-योगेंद्र योगी-
भारतीय जनता पार्टी भ्रष्टाचार और परिवारवाद के मुद्दे पर कांग्रेस और अन्य दलों की तीखी
आलोचना करती आई है। इस आलोचना का तात्पर्य यह नहीं है कि भाजपा भी इन्हीं दलों की तरह
आचरण करने लगे और दलील यह दे कि ऐसा तो उनके शासन में भी होता रहा है, इसलिए इसमें
गलत क्या है। भाजपा की केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश अब्दुल नजीर को
आंध्रप्रदेश का राज्यपाल नियुक्त करने के मामले में ऐसी ही दलील दे रही है। भाजपा यह कहते हुए
नजीर की नियुक्ति को जायज ठहरा रही है कि ऐसा तो कांग्रेस के शासन में भी होता रहा है। भाजपा
यह भूल गई कि कांग्रेस ऐसे कारनामों के कारण सत्ता से बाहर है। भाजपा अपनी सुविधा से यह नहीं
कर सकती कि जिसमें उसे नुकसान नजर आए उसमें काग्रेस को कोसे और जहां छिपा हुआ एजेंडा
लागू करना हो, वहां कांग्रेस का उदाहरण पेश कर दे। इस नकारात्मक उदाहरण से निश्चित तौर पर
भाजपा और न्यायाधीशों की छवि पर उंगलियां उठेंगी। न्यायाधीश नजीर का गलत उदाहरण पेश
करके भाजपा अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकती। सवाल यह नहीं है कि नजीर ने सुप्रीम कोर्ट
में जज रहते हुए अयोध्या और तीन तलाक के मुद्दे पर केंद्र सरकार के पक्ष में फैसला सुनाया था।
बड़ा सवाल न्यायपालिका की नैतिकता और शुचिता का है जिसे बनाए रखने की मौजूदा दौर में कम
से कम किसी राजनीतिक दल से तो अपेक्षा नहीं की जा सकती। नजीर को राज्यपाल बनाए जाना
एक तरह से सेवानिवृत्त होने के बाद न्यायाधीशों के पुनर्वास का रास्ता देना है। अर्थात सुप्रीम कोर्ट
और हाईकोट्र्स के ऐसे जज जिन्होंने सरकारों के पक्ष में फैसला दिया होगा, वे सत्ताधारी दलों के
कृपापात्र होंगे। जब भी सही मौका मिलेगा सरकार उनका पुनर्वास करके उन्हें अनुग्रहित कर देगी। यह
परिपाटी न सिर्फ न्यायपालिका बल्कि देश की न्याय व्यवस्था के भी अनुकूल नहीं है। किसी लालच
या आकर्षण के बूते दिए गए फैसलों में यह पता लगाना आसान नहीं होगा कि इसमें सच्चाई कितनी
है। यही माना जाएगा कि सरकार का साथ देने के फैसलों के एवज में किसी प्रशासनिक या
संवैधानिक पद पर नियुक्त करके न्यायाधीश को उपकृत किया गया है। राजनीतिक दलों के नेताओं
के दामन तो दागदार होते रहे हैं, किन्तु यह बुराई यदि न्यायपालिका तक पहुंच गई तो न्याय पर
आम लोगों का विश्वास कायम रखना मुश्किल हो जाएगा। सेवानिवृत्त होकर किसी पद को लेने पर
न्यायाधीश के कार्यकाल के दौरान दिए गए फैसलों पर सवाल उठेंगे, जैसे कि जज नजीर की नियुक्ति
को लेकर उठ रहे हैं। देश में पहले ही न्याय पाने वालों की लंबी कतार लगी हुई है। न्याय पाने के
लिए होने वाला खर्च लगातार बढ़ता जा रहा है। न्यायपालिका जजों की कमी से जूझ रही है। जटिल
न्यायिक प्रक्रिया से लोगों की हताशा बढ़ रही है। ऊपर से यदि यह प्रवृत्ति न्यायाधीशों की घर कर गई
कि सेवानिवृत्ति के बाद सरकार उनका भला कर देगी, तो न्यायिक फैसलों से आम लोगों का
न्यायपालिका पर बचा हुआ विश्वास भी दरकने लगेगा।
सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की ताजपोशी से इस बात को बल मिलता है कि केंद्र सरकार किसी न किसी
रूप में न्यायपालिका को प्रभावित करने की कोशिश कर रही है। ऐसा नहीं है कि सरकार के राज्यपाल
के पद को भरने के लिए उपयुक्त पात्र नहीं हो, किन्तु न्यायाधीशों को इसमें शामिल करने से
न्यायपालिका और सरकार की साख पर सवाल उठना लाजिमी है। केंद्र सरकार वैसे ही जजों की
नियुक्ति के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से टकराव के मुहाने पर खड़ी है। सरकार ने कॉलेजियम के जरिए
होने वाली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति से इंकार कर दिया है। उधर सुप्रीम कोर्ट
नियुक्ति के मसले पर सरकार द्वारा बनाए गए कानून को अमान्य घोषित कर चुकी है। सुप्रीम कोर्ट
का साफ कहना है कि ऐसा करके सरकार न्यायपालिका में दखलअंदाजी करने का प्रयास कर रही है।
भाजपा की दलील है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में न्यायाधीशों के चहेतों की नियुक्ति की जाती है,
वहीं न्यायविदों का कहना है कि सरकार अपने कृपापात्रों को नियुक्त कराने के लिए कॉलेजियम
व्यवस्था को मानने से इंकार कर रही है।
एक तरफ केंद्र सरकार अपनी पसंद के जजों की नियुक्ति कराने पर आमदा है, वहीं दूसरी तरफ
सेवानिवृत्त जजों को मलाईदार पोस्ट देकर न्यायाधीशों को प्रभावित करने का प्रयास कर रही है।
राज्यपाल पद कहने को संवैधानिक होता है, किन्तु यथार्थ में राज्यपाल के राजनीतिक विवादों में घिरे
रहने के कई उदाहरण मौजूद हैं। गैर-भाजपा शासित राज्यों में राज्यपाल और राज्य सरकार में टकराव
की घटनाएं होती रहती हैं। उपराष्ट्रपति बने जगदीप धनखड़ इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। धनखड़
जब तक पश्चिमी बंगाल के राज्यपाल रहे, तब तक मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से उनका टकराव बना
रहा। तमिलनाडु सहित कई राज्यों में राज्यपालों के खिलाफ राजनीतिक धरना-प्रदर्शन तक हुए हैं।
राज्यपालों पर भ्रष्टाचार सहित मनमानी करने के कई तरह के आरोप लगते रहे हैं। ऐसे में इस बात
से इंकार नहीं किया जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट के जज रहे नजीर के आंध्रप्रदेश का राज्यपाल बनने
पर ऐसी नौबत नहीं आएगी। वैसे भी आंध्रप्रदेश में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है।
भाजपा और आंध्र सरकार के बीच कई बार टकराहट हो चुकी है। यदि राजनीतिक धरना-प्रदर्शन के
हालात बनते हैं तो वह सिर्फ राज्यपाल के खिलाफ ही नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज के
खिलाफ भी होंगे। सुप्रीम कोर्ट में जज रहने के कारण राज्यपाल को विवादों में घसीटा जाएगा।
राजनीति में चंूकि आरोप-प्रत्यारोपों की कोई सीमा नहीं है, इसलिए विवाद किसी भी हद तक जाने
पर इसकी चपेट में सेवानिवृत्ति के बाद राज्यपाल बने जज भी आएंगे। राज्यपाल से सरकार और
विधानसभा से होने वाली टकराहट के कई मामले हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे हैं। जज के
राज्यपाल बनने पर यदि ऐसी नौबत आती है, तो अदालतों को अजीबोगरीब हालात का सामना करना
पड़ेगा। अदालतों को ऐसे मामलों की सुनवाई करनी पड़ेगी जिसमें सुप्रीम कोर्ट का जज शामिल रहा
हो। यदि अदालत ने राज्यपाल के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणी कर दी तो परोक्ष तौर पर न्यायपालिका
पर भी होगी, क्योंकि राज्यपाल पूर्व में जज रह चुके हैं। विवाद की ऐसी स्थितियों से बेशक
राजनीतिक दलों के स्वार्थ सधते हों, किन्तु इससे न्यायपालिका के प्रति जनभावना में बनी आस्था
खंडित हुए बगैर नहीं रहेगी। सरकारों की स्वार्थसिद्धी की इस तरह की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने का
एकमात्र तरीका यही है कि सुप्रीम कोर्ट पहल करते हुए लक्ष्मण रेखा तय कर दे, अन्यथा इस गिरावट
के छींटे अदालतों पर पड़े बगैर नहीं रहेंगे।