-तनवीर जाफ़री-
सरकारी नौकरियों की पुरानी पेंशन योजना समाप्त कर नई पेंशन योजना लागू किये जाने का
राष्ट्रव्यापी विरोध जारी है। ग़ौरतलब है कि ‘सरकारी नौकरी’ ही देश में युवाओं के जीवन यापन के
लिये उनकी पहली पसंद ही हुआ करती थी। क्योंकि किसी भी सरकारी सेवा में कार्यरत कर्मचारी व
अधिकारी को उसकी सेवाकाल के दौरान निर्धारित मासिक वेतन के अतिरिक्त अनेक ढेर सारी
सुविधायें तो मिलती ही थीं साथ ही प्रत्येक सेवानिवृत्त कर्मचारी को अनिवार्य पेंशन पाने का भी
अधिकार प्राप्त था। अनिवार्य पेंशन सेवानिवृत्ति के समय मिलने वाले मूल वेतन का लगभग 50
प्रतिशत होता होता था। इसके अतिरिक्त सेवानिवृत्त कर्मचारी को भी किसी भी कार्यरत सरकारी
कर्मचारी की ही तरह लगातार महंगाई भत्ता में बढ़ोतरी की सुविधा भी मिलती रहती थी।
केंद्र सरकार ने इसी पुरानी पेंशन योजना को वर्ष 2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई
की सरकार के समय ख़त्म कर न्यू पेंशन स्कीम की घोषणा की थी। 2004 में पेंशन योजना को बंद
करते समय अनेक अर्थशास्त्रियों द्वारा यह तर्क दिया जा रहा था कि पेंशन योजना देश की आर्थिक
स्थिति के लिये बहुत घातक सिद्ध हो सकती है। कुछ अर्थशास्त्री तो पेंशन योजना को देश की
भविष्य की वित्तीय तबाही का कारक तक बता रहे थे। यू पी ए सरकार में योजना आयोग के अध्यक्ष
रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे अर्थशास्त्री उन दिनों सभी राजनीतिक दलों व सत्ताधारी पार्टियों को
यह सीख दे रहे थे कि वे सभी ‘व्यवस्था’ को ऐसे क़दम उठाने से रोकें जो निश्चित रूप से वित्तीय
तबाही का सबब है। अनेक ओपीएस विरोधी अर्थ शास्त्रियों व सत्ताधारियों ने तो ओल्ड पेंशन स्कीम
को ‘सबसे बड़ी रेवड़ी’ तक बता दिया है।
चुनाव हेतु लाभकारी समझ कांग्रेस पार्टी ने इस मुद्दे को विभिन्न राज्यों में उछाला और जहाँ जहाँ
उसे ओपीएस लागू करने के वादे के बाद चुनावी सफलता मिली वहाँ वहाँ कांग्रेस ने ओल्ड पेंशन
स्कीम को बहाल भी कर दिया। कांग्रेस शासित राज्य राजस्थान और छत्तीसगढ़ के बाद अब हिमाचल
प्रदेश में भी ओल्ड पेंशन स्कीम को बहाल किया जा चुका है। झारखण्ड में चल रही जे एम एम,
कांग्रेस, आरजेडी व एनसीपी की महागठबंधन सरकार ने भी ओल्ड पेंशन स्कीम पुनः लागू कर दी है।
आम आदमी पार्टी शासित पंजाब सरकार ने भी पुरानी पेंशन योजना को फिर से लागू कर दिया है।
कांग्रेस की ओर से पुरानी पेंशन योजना पुनः बहाल किये जाने के पक्ष में जो तर्क दिये जा रहे हैं
उन्हें राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के इन शब्दों से समझा जा सकता है कि-“यदि देश 60
वर्ष तक ओल्ड पेंशन स्कीम लागू करके और पेंशन देकर विकास कर सकता है तो क्या कर्मचारी को
अपने बुढ़ापे के दौरान सुरक्षित महसूस करने का अधिकार नहीं है?” और “यदि कर्मचारी 30-35 साल
नौकरी करता है और उसे बुढ़ापे में पेंशन भी नहीं मिलेगी तो गुड गवर्नेंस में वो कैसे भागीदारी कर
सकेगा?” निश्चित रूप से देश के सेवानिवृत कर्मचारियों का यह एक ज्वलंत प्रश्न है कि एक ओर तो
दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही मंहगाई, परिवार के सदस्यों में फैली बेरोज़गारी और ऊपर से परिवार के
संरक्षक रुपी किसी बुज़ुर्ग सेवानिवृत कर्मचारी के जीवन यापन का एकमात्र सहारा यानी पेंशन का
समाप्त हो जाना, देश की सेवा में अपना जीवन खपा देने वाले किसी भी कर्मचारी के साथ अन्याय
नहीं तो और क्या है?
इसके बावजूद भाजपा की वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार निकट भविष्य में भी पुरानी पेंशन योजना की
बहाली की संभावना से फ़िलहाल इनकार कर रही है। जबकि विपक्ष इसे चुनावी मुद्दे के रूप में
प्रमुखता से उठाना चाह रहा है। ओल्ड पेंशन स्कीम को बहाल किए जाने के लिए देश भर की ट्रेड
यूनियंस भी इस विषय पर सरकार पर अपना दबाव बढ़ा रही हैं। अगले वर्ष यानी 2024 में लोकसभा
के आम चुनावों से पूर्व छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान व तेलंगाना सहित नौ राज्यों में विधानसभा
चुनाव प्रस्तावित हैं। पूरी संभावना है कि कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल
प्रदेश,पंजाब व झारखण्ड की ही तरह इन चुनावी राज्यों यहाँ तक कि लोकसभा चुनावों में भी पुरानी
पेंशन योजना की बहाली का मुद्दा पूरे ज़ोर-शोर के साथ उठा सकते हैं। विपक्ष को पूरी उम्मीद है कि
पुरानी पेंशन योजना की बहाली का मुद्दा उठा कर उन्हें अवकाश प्राप्त सरकारी कर्मचारियों के रूप में
देश के एक बड़े वोट बैंक का साथ मिल सकता है जो सत्ता दिलाने में सहायक भी हो सकता है। उधर
सत्ता ने ‘लाभार्थी’ नामक एक नवनिर्मित वोट बैंक साधने की कोशिश की है जो केवल चंद महीने
मिलने वाले 5 किलो अनाज पर ही सरकार का ‘कृतज्ञ’ रहता है।
दूसरी ओर विभिन्न अर्थशास्त्रियों द्वारा पेंशन योजना को देश की भविष्य की वित्तीय तबाही का
कारक बताते हुये सत्ता के सुर से अपना सुर मिलाना पुनः पेंशन बहाली की आस लगाये लोगों को
इसलिये भी रास नहीं आता कि जब देश की आर्थिक स्थिति इस योग्य भी नहीं कि वह विगत 6
दशक से चली आ रही पेंशन योजना को और आगे चालू नहीं रख सकती फिर आख़िर वही सरकार
सांसदों और विधायकों की प्रत्येक सदस्य्ता पर मिलने वाली अलग अलग पेंशन को भी समाप्त क्यों
नहीं करती? यह रेवड़ी नहीं तो क्या प्रसाद है? देश यदि आर्थिक तंगहाली के दौर से गुज़र रहा है तो
देश को लगभग 20 हज़ार करोड़ की लागत से बन रहे सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट की क्या ज़रुरत थी?
देश के लोगों को प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के आठ हज़ार चार सौ करोड़ के अति मंहगे विमानों की
ख़रीद से आख़िर क्या हासिल? आर्थिक तंगहाली में सरदार पटेल की विराट प्रतिमा पर तक़रीबन तीन
हज़ार करोड़ रूपये ख़र्च करने की क्या ज़रुरत? बुलेट ट्रेन जैसी अति मंहगी परियोजना देश के लिये
क्यों ज़रूरी? सत्ता के संरक्षण में पलने वाले अवांछित भगौड़ों द्वारा समय समय पर देश को लाखों
करोड़ रूपये की चपत लगाई जाती रही है। क्या यह विषय आर्थिक तबाही का कारक नहीं? ख़ुद
सत्ताधारी अपना वोट बैंक साधने के लिये जब चाहें राशन बाटें,जिसे जब चाहें पैसे देकर लुभायें, लोगों
को मकान बाँटें, शौचालय बनायें, गोशालायें बनाने, गंगा सफ़ाई आदि के नाम पर लाखों करोड़ रूपये
पानी में बहा दें क्या यह सब आर्थिक तबाही के लक्षण नहीं? ये सब ‘रेवड़ियों’ की श्रेणी में नहीं?
सच तो यह है कि सरकार ने केवल पुरानी पेंशन योजना बंद कर के ही देश के वरिष्ठ नागरिकों से
अपना मुंह मोड़ने का इज़हार नहीं किया है बल्कि कोविड के बाद रेल यात्रा में वरिष्ठ नागरिकों को दी
जाने वाली छूट को भी समाप्त कर अपनी नीति और नीयत का इज़हार कर दिया है। जिन्हें
सेवानिवृत देशवासियों को पेंशन देना और उन्हें बुढ़ापे में रेल यात्राओं में छूट देना ‘भारी वित्तीय बोझ’
प्रतीत होता है उन्हें पेशेवर राजनीतिज्ञों पर होने वाले और इनके द्वारा अनावश्यक रूप से विभिन्न
ग़ैर ज़रूरी योजनाओं के किये जाने वाले भारी भरकम व शाही ख़र्च की तरफ़ भी नज़र डालनी
चाहिये। सत्ताधारियों द्वारा विपक्षी दलों द्वारा पुनः शुरू की गयी ओपीएस को रेवड़ी बताना और स्वयं
चुनाव के दृष्टिगत ‘रेवड़ियां ही रेवड़ियां’ बांटते रहने का अर्थ तो यही है कि-वे बांटें तो रेवड़ी ये बांटें
तो प्रसाद?