इधर पूंजीगत व्यय में वृद्धि और उधर गरीबों की उपेक्षा

asiakhabar.com | February 11, 2023 | 12:42 pm IST
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-डॉ. टीएम थॉमस इसाक-
वित्त मंत्री के पास एक विकल्प यह था कि अधिक कर संसाधन जुटाए जाएं। इसके लिए अति-
धनाढ्यों पर एक छोटा सा संपत्ति कर लगाने की चाल चली जा सकती थी। लेकिन केंद्रीय वित्त मंत्री
अमीरों से ज्यादा संसाधन जुटाना नहीं चाहती हैं। वास्तव में, कर जीडीपी अनुपात पिछले वर्ष के
समान स्तर पर बना हुआ है।
भारत जल्द ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था तो बन सकता है, परन्तु सबसे बड़ा
विरोधाभास यह है कि संसद में पिछले सप्ताह पेश किया गया 2023-24 का बजट यही सुनिश्चित
करेगा कि तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में औसत नागरिक के जीवन की गुणवत्ता की रैंकिंग अगली
तिमाही में वैश्विक सूची में सबसे नीचे हो। तेज गति के साथ उचित वितरण किसी भी बजट का
उद्देश्य होना चाहिए। इसके अलावा हर बजट का आकलन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की इस उक्ति से

किया जाना चाहिए- ‘सबसे गरीब और सबसे कमजोर व्यक्ति के चेहरे को याद करें जिसे आपने देखा
होगा और खुद से पूछें कि क्या यह कदम जो आप सोचते हैं, वह उसके लिए किसी काम का होने जा
रहा है?’
आज आम भारतीय नागरिक की क्या स्थिति है? नीचे के 50 प्रतिशत नागरिकों के पास राष्ट्रीय
संपत्ति का 6 फीसदी से कम और राष्ट्रीय आय का 15 फीसदी से कम हिस्सा है। विश्व असमानता
रिपोर्ट- 2022 ने इस स्थिति को उजागर करते हुए भारत को बढ़ती गरीबी और ‘समृद्ध अभिजात
वर्ग’ के साथ सबसे असमानताओं वाले देशों में रखा है। एनडीए अवधि के दौरान राष्ट्रीय आय में
वृद्धि 8 फीसदी थी जो कोविड की पूर्व संध्या की तिमाही में घटकर 3.1 फीसदी हो गई थी। अगर
हम 2019-20 से 2022-23 तक के चार वर्षों के औसत को लें तो विकास दर 2.7 फीसदी पर आ
जाएगी। 2021-22 में प्रति व्यक्ति आय कोविड से पहले की प्रति व्यक्ति आय से कम है लेकिन इस
बजट की मूल धारणा यह है कि ‘कई देशों से पहले भारत में वित्त वर्ष 2022 में पूर्ण सुधार होगा और
देश वित्त वर्ष 2023 में महामारी से पहले की वृद्धि दर के रास्ते पर चलने की स्थिति में है।’
2021-22 तक स्थिति में पूर्ण सुधार की स्थिति घोषित करने के बाद इस बात पर आश्चर्य है कि
बजट ने गरीबों और आम नागरिकों से मुंह क्यों फेर लिया है? सरकार शहरी बेरोजगारी तथा
मुद्रास्फीति में कमी का दावा करती है किन्तु वह ग्रामीण रोजगार पर चुप है। शहरी बेरोजगारी और
मुद्रास्फीति दोनों अभी भी उच्च स्तर पर हैं। यह एक तथ्य है कि उपलब्ध आधिकारिक आंकड़े 1980
के दशक के दौरान गरीबी में गिरावट शुरू होने के बाद पहली बार आधिकारिक गरीबी रेखा के तहत
लोगों की संख्या में वृद्धि की ओर भी इशारा करते हैं।
पिछले चार वर्षों में प्रति व्यक्ति वास्तविक खपत प्रति वर्ष 5 फीसदी से कम बढ़ रही है। फिर भी
बजट में उपभोक्ता मांग बढ़ाने के बजाय खाद्य सब्सिडी में कटौती करने का फैसला किया गया है।
नॉमिनल फूड सब्सिडी 31 प्रतिशत घटाकर 2.87 लाख करोड़ रुपये से 1.97 लाख करोड़ रुपये कर दी
गई है।
गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों का महत्व घटा दिया गया है। उनमें सबसे महत्वपूर्ण मनरेगा है जिसका
आबंटन घटाकर 60,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है। 2021-22 में वास्तविक व्यय 98,468 करोड़
रुपये था और 2022-23 में अनुमानित व्यय 89,400 करोड़ रुपये है। राष्ट्रीय सामाजिक सहायता
योजना, आंगनबाड़ियों, राष्ट्रीय आजीविका मिशन, पोषण कार्यक्रमों के लिए कुल आबंटन 60,000
करोड़ रुपये से कम पर जाकर रुक गया है। सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में उपर्युक्त गरीबी
उन्मूलन कार्यक्रमों के लिए आबंटन 2022-23 में 0.79 फीसदी से घटकर 0.53 फीसदी हो गया है।
पेयजल और आवास जैसे दो प्रमुख कार्यक्रमों के लिए 1.5 लाख करोड़ रुपये का आबंटन किया गया
है जिनमें 2022-23 के संशोधित अनुमान से 13 फीसदी की वृद्धि हुई है लेकिन यह अभी भी
2021-22 के बजट अनुमान से नीचे है।

पीएम-किसान योजना सहित कृषि और संबद्ध क्षेत्रों के लिए आबंटन 1.4 लाख करोड़ रुपए है जो
2022-23 के बजट अनुमान से कम है। उर्वरक सब्सिडी में 22 फीसदी कटौती की गई है जो अब
2.25 लाख करोड़ रुपये से घटकर 1.75 लाख करोड़ रुपये रह गई है। खाद्य खरीद और बाजार
हस्तक्षेप के लिए आबंटन 72000 करोड़ रुपये से घटाकर 60,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है।
शिक्षा एवं स्वास्थ्य क्षेत्रों में 2022-23 के बजट अनुमानों से मामूली सुधार देखा गया है, लेकिन
जरूरत को देखते हुए यह पूरी तरह से अपर्याप्त है। सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में एनडीए
शासनकाल के दौरान शिक्षा के लिए आबंटन में 2013-14 में 0.63 फीसदी से वर्तमान बजट में 0.37
फीसदी तक लगातार गिरावट देखी गई है। सामाजिक कल्याण व्यय का मुख्य भार राज्य सरकारें
वहन करती हैं। राज्य सरकारों को केंद्रीय हस्तांतरण में कमी से भी इस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने
वाला है। यह आबंटन 2021-22 में 4.61 लाख करोड़ रुपये से घटकर 2022-23 में 3.67 लाख करोड़
रुपये रह गया है। वर्तमान आबंटन केवल 359 लाख रुपये है।
ऐसी विकट परिस्थितियों में गरीबों के बजट को उपरोक्त तरीके से संकुचित क्यों किया गया? कारण
यह है कि सरकार भविष्य के लिए राजकोषीय स्थिरता को सर्वोपरि मानती है। इसलिए इसने
राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 64 प्रतिशत से घटाकर 59 प्रतिशत कर दिया है। इसके
साथ ही जीडीपी के संबंध में समग्र सरकारी व्यय को 2022-23 (संशोधित) में 15.3 प्रति सैकड़ा से
घटाकर 14.9फीसदी कर दिया है।
इसके अलावा, सरकार की विकास रणनीति में कोविड के बाद की अवधि के दौरान पूंजीगत व्यय में
तेजी को बनाए रखना शामिल है। 2022-23 में पूंजीगत व्यय को जीडीपी के 3.9 फीसदी से बढ़ाकर
4.6फीसदी कर दिया गया है। समग्र व्यय और राजकोषीय घाटे में कमी को देखते हुए उच्च पूंजीगत
व्यय पाना केवल गरीबों के लिए किए जाने वाले खर्च में कटौती के माध्यम से ही संभव है। केंद्रीय
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ठीक यही किया है।
वित्त मंत्री के पास एक विकल्प यह था कि अधिक कर संसाधन जुटाए जाएं। इसके लिए अति-
धनाढ्यों पर एक छोटा सा संपत्ति कर लगाने की चाल चली जा सकती थी। लेकिन केंद्रीय वित्त मंत्री
अमीरों से ज्यादा संसाधन जुटाना नहीं चाहती हैं। वास्तव में, कर जीडीपी अनुपात पिछले वर्ष के
समान स्तर पर बना हुआ है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या गुणक प्रभावों के माध्यम से उच्च पूंजीगत व्यय से विकास में तेजी
आएगी? समस्या यह है कि उच्च सरकारी पूंजी निवेश के बावजूद निजी निवेश नहीं आ रहा है।
2010-11 में जीडीपी में जो सकल स्थिर पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) 39 फीसदी था उसमें तेजी से
गिरावट आई और यह गिरावट एनडीए के तहत लगभग 31 फीसदी तक जारी रही। कोविड के कारण
इसमें तेजी से गिरावट आई जो अभी तक पूरी तरह से ठीक नहीं हुई है। पिछले साल सितंबर में
दिल्ली में एक शिखर सम्मेलन में उत्तेजित वित्त मंत्री को उद्योग से जवाब मांगते हुए सुना गया था-
‘2019 से … मैं सुन रही हूं कि उद्योग को नहीं लगता कि माहौल अनुकूल है। ठीक है, कर की दर

को नीचे लाया गया था।… पीएलआई (उत्पादन से जुड़ा प्रोत्साहन) दें। हमने पीएलआई दिया है। मैं
कॉरपोरेटेड इंडिया से सुनना चाहती हूं; आपको क्या चीज रोक रही है?’
इस समस्या का समाधान सरल नहीं है। खपत मांग की उनकी अपेक्षाएं एक महत्वपूर्ण तथ्य हैं।
इसके अलावा अपने ‘मित्रों’ की ओर अत्यधिक झुकाव, निष्पक्षता तथा पारदर्शिता की कमी एक और
कारण है। एक सार्वजनिक नीति जो कुछ चैंपियन निवेशकों के निर्माण के लिए तैयार है, कुछ
पसंदीदा कॉर्पोरेट्स की बात आने पर न्यूनतम सरकार को अधिकतम सरकार बनाती है। ऐसी स्थिति
निवेशकों की ‘पाशविक प्रवृत्ति’ को उत्साहित नहीं करती है। बजट समारोह को अशिष्टता के साथ
बाधित किया जाना प्रतीकात्मक था। यह विरोध जनता ने नहीं किया था बल्कि उन निवेशकों द्वारा
किया गया जिन्होंने अडानी कंपनियों के शेयर की कीमतों को कम किया था।
कारण जो भी हो, प्रौद्योगिकी के स्तर को देखते हुए निवेश में कमी का मतलब है कि विकास दर में
कमी आएगी। हम पहले ही एनडीए के तहत आर्थिक मंदी का उल्लेख कर चुके हैं। यह तो नोटबंदी
थी जिसने गिरावट को जन्म दिया। हालांकि आर्थिक सर्वेक्षण ने भी इसे भारतीय अर्थव्यवस्था पर
प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले झटकों की सूची में डालने से बहुत सावधानी से परहेज किया है।
गिरावट शुरू होने के बाद भी एनडीए सरकार ने हर बजट में सकल घरेलू उत्पाद अनुपात में समग्र
बजटीय व्यय को 2013-14 में 14 फीसदी से घटाकर 2018-19 में 12.2 फीसदी करने की
मूर्खतापूर्ण रणनीति अपनाई है। हालांकि यह बजट से संबंधित नहीं है लेकिन मुद्रास्फीति के नीचे
आने के बावजूद रिजर्व बैंक द्वारा वास्तविक रेपो रेट बढ़ाने की नीति अपनाने से स्थिति जटिल हो
गई थी। महामारी के समय इन नीतियों को उलट दिया गया था। भारत की आर्थिक मंदी कई
नीतिगत विफलताओं का परिणाम थी और वर्तमान बजट में गलतियों की भरपाई करने के लिए कोई
नई रणनीति नहीं है।


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