शल मीडिया से जुड़ा एसोचेम का एक सव्रेक्षण देश की सरकार व अविभावकों को सावधान करने वाला है। उसमें कहा गया है कि भारत के 13 साल के 73 फीसद बच्चे फेसबुक के साथ में अन्य सोशल साइट्स पर काफी सक्रिय हैं। गौरतलब है कि एसोचेम के सोशल डेवलपमेंट फाऊंडेशन ने दिल्ली, मुबई, बेंगलुरू,चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, हैदराबाद, पुणो, लखनऊ और देहरादून जैसे दर्जनभर महानगरों के चार हजार से अधिक अविभावकों से साक्षात्कार करते हुए निष्कर्ष निकाले हैं। इस सव्रे से खुलासा हुआ है कि भारत में 8 से 13 आयु वर्ग के 73 फीसद बच्चे फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं। हैरत की बात यह है कि इस आयु वर्ग के 75 फीसद बच्चों के मां-बाप में खुद ही उन्हें इसकी पूरी जानकारी दी है। इससे भी अधिक ताज्जुब की बात तो यह है कि 82 फीसद मां-बाप ने अपने बच्चों को खुद अकाउंट बनाने में खासी मदद की है। इस सव्रे के निष्कर्ष से यह बात भी सामने आई है कि 13 साल के 25 फीसद,11 साल के 22 फीसद,10 साल के 10 फीसद और 8-9 साल के तकरीबन 5 से 10 फीसद बच्चे फेसबुक के साथ में सोशल मीडिया की अलग-अलग साइट्स पर सक्रिय हैं। इस सव्रे का यह तय भी उल्लेखनीय है कि 10 से 16 साल तक के 85 फीसद बच्चों की दिनचस्पी फेसबुक के साथ में फ्लिक कॉम, गूगल प्लस, व स्नैपचैट जैसी सोशल साइट्स से अधिक रही हैं। कहना न होगा कि आभासी दुनिया का सम्मोहन अब युवाओं के साथ में बच्चों को भी तेजी से अपनी गिरफ्त में ले रहा है। पिछले दिनों ग्रेट ब्रिटेन में किए गए एक सव्रेक्षण से यह बात निकलकर सामने आई थी कि ब्रिटेन के मां- बाप से बच्चों का संवाद केवल सोशल मीडिया के जरिये ही होता है। उनकी सामाजिक दुनिया सोशल साइट्स तक ही सिमट कर रह गई है। भारत में भी सोशल मीडिया की आभासी दुनिया ने सामाजिक संबंधों को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। मुबंई में ऐसे कई सोशल मीडिया एडिक्टेड क्लिनिक की शुरुआत भी हो गई है, जहां दर्जनों मां-बाप अपने फेसबुक व्यसनी बच्चों को लेकर यहां लगातार पहुंच रहे हैं। सच्चाई यह है कि सोशल मीडिया साइट्स प्रयोग करने के मामले में भारत आज एशिया में तीसरा और विश्व में चौथा देश है। साथ ही इंटरनेट प्रयोग करने वाली 85 फीसद आबादी यहां 8 से 40 आयुवर्ग के बीच है। यह वह वर्ग है जो नेट सर्च, ई-मेल, फेसबुक, ट्विटर व लिंक्डइन के जरिये समाज के वास्तविक संबंधों से धीरे-धीरे कट रहा है। इस संदर्भ में सामाजिक तय बतातें हैं कि आज कम्प्यूटर व इंटरनेट की आभासी दुनिया बच्चों में परिवार, स्कूल व क्रीड़ा समूह जैसी प्राथमिक संस्थाओं की उपादेयता पर सवालिया निशान लगा रही है। कहने की जरूरत नहीं कि कम्प्यूटर व इंटरनेट सूचनाओं की नई नेटवर्क सोसाइटी में पारस्परिक संवाद के लिए दैहिक उपस्थिति आवश्यक नहीं है। सूचनाओं के इस देहविहीन समाज में आज इन यक्ष प्रश्नों का उठना स्वाभाविक ही है कि इस आभासी दुनिया में हमारे प्रत्यक्ष संवाद बनाने वाले ‘‘रोल मॉडल’ दम क्यों तोड़ रहे हैं? फेसबुक, व्हाटसएप व ट्विटर के सामने मष्तिष्क को तरोताजा रखने वाला हमारा स्वस्य सीधा सामाजिक संवाद जीवन से नदारद क्यों हो रहा है? क्यों इस प्रकार की अस्वस्य संदेश देने वाली सोशल साइटस् बच्चों व युवाओं के वास्तविक संसार को नष्ट कर रहीं हैं? विद्यालयों में पठन-पाठन की क्रिया व शिक्षक की तुलना में सोशल साइट्स से संवाद इतना प्रभावी क्यों हो रहा है? कहना न होगा कि दादा-दादी, नाना-नानी की बाहों से लिपटकर कहानियां सुनने वाला बचपन अब डिजिटल दुनिया के आभासी समाज के साथ विकसित हो रहा है। संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों की सीख देने वाले परिवार और स्कूल तक बच्चों के बचपन से दूर हो रहे हैं। सामाजीकरण का समाजशास्त्र बताता है कि बचपन का सही निवेश जीवन भर मानवीय संवदेनाओं को संभाल कर रखता है। वर्तमान का सच यह है कि दैहिक सामाजीकरण का अभाव और सोशल मीडिया, कम्प्यूटर व इंटरनेट के यांत्रिक संवादों की प्रचुरता बचपन को द्वंदात्मक बना रही है। अध्ययन यह भी बताते हैं कि सोशल मीडिया के प्रयोग से अनभिज्ञ होने के कारण ही ज्यादातर बच्चे साइबर बुलिंग और आन्ॉलाइन लैंगिक शोषण का शिकार हो रहे हैं। हम इस सच से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि नियंतण्र समाज के बढ़ते बाजार और डिजिटल संसार से आने वाली धाराओं से आज बचाव मुश्किल है। परन्तु बचपन को सुरक्षित करने के लिए खास यह है कि पहले उन्हें समाज की दुनियावी जिंदगी की गरमाहट से परिचित कराया जाए।