उत्तरकाशी। 1962 के युद्ध के बाद भारत-चीन सीमा पर स्थित उत्तरकाशी के राजस्व ग्राम नेलांग और जांदुग से बगोरी व डुंडा में विस्थापित भोटिया जनजाति के 70 परिवार बीते पांच दशक से मुआवजे की बाट जोह रहे हैं। केंद्र व प्रदेश सरकार ने आज तक उनकी सुध नहीं ली। विस्थापन के बाद से ही ये परिवार खानाबदोश जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
भारत-चीन युद्ध के बाद सेना ने चीन सीमा से लगे भोटिया जनजाति के नेलांग और जादुंग गांव को खाली करा दिया था। तब नेलांग से 40 और जादुंग से 30 परिवार अपने रिश्तेदारों और परिचितों के यहां बगोरी आ गए, जो आज भी उसी स्थिति में रह रहे हैं। उच्च हिमालयी क्षेत्र में होने के कारण बगोरी गांव में अत्याधिक ठंड पड़ती है। लिहाजा यहां से अधिकांश परिवार अक्टूबर में छह माह के लिए डुंडा आ जाते हैं। लेकिन, आज तक विस्थापितो को उनकी पैतृक भूमि का मुआवजा नहीं मिल पाया। नेलांग व जादुंग में इन भोटिया परिवारों का मुख्य व्यवसाय कृषि एवं भेड़ पालन था।
नेलांग में उनकी 375.61 हेक्टेयर और जादुंग में 8.54 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि थी। जिस पर युद्ध के बाद आइटीबीपी (भारत-तिब्बत सीमा पुलिस) और सेना नेबंकर व कैंप स्थापित कर दिए। हालांकि, विस्थापित परिवार हर साल जून माह में चैन देवता, लाल देवता, रिगाली देवी व कुल देवता की पूजा के लिए नेलांग व जादुंग जाते हैं। लेकिन, इसके लिए पहले उन्हें गंगोत्री नेशनल पार्क प्रशासन और आइटीबीपी के अधिकारियों से अनुमति लेनी पड़ती है।
नेलांग-जादुंग की भौगोलिक स्थिति
नेलांग जाने के लिए भैरवघाटी से 23 किमी की दूरी तय करनी पड़ती है, जबकि जादुंग नेलांग से 16 किमी आगे पड़ता है। जिला मुख्यालय उत्तरकाशी से नेलांग की दूरी 113 किमी और जादुंग की 129 किमी है। दोनों गांव समुद्रतल से 4000 मीटर की ऊंचाई पर नेलांग घाटी में पड़ते हैं।
खानाबदोश जिंदगी जी रहे विस्थापित
बगोरी के ग्राम प्रधान भवान सिंह बताते हैं कि ग्रामीणों को मुआवजा दिलाने के लिए वह लगातार केंद्र व प्रदेश सरकार से पत्र व्यवहार कर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री को भी पत्र भेजे हैं, लेकिन कोई प्रगति नहीं हुई। विस्थापित परिवार खानाबदोश जिंदगी जीने को मजबूर हैं। 1968 में नेलांग, जादुंग व बगोरी को जनजातीय ग्राम घोषित कर दिया गया था। बावजूद इसके सरकारें इनकी उपेक्षा कर रही है।