कांग्रेस के भीतर का सत्ता-संघर्ष फिलहाल थमा नहीं है। राजस्थान में अब भी अलग-अलग पाले हैं।
कुछ और राज्यों में भी रस्साकशी सतह पर आएगी। कांग्रेस का एकजुटता में न तो भरोसा रहा है
और न अब यह किसी भी स्तर पर जोड़ सकती है। सिर्फ मुग़ालते हैं। 2023 में स्पष्ट हो जाएगा कि
कितने राज्यों में सरकार शेष रह पाती है। 2024 में तो लोकसभा चुनाव होने ही हैं। बहरहाल
आलाकमान के मायने ‘तानाशाही’ नहीं होते। कांग्रेस को बोलना ही नहीं, हर स्तर पर लोकतंत्र को
जीना भी पड़ेगा, लेकिन कांग्रेस में सब कुछ अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के हवाले छोड़ा जा रहा
है। वह ही केंद्र-बिंदु बनी हैं और कांग्रेस नेता उसके इर्द-गिर्द नाच रहे हैं। मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री
दिग्विजय सिंह ने तो सार्वजनिक रूप से कहा है कि कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार के बिना ‘शून्य’ है।
क्या इसे ही ‘आंतरिक लोकतंत्र’ माना जाता रहा है? बहरहाल राजस्थान नौटंकी के लिए मुख्यमंत्री
अशोक गहलोत ने कांग्रेस अध्यक्ष से माफी तक मांग ली है। वह शर्मिन्दा भी हुए हैं, क्योंकि परंपरा
तोड़ दी गई। परंपरा एक पंक्ति के प्रस्ताव की रही है, जिसमें तमाम फैसलों के लिए पार्टी अध्यक्ष को
अधिकृत किया जाता है।
कांग्रेस अध्यक्ष का कथित विवेक ही सर्वोपरि है। क्या इस परंपरा में लोकतंत्र निहित है? अब भी
सोनिया गांधी फैसला करेंगी कि राजस्थान में गहलोत ही मुख्यमंत्री बने रहेंगे अथवा सचिन पायलट
पर विश्वास किया जाएगा? सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद गहलोत इतना विनम्र हो गए कि
अपनी ‘वफादारी’ का इतिहास ही पत्रकारों को सुना दिया। माफी और शर्मिन्दगी वाली बात भी उन्होंने
खुद ही कही। गहलोत ने निष्कर्ष के तौर पर साफ किया कि इस माहौल में वह कांग्रेस अध्यक्ष का
चुनाव नहीं लड़ेंगे। संभव है कि अंदर सोनिया गांधी ने उन्हें यह सब कहने को बाध्य किया हो!
राजस्थान में कहावत है कि मु_ी भर बाजरे के लिए दिल्ली की बादशाहत गंवा दी। गहलोत के साथ
दो दिन में ही नियति इस कदर बदल गई कि वह कांग्रेस अध्यक्ष की रेस से बाहर कर दिए गए।
मुख्यमंत्री की गद्दी भी बरकरार रहेगी, यह कई तरह से सवालिया है। कांग्रेस के अपने विधायकों ने
आलाकमान को आंखें क्या तरेंरी और केंद्रीय पर्यवेक्षक अजय माकन को भी ‘संदिग्ध’ करार दे दिया,
तो पार्टी आलाकमान भी अंदर तक हिल गया। सोनिया गांधी ने आधी रात तक विभिन्न नेताओं से
मुलाकातें कीं, तो असंतुष्ट जी-23 के नेताओं में आनंद शर्मा, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, मनीष तिवारी,
पृथ्वीराज चव्हाण आदि ने बैठक की।
आनंद ने ‘जोधपुर हाउस’ में गहलोत से भी मुलाकात की। नए कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर दो नाम
लगभग तय माने जा रहे हैं-दिग्विजय सिंह और शशि थरूर। दोनों ही नेता कांग्रेस अध्यक्ष के तौर
पर, कांग्रेस का कितना कायापलट कर सकेंगे, यह भी सवालिया है। हम तो पुनरोत्थान की प्रक्रिया में
दोनों नेताओं के नेतृत्व को खारिज करते हैं। कांग्रेस के सबसे वरिष्ठ नेताओं में मल्लिकार्जुन खडग़े
का भी नाम सामने आया है। दिग्विजय सिंह उनके प्रस्तावक भी बन सकते हैं। खडग़े आलाकमान के
उम्मीदवार माने जा रहे हैं। सवाल पार्टी के दिन बहुरने का है। दरअसल कांग्रेस के अच्छे दिन उत्तरी
भारत की हिंदी पट्टी से ही आ सकते हैं और इस भूखंड में कांग्रेस का एक भी कद्दावर नेता नहीं है।
गहलोत का चेहरा कुछ ऐसा है और वह अनुभवी, मंजे हुए नेता हैं, लेकिन उनकी ताकत राजस्थान
तक ही परखी गई है। यह दायित्व राहुल गांधी क्यों नहीं लेते, आज तक उन्होंने स्पष्ट नहीं किया
और न ही हमें समझ आया है। बहरहाल राजस्थान का मामला सामने है कि विधायकों ने समानांतर
बैठक क्यों बुलाई? क्या मुख्यमंत्री गहलोत उसे रद्द करते हुए नेतृत्व के निर्देशों का पालन करने को
नहीं कह सकते थे? क्या विधायकों की अवज्ञा गहलोत की मिलीभगत के बिना संभव थी? गहलोत
बगावती मंत्रियों को कैबिनेट से बर्खास्त कर सकते थे। गहलोत के सामने कई सवाल और संदेह हैं।
हमारा मानना है कि अब गहलोत को भी मुख्यमंत्री पद पर नहीं रखना चाहिए। कांग्रेस के सामने
सबसे गंभीर संकट बिखराव और गुटबाजी का है। पार्टी सत्ता में होती है, तो सब कुछ दबा रहता है,
लेकिन विपक्ष में मतभेद और सत्ता-संघर्ष सतह पर आने लगते हैं। देश तो जुड़ा हुआ है, विविधताओं
के बावजूद अखंड है, उसकी चिंता छोड़ते हुए कांग्रेस को अपना घर जोड़ कर रखने की जरूरत है।
आगामी लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस को सशक्त होकर उभरना है, तो उसे अपने सभी सांगठनिक
मामले समय पर निपटा लेने चाहिए। उसे एक ऐसा अध्यक्ष चुनना है जो कांग्रेस के सभी वर्गों को
साथ लेकर चलने में सक्षम हो।