गांधी परिवार की अनुपस्थिति में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक करनी पड़ी। हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष
सोनिया गांधी विदेश से ही ऑनलाइन जुड़ी हुई थीं। वह अस्वस्थ हैं और जांच के लिए विदेश में हैं।
राहुल और प्रियंका भी विदेश में हैं, लिहाजा ऑनलाइन जुडऩे की औपचारिकता निभाई गई। कमोबेश
गुलाम नबी आज़ाद के इस्तीफे ने कांग्रेस को बाध्य कर दिया कि पार्टी अध्यक्ष के चुनाव का रोडमैप
घोषित करना पड़ा। कांग्रेस अध्यक्ष कौन होगा या किसे उम्मीदवार तय किया जाएगा अथवा कोई
‘बलि का बकरा’ चुन लिया जाएगा, कांग्रेस की सर्वोच्च निर्णायक संस्था अभी फैसला नहीं कर पाई
है। फिलहाल विकल्पों पर ही माथापच्ची की जा रही है।
पार्टी के बड़े नेता सार्वजनिक रूप से आग्रह कर रहे हैं कि राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष का दायित्व
संभाल लें। दरअसल राहुल आज भी आलाकमान हैं। सभी अहम फैसले, परदे के पीछे, राहुल और
कभी-कभार प्रियंका गांधी भी ले रहे हैं। उन पर सोनिया गांधी की मुहर छाप दी जाती है। यदि राहुल
गांधी राज्यसभा सदस्यों तक का भी चयन कर रहे हैं, पंजाब का मुख्यमंत्री भी उन्होंने ही तय किया
था, पार्टी संगठन में बदलाव उन्हीं के मुताबिक किए जाते रहे हैं, तो उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनने में
दिक्कत क्या है? 7 सितंबर से कांग्रेस ‘भारत जोड़ो’ का अभियान भी राहुल के नेतृत्व में ही शुरू
करने जा रही है। संसद से जुड़े विरोध-प्रदर्शनों के नेता भी राहुल ही होते हैं।
वह कांग्रेस अध्यक्ष का दायित्व संभालने से हिचक रहे हैं, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी की तुलना में
उनका राजनीतिक कद बहुत छोटा है। देश भर में उनकी स्वीकार्यता बहुत क्षीण है। यह विभिन्न
सर्वेक्षणों से भी स्पष्ट है। कांग्रेस बेहद गंभीर संकट के दौर में है। बड़े नेता उसे छोड़ कर लगातार जा
रहे हैं। अधिकतर भाजपा में शामिल हुए हैं। देश की आज़ादी के बाद डॉ. राममनोहर लोहिया, आचार्य
नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण आदि समाजवादी नेताओं के अलग होने से जो सिलसिला शुरू हुआ
था, वह इंदिरा गांधी के दौर में व्यापक हुआ और कामराज, निजलिंगप्पा, मोरारजी देसाई सरीखे
ताकतवर नेता पार्टी छोड़ गए। कांग्रेस का लगभग दोफाड़ हो गया था। वहां से ममता बनर्जी, शरद
पवार, कैप्टन अमरिन्दर सिंह, जगनमोहन रेड्डी, नारायण राणे, हिमंत बिस्व सरमा, ज्योतिरादित्य
सिंधिया और गुलाम नबी आज़ाद तक कांग्रेस को अलविदा कहने वालों की सूची लंबी है। फिर भी
कांग्रेस का अस्तित्व कायम है, लेकिन पार्टी अध्यक्ष को लेकर आज भी असमंजस और आग्रह
बरकरार हैं। कांग्रेस में एक तबका आज भी ऐसा है, जो राहुल गांधी को बचकाना और अपरिपक्व
नेता मानते हैं। उनके आकलन हैं कि यदि राहुल ही कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए, तो पार्टी का रसातल
में जाना तय है, लिहाजा कार्यसमिति की बैठक में इस बिंदु पर भी विमर्श किया गया कि सोनिया
गांधी को ही पांच सालों के लिए अध्यक्ष चुन लिया जाए।
उनके साथ दो कार्यकारी अध्यक्ष अथवा उपाध्यक्ष भी चुने जाएं। एक उत्तर की हिंदी पट्टी से हो और
दूसरा नेता दक्षिण भारत से लिया जाए। सवाल ये भी हैं कि जो 9000 के करीब मतदाता कांग्रेस
अध्यक्ष को चुनने के लिए वोट देंगे, उनकी मतदाता-सूची कहां है? वे कौन नेता हैं? इन सवालों का
कोई ठोस जवाब नहीं दिया गया है। कांग्रेस छोडऩे वालों का सिलसिला अभी थमा नहीं है। हरियाणा
में भूपेंद्र सिंह हुड्डा जनाधार वाले नेता हैं। यदि राज्य में चुनाव से ऐन पहले उनके नेताओं को टिकट
नहीं दिए गए अथवा राजनीति उनके मुताबिक नहीं चली, तो वह भी अलग हो सकते हैं। वह लगातार
इस पहलू पर मंथन कर रहे हैं। राजस्थान में सचिन पायलट गुट का असंतोष समाप्त नहीं हुआ है।
2023 में वहां भी चुनाव हैं। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का गुट भी खुश नहीं है। वहां भी
2023 में चुनाव हैं। ये ऐसे नेता हैं, जो कांग्रेस की बिसात पलट सकते हैं।
पार्टी में चिंता और सरोकार के ये भी मुद्दे होने चाहिए, क्योंकि कांग्रेस में अब जितने भी अलगाव
होंगे, भाजपा उन नेताओं को लपकने को तैयार बैठी है, क्योंकि उसका लक्ष्य कांग्रेस-मुक्त भारत का
है। यह विडंबना है कि बीते तीन साल से ज्यादा समय से कांग्रेस का अध्यक्ष ‘अंतरिम’ है और
मुकाबले पर प्रधानमंत्री मोदी जैसा राष्ट्रीय नेता है और भाजपा जैसी सबसे बड़े काडर वाली पार्टी है।
कांग्रेस अपना अस्तित्व कैसे बचाए रख सकती है? बहरहाल कांग्रेस को ही सोचना है और उसे ही
रणनीति तैयार करनी है। कांग्रेस को अब अंतरिम अध्यक्ष के बजाय स्थायी अध्यक्ष चुन लेना चाहिए।
जनता में अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए उसे यह साबित करना है कि उसके पास
प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है। इसके अलावा जो नेता कांग्रेस से दूर हो रहे हैं, इस प्रक्रिया को
रोकना होगा। पार्टी में वरिष्ठ नेताओं की कद्र भी होनी चाहिए। कांग्रेस को ऐसा अध्यक्ष चुनना है, जो
सभी वर्गों को एक साथ लेकर चलने में सक्षम हो।