-अजीत द्विवेदी-
केंद्र सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए लागू करने के लिए चार साल से ज्यादा समय तक इंतजार किया। इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता है कि सत्तारूढ़ भाजपा को इसके असर का अंदाजा नहीं है। साढ़े चार साल के बाद अगर किसी कानून को अमल में लाया जा रहा है तो निश्चित रूप से उसके हर पहलू पर विचार किया गया होगा। सरकार के स्तर पर इसे लागू करने की प्रशासनिक व कानूनी चुनौतियों पर विचार किया गया होगा तो भाजपा के स्तर पर राजनीतिक चुनौतियों का आकलन किया गया होगा। जब तक भाजपा को इस पर अमल करने से फायदे की बजाय नुकसान ज्यादा दिखता रहा तब तक इसे रोका गया। अब इसे लागू किया जा रहा है तो इसका मतलब है कि भाजपा को नुकसान कम और फायदा ज्यादा दिख रहा है। यह भी कह सकते हैं कि इसे लागू करने के लिए हालात अभी अनुकूल दिख रहे हैं। लेकिन क्या अनुकूल हालात में लागू करने से इस कानून की चुनौतियां कम हो जाएंगी?चूंकि यह कानून लोकसभा चुनाव से ऐन पहले लागू हो रहा है इसलिए सबसे पहले इसके राजनीतिक पहलुओं पर ही विचार की जरुरत है। ध्यान रहे भाजपा की केंद्र सरकार ने दिसंबर 2019 में नागरिकता कानून में संशोधन किया था। अगर विशुद्ध राजनीतिक नजरिए से देखें तो इस पर अमल रोकने का कारण 2021 के मई में होने वाले विधानसभा चुनाव थे। मई 2021 में एक ही साथ असम और पश्चिम बंगाल दोनों के चुनाव होने वाले थे। अगर पश्चिम बंगाल का चुनाव अलग हो रहा होता तो सरकार इसे लागू कर सकती थी। लेकिन सरकार और भाजपा दोनों को अंदाजा था कि असम के चुनाव में इसका नुकसान हो सकता है। असम में इस कानून के खिलाफ ही लुरिनजोत गोगोई और अन्य लोगों ने मिल कर असम जातीय परिषद का गठन किया था और इसके खिलाफ आंदोलन शुरू किया था। अस्सी के दशक में हुए असम समझौते को लेकर बेहद संवेदनशील कई जातीय समूहों ने इसका विरोध किया। उनकी चिंता है कि इस कानून के जरिए बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों को भारत की नागरिकता मिल जाएगी और उसका असर असम की संस्कृति और भाषा दोनों पर होगा। उनको यह भी डर है कि असमी लोग अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक हो जाएंगे और बांग्लाभाषियों की बहुलता हो जाएगी। उनकी यह आशंका सही है या नहीं यह बाद की बात है लेकिन इसका राजनीतिक नुकसान संभव था। तभी भाजपा की सरकार ने 2021 में जोखिम नहीं लिया था। लेकिन अब यह जोखिम लिया जा रहा है तो उसका कारण यह है कि भाजपा को इस बार असम में नुकसान से ज्यादा पश्चिम बंगाल में फायदा दिख रहा है। पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश से आए मतुआ समुदाय के हिंदू प्रवासियों की आबादी करीब दो करोड़ है और राज्य की 10 लोकसभा सीटों पर बहुत स्पष्ट प्रभाव है। पिछले विधानसभा चुनाव में इनके असर वाले इलाकों में भाजपा ने 18 सीटें जीती थीं, जहां उससे पहले भाजपा को सिर्फ तीन सीट मिली थी। इस बार मतुआ आबादी वाले इलाके में भाजपा को बड़ा फायदा मिलने की उम्मीद है। असम में इसका विरोध होगा लेकिन वहां भी करीब 20 लाख ऐसे हिंदू प्रवासी हैं, जिनको इस कानून का लाभ मिलेगा। ध्यान रहे राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी में भी असम में 19 लाख लोगों के नाम नहीं शामिल हुए हैं। इनमें से ज्यादातर हिंदू हैं। उनको इस कानून के जरिए नागरिकता मिलेगी। सो, भाजपा को उम्मीद है कि असम में भी नफा-नुकसान का संतुलन बन जाएगा। अगर कानूनी चुनौतियों की बात करें तो दिसंबर 2019 में कानून बनने के कुछ दिन बाद से ही यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। बाद में कांग्रेस के जयराम रमेश, तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा, एमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी आदि के साथ साथ असम गण परिषद और अन्य लोगों ने भी इस मामले में याचिका दायर की। अक्टूबर 2022 में तब के चीफ जस्टिस यूयू ललित ने इस पर दिसंबर 2022 से सुनवाई का फैसला किया था। लेकिन उनके रिटायर होने के बाद से यह मामला लंबित है। इन याचिकाओं में दो मसले अहम हैं। पहला मसला संविधान के अनुच्छेद 14 में दिए गए समानता के सिद्धांत का है और दूसरा मसला असम और केंद्र सरकार के बीच 1985 में हुए असम समझौते का है। संविधान के अनुच्छेद 14 के मुताबिक किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, नस्ल, रंग या लिंग के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जा सकता है। इसके जरिए कानून के समक्ष सबकी समानता सुनिश्चित की गई है। लेकिन नागरिकता संशोधन कानून धर्म को भेदभाव का आधार बनाता है। इसमें कहा गया है कि भारत के तीन पड़ोसी देशों-पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से प्रताडि़त होकर आने वाले गैर मुस्लिमों को भारत की नागरिकता दी जाएगी। यानी मुस्लिम को छोड़ कर हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और यहां तक कि इसाइयों को भी भारत की नागरिकता मिलेगी। सो, पहली नजर में यह धर्म के आधार पर भेदभाव दिखाई देता है। हालांकि सरकार का कहना है कि जिन तीन देशों का जिक्र किया गया है वो तीनों इस्लामिक देश हैं इसलिए मुस्लिम के वहां प्रताडि़त होने और पलायन करने की बात नहीं मानी जा सकती है। इस आधार पर याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा है कि सीएए और एनआरसी दोनों को मिला कर देखें तो असम में मुस्लिमों के साथ भेदभाव हो सकता है और उनको टारगेट किया जा सकता है। इसमें यह सवाल भी उठाया गया है कि अगर मुस्लिमों को टारगेट करना इसका लक्ष्य नहीं है तो फिर श्रीलंका से प्रताडि़त होकर आने वाले तमिलों का इसमें जिक्र क्यों नहीं है?दूसरा मसला असम समझौते का है, जो 1985 में केंद्र और असम सरकार के बीच हुआ था। इसके मुताबिक बांग्लादेश से आने वाले अवैध प्रवासियों के लिए एक कटऑफ डेट तय की गई थी। यह मामला भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बेंच ने सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रखा है। यह मामला 1995 के नागरिकता कानून में जोड़ी गई धारा 6ए से जुड़ी है। यह धारा असम समझौते के बाद जोड़ी गई थी, जिसमें कहा गया था कि 25 मार्च 1971 तक भारत आने वाले बांग्लादेशियों को नागरिकता मिलेगी। उसके बाद आने वालों को अवैध माना जाएगा। अगर सुप्रीम कोर्ट 25 मार्च 1971 की तारीख को कटऑफ डेट स्वीकार कर ले तो फिर सीएए का क्या होगा? ध्यान रहे सीएए में 31 दिसंबर 2014 की कटऑफ डेट तय की गई है। यानी 31 दिसंबर 2014 तक जो बांग्लादेशी भारत आए हैं उनको सीएए के तहत नागरिकता मिलेगी। सो, यह बड़ा सवाल है कि 25 मार्च 1971 की तारीख आखिरी मानी जाए या 31 दिसंबर 2014 की? इसे कानूनी तरीके से सुलझाना होगा। बहरहाल, इस कानून के अमल में प्रशासनिक, कानूनी और राजनीतिक चुनौतियां हैं। लेकिन पहली नजर में कानून का औचित्य समझ में आता है और इसकी आलोचना बहुत तर्कसंगत नहीं लगती है। इसके बारे में यह झूठा प्रचार किया गया है कि यह नागरिकता छीनने वाला कानून है। इसमें किसी की नागरिकता छीनने का कोई प्रावधान नहीं है, बल्कि इससे लाखों, करोड़ों ऐसे लोगों को भारत की नागरिकता मिलेगी, जो दलित, वंचित और पिछड़े समाज के हैं। दुनिया के किसी भी देश में अगर हिंदू धर्म, राजनीति या वहां की सामाजिक व्यवस्था की वजह से प्रताडि़त होते हैं तो उनके लिए निश्चित रूप से भारत में जगह होनी चाहिए। लेकिन यहां सुरक्षा के पहलू को जरूर ध्यान में रखना चाहिए। ऐसे पड़ोसी मुल्क, जिनसे भारत की जन्म जन्मांतर की दुश्मनी है वे इसका लाभ भी उठा सकते हैं।