
नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर ने मंगलवार को कहा कि न्यायाधीशों के पद पर रिक्तियां तो बहुत हैं लेकिन पर्याप्त संख्या में न्यायाधीश नहीं हैं जिसके कारण न्याय नहीं मिलता।
पूर्व न्यायाधीश ने ‘2025 इंडिया जस्टिस रिपोर्ट’ (आईजेआर) जारी करने के दौरान यह बात कही। उन्होंने कहा, ‘‘आपके पास पर्याप्त रिक्तियां हो सकती हैं लेकिन आपके पास पर्याप्त न्यायाधीश नहीं हैं। तो न्याय कैसे मिलेगा?” इस रिपोर्ट में देश में न्याय प्रदान करने के आधार पर राज्यों को ‘रैंक’ दिया जाता है।
रिपोर्ट का हवाला देते हुए पूर्व न्यायाधीश ने कहा कि देश भर में जिला अदालतों में रिक्तियां लगभग 33 प्रतिशत हैं जबकि उच्च न्यायालयों में यह आंकड़ा लगभग 21 प्रतिशत है। उन्होंने कहा, ‘‘वास्तविकता यह है कि कुछ समय पहले बिना किसी कारण के उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या में 25 प्रतिशत की वृद्धि कर दी गई थी। उदाहरण के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में स्वीकृत पदों की संख्या 48 थी जिसे बढ़ाकर 60 कर दिया गया।
न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) लोकुर ने कहा, ‘‘इस वर्ष फरवरी में दिल्ली में एक सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें (कई) मुख्य न्यायाधीशों ने भाग लिया था। उन्होंने मुझे बताया कि ऐसा एक भी उच्च न्यायालय नहीं है जहां न्यायाधीशों की संख्या 25 प्रतिशत वृद्धि किए जाने से पहले स्वीकृत पद के बराबर हो। इसलिए दिल्ली उच्च न्यायालय में कभी भी 48 न्यायाधीश नहीं थे।” उन्होंने कहा कि 1987 के विधि आयोग ने प्रति दस लाख जनसंख्या पर 50 न्यायाधीशों की सिफारिश की थी, जिसका मतलब था कि तत्कालीन जनसंख्या के अनुसार 40,000 न्यायाधीश होने चाहिए।
न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) लोकुर ने कहा, ‘‘आज जनसंख्या 1.4 अरब है और यदि आप प्रति दस लाख पर 50 न्यायाधीशों की बात करें तो आपको 70,000 न्यायाधीशों की आवश्यकता होगी। आईजेआर ने 1987 में 40,000 न्यायाधीशों का उल्लेख किया था जबकि हमारे पास अब 21,000 न्यायाधीश हैं और स्वीकृत रिक्तियों की संख्या 25,000 है जिसका अर्थ है कि स्वीकृत रिक्तियां भी नहीं भरी गई हैं।”
न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) लोकुर ने कहा कि एक अन्य पहलू प्रत्येक न्यायाधीश के लिए आवश्यक स्टाफ का भी है। न्याय विभाग के अनुसार प्रति न्यायाधीश के लिए लगभग सात-आठ लोग चाहिए होते हैं जिसका अर्थ है कि लगभग पांच लाख कर्मचारियों की भर्ती करनी होगी। उन्होंने कहा, ‘‘आप इतने सारे लोग कहां से लाएंगे? जब तक इस बारे में कुछ करने की इच्छाशक्ति नहीं होगी तब तक समस्या जारी रहेगी।” उन्होंने कहा कि 2009 में बहुत उत्साह के साथ शुरू किया गया ‘ग्राम न्यायालय’ का विचार अब समाप्त हो चुका है।
न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) लोकुर ने कहा, ‘‘यह लोगों को यह बताने के लिए था कि सुनो अब आपको जिला मुख्यालय जाने की जरूरत नहीं है, आपको उच्च न्यायालय जाने की जरूरत नहीं है, आपको उच्चतम न्यायालय जाने की जरूरत नहीं है। बस अपने ग्राम न्यायालय में चले जाओ और वहां आपकी कानूनी समस्याओं का समाधान किया जाएगा।”
उन्होंने कहा, ‘‘हम अब 15 साल पीछे हैं। देश भर में मुश्किल से 40 या 50 ग्राम न्यायालय हैं, जबकि इनकी संख्या हजारों में होनी चाहिए थी। जो न्यायालय जोश और उत्साह के साथ स्थापित किए गए थे उनमें से अधिकांश बंद हो चुके हैं। लोगों को न्याय कहां से मिलेगा? जब लोग जिला मुख्यालय तक बमुश्किल पहुंच पा रहे हैं, ऐसे में हर कोई उच्चतम न्यायालय नहीं जा सकता।”
न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) लोकुर ने कहा कि व्यवस्था में सुधार के लिए कानूनों को लागू करना होगा और बहुत सारे डेटा और सूचनाएं हैं जिनका विश्लेषण करके कमियों का पता लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा, ‘‘लेकिन इसके लिए इच्छाशक्ति होनी चाहिए और मुझे लगता है कि उस इच्छाशक्ति की कमी है।”
शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश ने कहा कि न्यायपालिका या सरकार के सामने धन की कमी जैसी कोई समस्या नहीं है। उन्होंने कहा, ‘‘पर्याप्त धन उपलब्ध है, बहुत सारा धन उपलब्ध है लेकिन खर्च नहीं हो रहा है। मैं जानता हूं कि 13वें वित्त आयोग में 5,000 करोड़ रुपये (न्यायपालिका को) दिए गए थे, जिनमें से केवल 980 करोड़ रुपये खर्च किए गए।”
पूर्व न्यायाधीश ने कहा कि दिल्ली के किशोर सुधार गृहों में बंद बालकों को तिहाड़ जेल में बंद वयस्क कैदियों जैसी ही नहीं बल्कि बदतर, परिस्थितियों या समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) लोकुर ने कहा, ”हमारे किशोर न्याय बोर्ड की हालत खराब है। बच्चों को न्याय नहीं मिल रहा है।” उन्होंने कहा कि न्यायाधिकरण लोगों को न्याय दिलाने में सक्षम नहीं हैं।