-आशीष वशिष्ठ-
बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने फिर एक बार आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर घोषणा की है कि बहुजन समाज पार्टी अकेले लोकसभा चुनाव लड़ेगी। मायावती इसके पहले भी कई बार लोकसभा चुनाव के लिए किसी भी तरह के गठबंधन में शामिल होने से इनकार करती रही हैं। उन्होंने चुनाव के लिए अभी तक प्रत्याशियों की घोषणा भी नहीं की है जिसके कारण उनके इंडिया गठबंधन में शामिल होने के कयास लगाए जा रहे हैं। 2024 के आम चुनाव में राजनीतिक लिहाज से उत्तर प्रदेश जैसे अहम राज्य में हर राजनीतिक दल अधिक से अधिक सीटें हासिल करना चाहता है। इसलिए एनडीए और इंडिया गठबंधन में छोटे-बड़े दल शामिल होकर अपना राजनीतिक कद और हैसियत बढ़ाना चाहते हैं। ऐसे में मायावती का किसी गठबंधन का हिस्सा न बनना कई प्रश्न खड़े करता है।
प्रश्न यह है कि क्या अकेले चुनाव लड़कर मायावती एनडीए और इंडिया गठबंधन को चुनौती दे पाएगी? क्या मायावती को भरोसा है कि उनका कोर वोट बैंक पूरी तरह उनका साथ देगा? क्या मायावती को लगता है कि त्रिकोणीय मुकाबले में बसपा हावी रहेगी? क्या मायावती को इस बात का भरोसा है कि इंडिया गठबंधन की बजाय मुस्लिम मतदाता उनके साथ मजबूती से खड़े होंगे? क्या मायावती चुनाव नतीजों के हिसाब से रणनीति का खुलासा करेगी? क्या मायावती एकला चलो की राह पर हैं या फिर वो जिस तरह से खामोश हैं उसके पीछे कोई बड़ा प्लान है?
बसपा प्रमुख ने पिछले छह-सात महीने में अकेल चुनाव लड़ने की बात कई बार कही है, साथ ही यह भी कहा कि गठबंधन करने से उनको नुकसान होता है। इसमें कोई गलत बात नहीं है कि कोई पार्टी गठबंधन नहीं करे और चुनाव अकेले लड़े। लेकिन पार्टी लड़ते हुए तो दिखाई दे! मायावती की बहुजन समाज पार्टी बीजेपी और समाजवादी पार्टी दोनों के साथ गठजोड़ कर चुकी है। लेकिन बीते ढाई दशकों से बसपा का भाजपा के बीजेपी के प्रति ज्यादा रुझान देखा गया है। मायावती तीन बार भाजपा के सहयोग से यूपी की मुख्यमंत्री भी बन चुकी हैं।
बसपा ने पिछला लोकसभा चुनाव समाजवादी पार्टी के साथ मिल कर लड़ा था लेकिन सपा की सहायता से षून्य से 10 सीट पर पहुंचने के बाद ही उन्होंने तालमेल समापत कर दिया था। इसमें कोई दो राय नहीं है कि बसपा का वोट बैंक भी खिसक रहा है। बसपा सुप्रीमो भले ही ये कहें कि गठबंधन से उनकी पार्टी को नुकसान होता है लेकिन सच्चाई तो ये है कि पिछले लोकसभा चुनाव में गठबंधन का सबसे ज्यादा लाभ बसपा को ही हुआ था। वर्ष 1996 में बसपा 6 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी, तब बसपा को 20.6 प्रतिषत मत मिले थे। वर्ष 1998 में बसपा को चार सीटें मिली और वोट प्रतिशत बढ़कर 20.9 प्रतिषत हो गया। वर्ष 1999 में बसपा को 14 सीटें मिली और मत 22.08 प्रतिशत हो गया। वर्ष 2004 में सीटें बढ़कर 19 हो गईं और 24.67 प्रतिषत मत मिले। बसपा ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन वर्ष 2009 में किया जब पार्टी को 20 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल हुई और 27.42 प्रतिशत मत मिले।
बसपा की स्थिति साल 2014 से बदलती चली गई। बीस सांसदों वाली बसपा को इस चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं हो पाई और उसका मत प्रतिशत भी गिरकर 19.77 प्रतिशत पर आ गया। बसपा के वोट में लगभग आठ प्रतिशत की गिरावट आई। 1996 के बाद बसपा का ये सबसे बुरा प्रदर्शन था। वर्ष 2019 में बसपा ने सपा के साथ गठबंधन किया। जिसका बसपा को भरपूर लाभ हुआ और पार्टी शून्य सीटों वाली बसपा ने दस सीटों पर विजय प्राप्त की। जबकि उसका मत और कम हुअ। इस चुनाव में बसपा को सपा के साथ गठबंधन कर 19.43 प्रतिशत ही मत मिले। विधानसभा में बसपा का केवल एक विधायक है।
एक वो समय था जब बसपा चुनाव से काफी समय पहले ही उम्मीदवार घोषित कर देती थी। सबसे पहले संभवतः बसपा ने ही चुनाव से महीनों पहले उम्मीदवार घोषित करने शुरू किए थे। लेकिन अब चुनाव बिल्कुल सिर पर आ चुके हैं। और बसपा उम्मीदवारों की घोषणा की बजाय अकेले चुनाव लड़ेंगे का पुराना रिकार्ड बजाए जा रही है। जबकि भाजपा, सपा, रालोद और सुभासपा कई सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर चुके हैं। बड़ी मशक्कत के बाद बीते 10 मार्च को बसपा ने यूपी की मुरादाबाद सीट से मो. इरफान सैफी को अपना पहला प्रत्याशी घोषित किया है।
पिछले एक दशक में मायावती के कई भरोसेमंद सिपहसालार दूसरी पार्टियों में शामिल होते चले गए। बीते चुनाव में जीते 10 सांसद भी नई सियासी संभावनाएं तलाश रहे हैं। इसमें अंबेडकर नगर से सांसद रितेश पांडे बीजेपी में शामिल हो चुके हैं। उन्हें बीजेपी ने टिकट भी दे दिया है। वहीं गाजीपुर सांसद अफजाल अंसारी को सपा उम्मीदवार घोषित कर चुकी है। वहीं, अमरोहा से दानिश अली अब कांग्रेस के खेमे में हैं। जौनपुर से सांसद श्याम सिंह यादव भी कांग्रेस की ओर कदम बढ़ा चुके हैं। बिजनौर से सांसद मलूक नागर, लालगंज लोकसभा सीट से सांसद संगीता आजाद के भी पाला बदलने के कयास लगाए जा रहे हैं।
यूपी समेत देश के अन्य राज्यों में बीएसपी का सियासी ग्राफ चुनाव दर चुनाव गिरता ही जा रहा है। पिछले वर्ष विधानसभा चुनावों में आकाश आनंद छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में पार्टी का चुनावी अभियान संभाल रहे थे, जहां पार्टी पिछले चुनाव की तुलना में काफी खराब प्रदर्शन की है। राजस्थान छोड़कर किसी भी राज्य में बसपा का खाता तक नहीं खुला और वोट फीसदी में भी गिरावट आई। बसपा अब उत्तर प्रदेश और बाहर के राज्यों में हर जगह कमजोर दिखाई दे रही है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली समेत उत्तर भारत के राज्यों में पार्टी संगठन लचर हाल में है। पार्टी अपने कोर दलित वोटरों को भी एकजुट करने में सफल नहीं हो पाई है। सत्ता से बाहर होने के बाद मायावती से दलितों का मोहभंग लगातार होता जा रहा है। वास्तव में, कांशीराम ने बसपा का जो सियासी समीकरण बनाया था, वो गड़बड़ा चुका था और दलितों के बीच चंद्रशेखर आजाद नई लीडरशिप के रूप में खुद को खड़े कर रहे हैं। इस तरह से बीएसपी सियासी चक्रव्यूह में घिरी हुई है, जहां एक तरफ बीजेपी गैर-जाटव वोटों को अपने पाले में ले चुकी है तो जाटव वोट को चंद्रशेखर अपने साथ जोड़ने में लगे हैं। दलित राजनीति का चेहरा माने जाने वाली मायावती की चमक अब पहले जैसी नहीं रही है।
वर्ष 2009 में 27.42 प्रतिशत मत वाली बसपा 2019 के आम चुनाव में 19.43 प्रतिशत पर आ गई। जबकि इस चुनाव में बसपा सपा के साथ गठबंधन में थी। 2007 में बीएसपी यूपी में भले ही पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने में सफल रही हो, लेकिन उसके बाद से ही गिरावट देखने को मिल रही है। 2012 के यूपी चुनाव में बीएसपी 2007 के 206 सीट से घटकर 80 सीटों पर आ गई। 2017 में बीएसपी महज 19 सीटों पर सिमट गई। 2022 के चुनाव में बीएसपी एक सीट जीतने के साथ 13 फीसदी वोट पर सिमट गई।
प्रदेश में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही बसपा को अपनी सुप्रीमों और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के गृह जनपद में भी लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए चेहरों का अकाल पड़ गया है। चुनाव सिर पर हैं, बावजूद इसके बसपा के खेमे में कोई खास हलचल दिखाई नहीं देती। मायावती और बसपा के किसी दूसरे नेता अभी तक कोई चुनावी रैली भी नहीं की है। 2024 के आम चुनाव में बसपा का वोट प्रतिशत और सांसदों की संख्या नहीं बढ़ती है तो पार्टी के लिए सियासी राह मुश्किल हो जाएगी। 2014 में अकेले लड़ने का खामियाजा बसपा भुगत चुकी है। सही मायनो में बसपा के लिए चुनाव का रास्ता मुश्किलों से भरा है। उत्तर प्रदेश की सत्ता पर चार बार काबिज होने वाली मायावती का अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय उनके लिए घातक सिद्ध हो सकता है।