चुनाव आयोग ने तय कर दिया कि ‘असली शिवसेना’ किसकी है। पार्टी का नाम, चुनाव चिह्न और
आलाकमानी अधिकार किसका होगा, तो शिवसेना के विरासती अध्यक्ष रहे उद्धव ठाकरे एकदम
बिफर उठे। केंद्र की मोदी सरकार पर ‘तानाशाही’ के आरोप मढ़ दिए। यहां तक कह दिया कि शिव
का ‘धनुष-बाण’ कोई रावण धारण नहीं कर सकता। कोई चोर नहीं चुरा सकता। सुपारी देकर शिवसेना
छीनने की कोशिश की गई है। 50-50 करोड़ रुपए में विधायक और सांसद खरीदे गए हैं। यह पूरा
खेल 2000 करोड़ रुपए का है। शिवसेना भाजपा के तलवे चाटने को तैयार नहीं है। केंद्र सरकार के
दबाव में चुनाव आयोग ने ऐसा अन्यायपूर्ण फैसला दिया है। लोकतंत्र की हत्या की गई है। अब चुनाव
आयोग को ही भंग कर देना चाहिए।’’ इस बौखलाहट के साथ उद्धव ठाकरे ने सर्वोच्च अदालत में
चुनाव आयोग के फैसले को चुनौती दी है। बहरहाल यह उनका संवैधानिक अधिकार है।
अब शीर्ष अदालत जो निर्णय सुनाएगी, वह अंतिम और सर्वमान्य होगा, लेकिन उद्धव ठाकरे का यूं
बिफरना लोकतांत्रिक नहीं है। उन्होंने और उनके गुट के प्रवक्ताओं, नेताओं ने जो आरोप चस्पा किए
हैं, वे आपराधिक मानहानि किस्म के हैं। यदि अदालत में मानहानि का केस दायर किया जाए, तो
उद्धव गुट निरुत्तर होकर बगलें झांकता रह सकता है। 2000 करोड़ रुपए की ‘घूस’ देने का आरोप
बेहद गंभीर है और यह राशि भी बहुत मोटी है। इस अनर्गल अलाप का जवाब उद्धव गुट कैसे देगा?
उन्हें देश के संवैधानिक मूल्यों और निकायों की स्वायत्तता और न्यायिकता का सम्मान करना चाहिए।
बहरहाल शिवसेना का गठन 1966 में उद्धव के पिता बाल ठाकरे ने जरूर किया था, लेकिन पार्टी
किसी की बपौती नहीं है। बाल ठाकरे ने अपने आह्वानों और नीतियों के बल पर महाराष्ट्र में एक
राजनीतिक जमात स्थापित की, जिसे ‘शिवसैनिक’ कहते हैं।
उसमें एकनाथ शिंदे भी शामिल हैं, जो आज राज्य के मुख्यमंत्री हैं। पिता की विरासत मकान-दुकान
जैसी संपत्ति और धन तक ही सीमित होती है। यकीनन संतानें ही पिता की विरासत की अधिकारी
होती हैं, लेकिन राजनीतिक पार्टी के वारिस असंख्य होते हैं। उसमें लोकतंत्र काम करता है, समयबद्ध
चुनाव कराने अनिवार्य हैं, लिहाजा पार्टी संगठन और चुने हुए प्रतिनिधियों का बहुमत जिसके पक्ष में
होगा, वही पार्टी का आलाकमान और अध्यक्ष होगा। पार्टी के संचालन का दायित्व भी उसी का होगा।
बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत जितनी उद्धव की है, उतनी ही मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की है।
पार्टियों में ऐसे विभाजन होते रहे हैं। 1969 के दौर की कांग्रेस इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। कुछ
साल पहले समाजवादी पार्टी के भीतर संस्थापक अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को पदमुक्त कर, उनके
ही बेटे अखिलेश ने, पार्टी पर अपना वर्चस्व और बहुमत साबित किया था। चुनाव आयोग ने सपा
और चुनाव चिह्न ‘साईकिल’ अखिलेश यादव को आवंटित कर दिए और उन्हें ‘अध्यक्ष’ मान लिया
गया। मुलायम सिंह उसके कई सालों बाद तक जीवित रहे। अंतत: उन्हें भी नया नेतृत्व स्वीकार
करना पड़ा। बहरहाल ऐसी राजनीतिक लड़ाइयां होती रहती हैं, लेकिन संवैधानिक संस्थानों पर फिजूल
सवाल उठाते हुए कालिख नहीं पोती जाती। अब उद्धव गुट भी अदालत में है, देखें क्या फैसला आता
है?