आशा की जानी चाहिए कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय का आगामी आदेश अंतिम होगा। न्यायालय ने सुनवाई के दौरान जैसी टिप्पणियां की एवं याचिकाकर्ता से तीखे प्रश्न किया उनसे अनुमान लगाया जा सकता है कि फैसला क्या होगा। पिछले महीने ही सर्वोच्च अदालत ने ईवीएम से संबंधित दो याचिकाएं खारिज की थी। न्यायालय ने एक याचिकाकर्ता पर 50 हजार का जुर्माना भी लगाया था। वस्तुत: शीर्ष अदालत ईवीएम से जुड़ी 40 याचिकाएं अभी तक खारिज कर चुका है। सामान्यत: यह बात समझ में नहीं आती कि चुनाव आयोग के साथ विसनीय विशेषज्ञ द्वारा बार-बार स्पष्ट करने के बावजूद की ईवीएम से न छेड़छाड़ हो सकती है न ही इसे हैक किया जा सकता है; इसके द्वारा चुनाव न कराने का अभियान क्यों लगातार जारी है? सर्वोच्च अदालत में भी इस पर बहस हो चुकीं हैं, फैसले आ चुके हैं। उच्च न्यायालयों ने दो दर्जन से ज्यादा इस पर फैसले दिए हैं। सभी में न्यायालय ने चुनाव आयोग के इस दावे को स्वीकार किया है कि ईवीएम से मतदान कराया जाना सुरक्षित और विसनीय है। तो फिर ऐसा क्यों हो रहा है? यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं कि ईवीएम एवं भारतीय राजनीति की विडंबनाओं का शिकार हो चुका है। इसी ईवीएम से जब राज्यों में विपक्ष जीतता है या 2004 एवं 2009 में यूपीए की सरकार गठन में इसका योगदान होता है तो वर्तमान विरोधी प्रश्न नहीं उठाते। हालांकि भाजपा की ओर से भी एक समय ईवीएम को इस अविसनीय बनाने की कोशिश हुई थी किंतु बाद में उसने इस अध्याय को पूरी तरह बंद कर दिया। ऐसा लगता है जैसे भारत के संपूर्ण लोकतंत्र और व्यवस्था को ही आम लोगों से लेकर संपूर्ण विश्व की दृष्टि में संदिग्ध, अविसनीय और साखविहीन साबित कर देने का सोचा समझा अभियान चल रहा हो। कल्पना करिए, अगर भारत सहित दुनिया भर में लोगों के एक बड़े समूह के अंदर यह बात बिठा दिया जाए कि भारत के सत्तारूढ़ पार्टी और गठबंधन ईवीएम में छेड़छाड़ कर चुनाव जीतता है जबकि उसे जनता वोट नहीं देती तो हमारी क्या छवि बनेगी? भारत का संसदीय लोकतंत्र, यहां का स्वतंत्र, निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव विश्व के लिए एक बड़ा उदाहरण है। विश्व भर के टिप्पणीकार, विश्लेषक, राजनेता बताते हैं कि भारत जैसे विविधताओं वाले देश में इतने भारी मतदाताओं का मतदान संपन्न कराकर लोकतंत्र का चक्र बनाए रखना अद्भुत सफलता है। यही सच भी है। अनेक देशों ने हमारे चुनाव आयोग और एवं का सहयोग लेकर अपने यहां भी चुनाव संपन्न कराए हैं, लेकिन हमारे यहां के राजनीतिक दल, उनसे जुड़े वकील, कुछ एक्टिविस्ट, एकेडमिशियन, एक्टिविस्ट वकीलों का एक बड़ा वर्ग ईवीएम के विरुद्ध किसी न किसी तरह न्यायालय का उपयोग करते हुए या अन्य माध्यमों से अपना अभियान चलाते रहते हैं। हमने देखा कि 2019 के चुनाव के पहले लंदन से लेकर अमेरिका जैसे देशों में भारत के ईवीएम को लेकर डेमो हो रहा है, बयान दिए जा रहे हैं। यह बात अलग है कि चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों को जब भी चुनौती दी कि आइए हमारे समक्ष एवं से छेड़छाड़ साबित करिए तो कोई नहीं गया। जिस आम आदमी पार्टी के नेता पत्रकार वार्ता में एक नकली ईवीएम लेकर इसमें छेड़छाड़ साबित कर रहे थे वह भी चुनाव आयोग तक नहीं पहुंचे। साफ है कि इसके संबंध में जो भी आशंकाएं उठाई गई? वो निराधार हैं। वर्तमान मामले में ही अलग-अलग तरह के तर्क दिए गए। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की ओर से प्रस्तुत याचिका में वकील प्रशांत भूषण ने एक प्रस्तुति भी दी जिसमें साबित किया गया कि ईवीएम विसनीय प्रणाली नहीं है और हमें मत पत्रों से चुनाव की ओर लौटना चाहिए। उन्होंने यह भी विकल्प दिया कि अगर ईवीएम से करना ही है तो वीवीपैट की बनावट ऐसी हो कि उसमें से हर मतदाता को उनके वोट की पर्ची मिल जाए। जब उन्होंने पश्चिम जर्मनी का उदाहरण दिया तो उच्चतम न्यायालय ने पूछा कि वहां की आबादी कितनी है। सच है कि 7-8करोड़ आबादी वाले देश का उदाहरण 98 करोड़ से ज्यादा मतदाता वाले देश के संदर्भ में देना स्वीकार नहीं हो सकता। न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि मत पत्रों से मतदान के दौरान क्या होता था यह हमें याद है और बताने की आवश्यकता नहीं। इसी तरह न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की कि समस्या मशीन में नहीं है समस्या मानवीय व्यवस्था में होती है। समस्या यह है कि राजनीतिक दल अपना जनाधार खोने और जनता द्वारा समर्थन न मिलने के कारणों को समझने की बजाय यह मन कर चल रहे हैं कि भाजपा ने चुनाव आयोग को नियंत्रण में ले लिया है और उसके माध्यम से ईवीएम में छेड़छाड़ कर कर चुनाव जीत रही है। आप देखेंगे कि भारत में भाजपा विरोधियों द्वारा शासन के हर अंग पर सवाल उठाए जा रहे हैं और बड़े-बड़े नेता सरेआम चुनाव आयोग ही नहीं न्यायालय और प्रशासन को कठघरे में खड़ा करने की सीमा तक चले जाते हैं। यह पूरी व्यवस्था और संपूर्ण तंत्र को संदेहास्पद बनाने का डरावना व्यवहार है। ईवीएम विरोधी अभियान को भी इसी दुखद और चिंताजनक प्रवृत्ति का अंग माना जा सकता है। हालांकि 2014 का चुनाव यूपीए सरकार के कार्यकाल में ही हुआ था। उस समय नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और भाजपा पार्टी के रूप में न इतनी प्रभावी थी और न ऐसी हैसियत रखती थी जितनी आज है। उसके पहले 2013 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी उसे व्यापक सफलता मिली थी। अच्छा हो कि उच्चतम न्यायालय इस पर अंतिम फैसला और मत दे दे ताकि अब इस विवाद को आगे न बढ़ाया जाए। समस्या यह है कि हमारे देश के एक्टिविस्टों का एक समूह तथा कुछ राजनीतिक दल व नेता अपने आचरण पर पुनर्विचार नहीं कर सकते। वह यही संदेश देते रहेंगे कि हमारी राजनीति ठीक है, लोगों का समर्थन भी है, लेकिन ईवीएम से हम नहीं जीत सकते। ये लोग ईवीएम को कठघरे में करता खड़ा करते रहेंगे। यह दुर्भाग्यपूर्ण और लोगों के अंदर हमारी चुनाव प्रणाली को लेकर अत्यंत ही नकारात्मक मानसिकता पैदा करने का अभियान है, लेकिन हमारे आपके पास कोई चारा नहीं है। इसके अभी रु क जाने की संभावना नहीं है।