिक दल का चुनावी मैदान में टिकना
आसान नहीं है। इतना ही नहीं मतदाताओं और आम नागरिकों को सुविधाओं के साथ गुणवत्ता की भी
दरकार है।
सिर्फ बुनियादी सुविधाएं मुहैया करा कर ही लोगों का भरोसा नहीं जीता जा सकता है, बल्कि
सुविधाओं के साथ गुणवत्ता भी होना जरूरी है। इन चुनावों से यह भी साफ हो गया कि भ्रष्टाचार
मतदाताओं के लिए तभी बड़ा मुद्दा बन सकता है, जब बुनियादी सुविधाओं के विस्तार का अभाव
हो। दिल्ली में नगर निगम में भाजपा का बोर्ड होने के बावजूद भाजपा बोर्ड के कामकाज को उपलब्धि
के तौर पर भुनाने में नाकामयाब रही। भाजपा इसके लिए केजरीवाल सरकार को ही कोसती रही।
इसके विपरीत मुख्यमंत्री केजरीवाल के पुराने कामकाज के मद्देनजर मतदाताओं ने उनके वादों पर
भरोसा जताया। भाजपा ने दिल्ली बोर्ड पर लगातार 15 साल तक राज किया। इसके बावजूद दिल्ली
में भारी प्रदूषण, यमुना नदी का प्रदूषण, यातायात की सुगम व्यवस्था जैसी समस्याओं का ठोस
निराकरण नहीं कर सकी। जबकि केजरीवाल ने लगभग सभी जनसभाओं में दिल्ली को कचरे से मुक्त
कराने की बात कही। केंद्र में और दिल्ली नगर निगम में भाजपा का बोर्ड प्रदूषण की समस्या से
निपटने में विफल रहा। हालांकि भाजपा ने इसका ठीकरा आप पर फोडऩे की कोशिश की, किंतु
मतदाताओं ने इसे नकार दिया। दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस जैसी दिग्गज
पार्टियों को हरा कर आप ने साबित कर दिया कि देश की राजधानी में उसे हराना आसान नहीं है।
आप ने भाजपा के 15 वर्षों से निरंतर चली आ रही जीत का सिलसिला तोड़ दिया। आप ने भाजपा
को बाहर कर न सिर्फ बोर्ड में अपना स्थान बनाया, बल्कि इससे पहले विधानसभा चुनाव में भी जीत
दर्ज कराकर कांग्रेस का मजबूत विकल्प पेश किया। कांग्रेस के लिए फिर से पुराने राजनीतिक सुनहरे
मुकाम को हासिल करना लोहे के चने चबाने से कम नहीं है। ऐसा नहीं है कि बोर्ड में जीत दर्ज करा
कर आप के लिए आगे का सफर आसान है।
चुनाव जीत कर कार्पोरेशन पर काबिज होने के बाद आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली में प्रदूषण और
कचरे की समस्या से निपटना आसान नहीं है। दिल्ली गैस चैम्बर में तब्दील हो चुकी है। गाजीपुर
लैंडफिल स्टेशन पर कचरे के पहाड़ की ऊंचाई कुतुब मीनार से ऊंची हो चुकी है। दिल्ली वायु प्रदूषण
के साथ स्थायी कचरे की दोहरी समस्या से जूझ रही है। देश की राजधानी विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित
शहरों में शुमार है। इस समस्या के ठोस और स्थायी दीर्घकालीन समाधान की जरूरत है। दिल्ली का
वायुमंडल विषैला हो चुका है। श्वास संबंधी और प्रदूषण से होने वाली दूसरी बीमारियों से दिल्लीवासी
त्रस्त हैं। दिल्ली से बहने वाली यमुना नदी भी विश्व की चुनिंदा प्रदूषित नदियों की सूची में मौजूद
है। इसके भी स्थायी हल की जरूरत है। प्रदूषण हो या दूसरी समस्याएं, इसके लिए वित्तीय जरूरतों
को पूरा करना आम आदमी पार्टी के दिल्ली कार्पोरेशन के लिए अग्नि परीक्षा से कम नहीं है।
राजधानी के तीनों नगर निगम (उत्तरी, पूर्वी और दक्षिणी) का विलय होने के बाद सबसे बड़ी चुनौती
खराब आर्थिक स्थिति से उबारना है। तीनों निगमों में राजस्व के मुकाबले खर्च अधिक हैं। सालाना नौ
हजार करोड़ रुपए तो निगम कर्मियों के वेतन पर ही खर्च हो जाते हैं, जबकि निगम का पूरा राजस्व
महज नौ हजार करोड़ है। इतना ही नहीं, ठेकेदारों की भी 1600 करोड़ की देनदारी है। डेढ़ लाख
कर्मचारियों को समय पर वेतन देना और विकास कार्यो को फिर से शुरू करना अपने आप में बहुत
बड़ी चुनौती होगी। यह भी निश्चित है कि केंद्र में भाजपा की सरकार से मुख्यमंत्री केजरीवाल का
पहले से ही छत्तीस का आंकड़ा है। ऐसे में आप के दिल्ली कार्पोरेशन बोर्ड को अपने बूते ही वित्तीय
मुश्किलों का हल ढूंढना होगा। उधर कांग्रेस के समक्ष हिमाचल में चुनौतियों का दौर शुरू हो चुका है।
ओल्ड पेंशन स्कीम, मुफ्त बिजली, महिलाओं को हर माह 1500 रुपए तथा रोजगार सृजन जैसे वादे
उसे पूरे करने होंगे।