कचरे का घर बनता जा रहा भारत

asiakhabar.com | October 23, 2022 | 5:35 pm IST
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-योगेंद्र योगी-
अगर हमारे पास 20 लाख (एक अनौपचारिक आंकड़ा) कचरा बीनने वालों या कबाड़ीवालों का कुशल
कार्यबल नहीं होता तो हम अपने कचरे के नीचे डूब जाते। लेकिन दुर्भाग्य से हम उन्हें कोई दर्जा नहीं
दे पाए हैं। कूड़े-कचरे के बढ़ते ढेरों के साथ-साथ नगरों एवं महानगरों में कूड़े-कचरे के सडऩे से
निकली विषैली गैसों की समस्या भी फैलती जा रही है। कचरे के सडऩे से पैदा इन विषैली एवं
बदबूदार गैसों को वैज्ञानिक भाषा में लैंडफील गैसें कहते हैं। मुम्बई के मलाड में विपटा माइंड स्पेस
में व्यावसायिक क्षेत्र में कई कम्पनियों के एक हजार से ज्यादा कम्प्यूटर तथा सैकड़ों सर्वर लैंडफील
गैसों से प्रभावित होते देखे गए हैं। नेशनल सॉलिड वेस्ट एसोसिएशन ऑफ इंडिया के रसायनविदों ने
भी अध्ययन कर इसी बात की पुष्टि की है। मनुष्यों में भी इन गैसों के सम्पर्क में आने पर दमा,
श्वसन, त्वचा व एलर्जी रोग बढ़े हैं। महिलाओं में मूत्राशय के कैंसर की सम्भावना भी बताई गई है।
भूजल में नाइट्रेट की मात्रा बढऩे का एक कारण ये गैसें भी बताई गई हैं। देश के ज्यादातर शहरों में
एकत्र कचरे का उचित निपटान आधुनिक एवं वैज्ञानिक विधियों से नहीं हो रहा है…
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने कर्नाटक पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने को लेकर 2900
करोड़ रुपए का पर्यावरणीय जुर्माना लगाया है। इससे पहले भी एनजीटी ने कर्नाटक सरकार पर 500
करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया था। एनजीटी ने तेलंगाना सरकार को 3800 करोड़ रुपए का
पर्यावरणीय जुर्माना लगाया है। दिल्ली सरकार को पर्यावरणीय मुआवजे के रूप में 900 करोड़ रुपए
का भुगतान करने का निर्देश दिया है। इसी तरह राजस्थान पर 3000 करोड़ रुपए का पर्यावरणीय
मुआवजा लगाया है। यह जुर्माना मौजूदा अक्टूबर और सितंबर माह में लगाया गया है। इस भारी-
भरकम जुर्माने की वजह रही है पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले ठोस और तरल कचरे का प्रबंधन

नहीं कर सकना। ये चंद उदाहरण हैं जो देश की सीरत और सेहत को दर्शाते हैं। कचरे से होती दुर्दशा
की यह हालत उस देश की है जिसे देवों की पवित्र भूमि कहा जाता रहा है। इससे पता चलता है कि
देश के नीति निर्माता देश को कचराघर बनाने से रोकने में पूरी तरह विफल रहे हैं।
नीति निर्माताओं की दूरदृष्टि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सुरसा के मुंह की
तरह बढ़ती जा रही इस समस्या के समाधान का कोई स्थायी हल नहीं ढूंढा जा सका है। यह समस्या
अब देश में कैंसर की तरह फैलती जा रही है। इसकी कीमत देश की आम अवाम को अपनी सेहत
और प्राकृतिक स्त्रोतों के प्रदूषित होने से चुकानी पड़ रही है, जिनकी भरपाई करना लगभग
नामुमकिन हो गया है। निहित क्षुद्र स्वार्थों में उलझे नेताओं के लिए देश में फैलता कचरे का भंडार
कोई प्रमुख समस्या नहीं रहा है। शहरीकरण और आर्थिक विकास के लिए औद्योगिकीकरण से
निकलने वाला कूड़ा-कचरा दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। जिस देश की राजधानी ही कचरे के लिए
कुख्यात हो चुकी है, ऐसे में दूसरे राज्यों में कचरे की समस्या की विकरालता का अंदाजा लगाया जा
सकता है। देश का दिल कहे जाने वाले दिल्ली में कुतुब मीनार जितना ऊंचा करीब 73 मीटर ऊंचा
कचरे का पहाड़ खड़ा हो चुका है। दिल्ली-उत्तर प्रदेश सीमा के पास गाजीपुर लैंडफिल साइट गैस चैंबर
में तब्दील हो गई है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने दोहराया है कि खुले और
अस्वच्छ लैंडफिल पीने के पानी के दूषित होने में योगदान करते हैं और संक्रमण का कारण बन
सकते हैं। साथ ही बीमारियों को फैला सकते हैं। मलबे का फैलाव पारिस्थितिक तंत्र को प्रदूषित करता
है और इलेक्ट्रॉनिक कचरे या औद्योगिक कचरे से खतरनाक पदार्थ शहरी निवासियों और पर्यावरण के
स्वास्थ्य पर दबाव डालता है। एक अनुमान के मुताबिक शहरी भारत में रोजाना 140000 मीट्रिक
टन कचरा पैदा हो रहा है।
विश्व बैंक के एक अध्ययन के मुताबिक वर्तमान समय में प्रति व्यक्ति के हिसाब से हर दिन 450
ग्राम कूड़ा पैदा होता है, जिसके अगले 15-20 साल में बढक़र हर दिन 800 ग्राम प्रति व्यक्ति होने
का अनुमान है। देश भर की नगरपालिकाएं और नगर निगम मिलकर सिर्फ चार करोड़ टन कूड़ा जमा
कर पाते हैं। 2 करोड़ टन से भी ज्यादा कूड़ा ऐसे ही पड़ा रहता है, जिसका बड़ा हिस्सा बारिश के
जरिए नालियों में चला जाता है। अगर हमारे पास 20 लाख (एक अनौपचारिक आंकड़ा) कचरा बीनने
वालों या कबाड़ीवालों का कुशल कार्यबल नहीं होता तो हम अपने कचरे के नीचे डूब जाते। लेकिन
दुर्भाग्य से हम उन्हें कोई दर्जा नहीं दे पाए हैं। कूड़े-कचरे के बढ़ते ढेरों के साथ-साथ नगरों एवं
महानगरों में कूड़े-कचरे के सडऩे से निकली विषैली गैसों की समस्या भी फैलती जा रही है। कचरे के
सडऩे से पैदा इन विषैली एवं बदबूदार गैसों को वैज्ञानिक भाषा में लैंडफील गैसें कहते हैं। मुम्बई के
मलाड में विपटा माइंड स्पेस में व्यावसायिक क्षेत्र में कई कम्पनियों के एक हजार से ज्यादा कम्प्यूटर
तथा सैकड़ों सर्वर लैंडफील गैसों से प्रभावित होते देखे गए हैं। नेशनल सॉलिड वेस्ट एसोसिएशन ऑफ
इंडिया के रसायनविदों ने भी अध्ययन कर इसी बात की पुष्टि की है। मनुष्यों में भी इन गैसों के
सम्पर्क में आने पर दमा, श्वसन, त्वचा व एलर्जी रोग बढ़े हैं। महिलाओं में मूत्राशय के कैंसर की
सम्भावना भी बताई गई है। भूजल में नाइट्रेट की मात्रा बढऩे का एक कारण ये गैसें भी बताई गई

हैं। देश के ज्यादातर शहरों में एकत्र कचरे का उचित निपटान आधुनिक एवं वैज्ञानिक विधियों से नहीं
हो रहा है।
शहर का मास्टर प्लान बनाते समय अक्सर डंपिंग ग्राउंड या लैंडफिल साइट बनाने पर ध्यान ही नहीं
दिया जाता। फिर बिना किसी ठोस नजरिए के कोई भी जगह इनके लिए तय कर दी जाती है। देश
के कई नगरों एवं महानगरों में कचरा मैदान पर आलीशान इमारतें एवं रहवासी क्षेत्र बन गए हैं। यह
निश्चित है कि यदि एनजीटी के भारी-भरकम जुर्माने के बाद भी सरकारों की नींद नहीं खुली तो वे
दिन दूर नहीं जब देश की आबादी के एक बड़े हिस्से और पर्यावरण को अपूर्णीय कीमत चुकानी
पड़ेगी। पानी सिर से गुजरे, इससे पहले देश को कचरे से निपटने के लिए कठोर राष्ट्रीय नीति बनानी
होगी। न्यायपालिका को भी इसमें अधिक सक्रियता दिखानी होगी। इसके उल्लंघन करने वाले निजी
प्रबंधन और सरकारी तंत्र को जेल की हवा खिलानी होगी। तभी देश की सेहत से खिलवाड़ करने वाले
बाज आएंगे। हमारे देश में चंडीगढ़ एक ऐसा शहर है जिसे ब्यूटीफुल सिटी के नाम से जाना जाता है।
इस शहर का निर्माण योजनाबद्ध ढंग से हुआ है। शहर में कचरे को ठिकाने लगाने के लिए पर्याप्त
व्यवस्था की गई है। अगर हम देश के सभी शहरों और महानगरों को इसी तरह स्वच्छ रख पाएं, तो
सभी शहर चंडीगढ़ की तरह सुंदर शहर बन जाएंगे। हालांकि अभी यह कल्पना मात्र लगता है, लेकिन
अगर प्रयास किए जाएं तो इसे हकीकत में बदला जा सकता है। नगर निगमों को कचरे को ठिकाने
लगाने के लिए पर्याप्त स्टाफ की भर्ती करनी चाहिए। सफाई कर्मियों का मान-सम्मान भी बढ़ाना
होगा। साथ में उनके साथ जो दुर्घटनाएं होती रहती हैं, उनसे उन्हें बचाना होगा। राष्ट्रीय स्तर पर
स्वच्छता अभियान की शुरुआत जरूर की गई है, लेकिन अभी कई खामियां हैं, जिन्हें दूर करने की
सख्त जरूरत है। भारत को कचरे का घर बनने से रोकना ही होगा।


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