जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के लिए फिर से खौफ़नाक दिनों की शुरुआत हो गई है। कश्मीरी
पंडितों को फिर से आतंकवादी अपना निशाना बना रहे हैं। उन्हें धमकाया जा रहा है कि वे फिर से
अपनी जड़ों से अलग हो जाएं। 90 के दशक की भयावह यादें अब भी लाखों कश्मीरी पंडितों के दिलों
में ताजा हैं। उन्हें उम्मीद थी कभी उनकी सुध भी ली जाएगी, लेकिन राजनैतिक हितों के आगे बार-
बार उनके हितों को हाशिए पर डाला गया है। तीन दिन पहले दक्षिण कश्मीर के शोपियां ज़िले में
कश्मीरी पंडित पूरण कृष्ण भट्ट की उनके घर के बाहर आतंकवादियों ने गोली मारकर हत्या कर दी।
पूरण कृष्ण भट्ट के दो बच्चे हैं। वे उन कुछ कश्मीरी पंडितों में से थे, जो चरम उग्रवाद की अवधि
के दौरान भी घाटी में रहे।
शोपियां में उनका सेब का बाग है, जो उनके परिवार की आजीविका का एकमात्र स्रोत है। बताया जा
रहा है कि भट्ट 15-20 दिन पहले ही जम्मू में अपने परिवार के साथ करीब एक महीना बिताने के
बाद लौटे थे। उनकी मौत से उनका परिवार गहरे सदमे में है। मार्च से लेकर अब तक कई लोगों को
आतंकवादियों ने इसी तरह अपना निशाना बनाया। लगातार हो रही इन घटनाओं से अब कश्मीरी
पंडितों का भाजपा सरकार के लिए गुस्सा फूट पड़ा है।
रविवार को हजारों लोग उनकी अंत्येष्टि में शामिल हुए। उनके एक रिश्तेदार ने कहा कि यह बहुत
दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक और कश्मीरी पंडित आतंकवादियों की गोलियों का निशाना बन गया, जिससे
सुरक्षा स्थिति में सुधार होने के सरकार के झूठे दावों की पोल खुल गई है। वह पिछले दो साल में
मारे गए अल्पसंख्यक समुदाय के 18वें व्यक्ति हैं। रविवार को उत्तर, दक्षिण और मध्य कश्मीर में
लोगों ने इस हत्या के विरोध में मोमबत्तियां लेकर विरोध मार्च निकाला। जम्मू में भी ऐसे ही विरोध
प्रदर्शन देखने को मिले। बहुत से सरकारी कर्मचारी कश्मीरी पंडितों की हत्या का विरोध करने सामने
आए। हाथों में तख्तियां लिए प्रदर्शनकारियों ने लाउडस्पीकरों पर ‘मासूमों का कत्ल-ए-आम बंद करो
और पूरन कृष्ण अमर रहे’ के नारे लगाए। कई छात्र संगठनों, व्यापारी संगठनों और समाजसेवियों ने
इसी तरह का विरोध किया। प्रदर्शनकारी मृतक के परिवार को उचित मुआवजा देने की मांग कर रहे
हैं। इस मामले ने राजनैतिक रंग भी ले लिया है।
गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भाजपा को सत्ता से हटाने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी ने
अब जम्मू-कश्मीर में भी उसे निशाने पर लेना शुरु कर दिया है। आप के कई नेताओं पर लाठीचार्ज
हुआ और उन्हें हिरासत में भी लिया गया। कांग्रेस, पीडीपी, एनसी आदि दलों ने भी कश्मीरी पंडितों
की हत्या पर गहरी चिंता जतलाई है। लेकिन जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म कर विशेषाधिकार
वापस लेने और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बदलने का बड़ा फैसला लेने वाली भाजपा इस बारे
में क्या सोच रही है, यह जानने में जनता की दिलचस्पी है।
5 अगस्त 2019 को जब गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में अचानक जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370
हटाने का फैसला देश को सुनाया था, तो सभी लोग हैरान रह गए थे। क्योंकि इस फैसले से इतिहास
में दिए गए कई वचनों को तोड़ा गया था। मगर सरकार ने राष्ट्र के हित, जम्मू-कश्मीर के विकास
और आतंकवाद के खात्मे का हवाला देते हुए अपने फैसले को सही ठहराया था। इस फैसले का सड़कों
पर विरोध न हो, इसके लिए तमाम बड़े नेताओं को नजरबंद रखा गया, विपक्ष के नेताओं को कश्मीर
जाने से रोका गया, यहां के अखबारों पर अघोषित सेंसरशिप रही, लोगों को लंबे वक्त कर्फ्यू और
बिना इंटरनेट के रहना पड़ा। सरकारी मशीनरी के भरोसे यह सख्ती तो दिखला दी गई और कोई बड़ा
प्रदर्शन इस फैसले के विरोध में नहीं हो सका। लेकिन इससे हालात नहीं सुधरे। इसलिए जम्मू-कश्मीर
में सैन्य निगरानी बनी हुई है। फिर भी आतंकी हमलों या घुसपैठ में कोई कमी नहीं आ रही।
कश्मीर के मसले के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराया जाए, इसकी कोशिशें भी भरपूर हुईं। कुछ वक्त
पहले कश्मीर फाइल्स फिल्म बनाई गई, जिसमें कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार के एक ही पहलू
को प्रमुखता से दिखा कर धर्मांधता और कट्टरता का माहौल बनाया गया। इस फिल्म को देखकर
भावुक जनता की भावनाओं का भरपूर दोहन किया गया। सरकार ने फिल्म का प्रचार किया और इसे
कई राज्यों में कर मुक्तरखा गया। फिल्म के जरिए एक गंभीर समस्या हल हो जाएगी, ऐसा
अतिसरलीकरण कितना घातक साबित हो सकता है, ये अब समझ आ जाना चाहिए। लेकिन
राजनैतिक कारणों से अब भी सच्चाई को नजरंदाज किया जा रहा है।
जम्मू-कश्मीर से आतंकवाद तब तक खत्म नहीं होगा, जब तक वहां के लोगों का भरोसा हासिल नहीं
होगा। सरकारी दावों के विपरीत वहां अब भी शिक्षा, व्यापार, उद्योगों के लिए कई किस्म की अड़चनें
हैं। लोगों को एक अरसे से सामान्य माहौल में रहने का मौका नहीं मिला। और ऐसे में आतंकवाद का
प्रसार आसान होता है। यहां हिंदू-मुसलमान पहले से साथ-साथ रहते आए थे, लेकिन धर्म की
राजनीति ने उनके बीच भी संदेह की खाई बना दी है। यह खाई निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव के जरिए
चुनकर आए जनप्रतिनिधियों की मेहनत से भर सकती है। लेकिन यह कब और कैसे होगा, यह कहना
कठिन है। इस राज्य में चुनावों की घोषणा तो अभी नहीं हुई है, लेकिन नई मतदाता सूची में एक
साल से जम्मू में रह रहे लोगों को भी मताधिकार का फैसला किया गया है। जिसका अधिकतर दलों
ने विरोध किया है और कहा है कि इस फैसले का मकसद भाजपा को फायदा पहुंचाना है। जब चुनाव
के पहले ही संदेह का ऐसा माहौल बना है, तो चुनाव कितने निष्पक्ष होंगे, यह कहना कठिन है।
फिलहाल गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनाव की तैयारियों में लगे भाजपा नेताओं और केंद्र सरकार
को यह विचार करना चाहिए कि कश्मीरियों के जख्मों पर मलहम कैसे लगाई जाए। मगर प्रधानमंत्री
और गृहमंत्री अब भी पं.नेहरू को कश्मीर समस्या के लिए दोषी ठहराने में लगे हैं। क्या इस तरह वे
कश्मीरी पंडितों को इंसाफ दिला पाएंगे, यह विचारणीय है।