कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा को दिल्ली हवाई अड्डे पर अत्यंत नाटकीय ढंग से गिरफ्तार किया गया,
उनकी ट्रांजिट रिमांड के लिए द्वारका कोर्ट में पेश भी किया गया, लेकिन उसी दौरान सर्वोच्च
अदालत ने उन्हें अंतरिम जमानत भी दे दी। संदर्भ प्रधानमंत्री मोदी के दिवंगत पिता का गलत नाम
लेकर अपमान करने का था। असम पुलिस पवन खेड़ा को गिरफ्तार करने दिल्ली तक आई थी। बड़े
नाटकीय ढंग से खेड़ा को विमान से उतारा गया। फिर गिरफ्तारी की घोषणा के बाद कांग्रेस नेता
हवाई अड्डे के रन-वे के करीब ही धरने पर बैठ गए। बहरहाल अभी यह बवंडर थमा नहीं है, क्योंकि
बदजुबानी और अमर्यादित भाषा का प्रयोग हमारी राजनीतिक संस्कृति बन चुके हैं। इस पूरे परिप्रेक्ष्य
में दिलचस्प और सवालिया यह रहा कि सर्वोच्च अदालत ने कुछ ही मिनटों में खेड़ा का केस सुन भी
लिया और उन्हें जमानत भी दे दी। शीर्ष अदालत में ही 69,000 से अधिक मामले अब भी लंबित हैं।
देश की विभिन्न अदालतों में कुल करीब 7 करोड़ मामले आज भी विचाराधीन हैं। अदालतों में चप्पलें
घिसते न जाने कितनी उम्रें गुजऱ जाती हैं और अंतिम सांस तक इंसाफ नहीं मिल पाता।
यकीनन यह सिर्फ अदालतों पर ही सवाल नहीं है, हमारी पूरी व्यवस्था ही छिद्र वाली है, जिसमें से
‘न्याय’ टपकता रहता है। पवन खेड़ा बेहद भाग्यशाली और अतिविशिष्ट नागरिक साबित हुए कि कुछ
ही मिनटों में उनकी स्वतंत्रता की रक्षा हो गई। देश के आम नागरिक की कौन सुनता है! शीर्ष
अदालत ने जोशीमठ शहर के घरों में दरारें और उनके ढहने की आशंकाओं का मामला सुनने से इंकार
कर दिया था और उन्हें निचली अदालत में जानेे के निर्देश दे दिए थे। बहरहाल खेड़ा को राहत
न्यायिक पीठ की चेतावनी के साथ मिली है। उन्होंने जो भी बयानबाजी की थी, वह जुबान फिसलने
का केस नहीं था, क्योंकि उनके चेहरे के हाव-भाव व्यंग्यात्मक थे, लिहाजा उनकी मंशा भी समझ में
आती है। खेड़ा ने ऐसी बदजुबानी की थी कि उनके वकील एवं कांग्रेस के राज्यसभा सांसद अभिषेक
मनु सिंघवी ने अदालत के सामने उन शब्दों को दोहराना भी नैतिक नहीं समझा। न्यायाधीशों ने
ऑडियो सुना और मामला समझा। खेड़ा के वकील ने अदालत को इतना आश्वस्त जरूर किया कि
उनके मुवक्किल ने पहले भी माफी मांग ली है और अब भी बिना शर्त माफी मांगने को तैयार हैं।
वकील ने यह जरूर कहा कि ऐसे शब्द बोले नहीं जाने चाहिए थे। अदालत ने खेड़ा को चेतावनी दी
कि बयानबाजी और बातचीत स्तर की होनी चाहिए।
शीर्ष अदालत की यह चेतावनी हमारी समूची राजनीतिक बिरादरी के लिए भी है-‘नेताओ! जरा जुबान
संभाल कर बोलें!’ खेड़ा की रिहाई के बाद ही यह चेतावनी काफूर होती लगी, क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष
मल्लिकार्जुन खडग़े ने ही सर्वोच्च अदालत के आदेश को सरकार पर ‘करारा तमाचा’ करार दिया।
उनके बाद पार्टी प्रवक्ता टीवी चैनलों पर बदजुबानी की हदें पार करते दिखाई दिए। दांत पीस-पीस कर
दलीलें देते रहे कि मोदी ने नेहरू-गांधी परिवार के बारे में इतने आपत्तिजनक शब्द कहे हैं, लेकिन उन
पर तो कोई केस दर्ज नहीं किया गया। यहां तक कि संसद में भी अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल
किया गया, लेकिन उन पर कभी आक्षेप नहीं। बहरहाल मौजूदा संदर्भ में कांग्रेस के अधिकृत ट्विटर
हैंडल से भीड़ का एक नारा जारी किया गया है-‘मोदी तेरी कब्र खुदेगी।’ सवाल है कि क्या विरोध की
राजनीति को ‘बदजुबानी’ का कोई लाइसेंस मिला है? अब सुप्रीम कोर्ट क्या कहेगी और क्या कार्रवाई
कर सकती है? कांग्रेस में प्रधानमंत्री मोदी पर निजी हमला करने वाले नेता तो पुरस्कृत होते हैं। अब
पवन खेड़ा भी बड़े नेता बनाए जा सकते हैं। कांग्रेस प्रवक्ता तो सार्वजनिक मीडिया पर प्रधानमंत्री को
‘सीरियल ऑफेंडर’ (क्रमिक हत्यारा) तक कह रहे हैं। उनकी जुबान कौन बंद करवा सकता है? हमारे
देश में एक नेता दूसरे नेता को अकसर नीचा दिखाते हुए गाली-गलौज में लगा रहता है। ऐसा लगता
है जैसे इसके सिवा कोई मुद्दा ही नहीं है। जनता से जुड़े मसले हल किए जाने चाहिए।
वोट बटोरने का साधन बने अपराधी
-योगेंद्र योगी-
राजनीतिक दल वोट बैंक साधने के लिए गैंगेस्टर, माफिया और डकैतों का इस्तेमाल करते रहे हैं। गौ
तस्करी के आरोपियों की निर्मम हत्या के प्रमुख आरोपी मोनू मनेसर सहित अन्य आरोपियों के
मामले में भी यही हुआ। मोनू मनेसर के कई वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए, जिनमें वह
हथियारों का प्रदर्शन करता नजर आता है। इसके अलावा उसके नेताओं के साथ फोटो भी सोशल
मीडिया पर मौजूद हैं। मोनू की गिरफ्तारी नहीं हो, इसके लिए महापंचायत ने फैसला लिया। भिवानी
के लोहारू में दो लोगों की बोलेरो के अंदर जली हुई लाशें मिली थी। दोनों के गौ तस्कर होने का शक
जताया गया था। भिवानी में मोनू के समर्थन में महापंचायत की गई और इस महापंचायत में
राजस्थान पुलिस को यह धमकी दी गई कि वह गांव में कदम तक न रखे। इसमें कहा गया कि यदि
पुलिस ने मोनू मानेसर के खिलाफ किसी भी तरह का एक्शन लिया तो पुलिस अपने पैरों पर वापस
नहीं जा पाएगी। महापंचायत में मोनू मानेसर को हिंदुओं का हितैषी बताया गया। इस मुद्दे पर
हरियाणा और राजस्थान की पुलिस आमने-सामने आ गई। दोनों राज्यों में अलग दलों की सरकारें हैं।
राजस्थान में यह चुनावी साल है। ऐसे में दोनों सरकारों का यही प्रयास है कि मृतकों और उनके
आरोपियों के मामले में एक-दूसरे को दोषी ठहरा कर क्षेत्रीय और जातिगत वोट बैंक को मजबूत किया
जाए। कुख्यात अपराधियों का जाति-संप्रदाय और क्षेत्र विशेष का सहारा लेने का पुराना इतिहास रहा
है। राजनीतिक दल इसका फायदा वोट बैंक के लिए उठाते रहे हैं। जाति और संप्रदायों ने गैंगेस्टर,
माफियाओं और यहां तक कि चंबल के डकैतों तक को शरण प्रदान की है। डकैत चाहे चंबल के रहे हों
या फिर शहरों में रहने वाले अपराधी हों, सबने अपनी-अपनी जातियों, संप्रदाय और क्षेत्रीयता को
अपने बचाव की ढाल के तौर पर इस्तेमाल किया है। इस तरीके के महिमामंडन में अपराधी अपने
जाति या संप्रदाय में रॉबिन हुड की छवि कायम करने के लिए उदार तौर-तरीके अपनाते रहे हैं।
दस्यु सुंदरी रही फूलन देवी ने अपने साथ हुई ज्यादती का बदला सामूहिक हत्याकांड को अंजाम देने
के बाद अपनी जाति में ऐसी ही छवि बनाई थी। इतना ही नहीं, फूलन देवी को इसका राजनीतिक
फायदा भी मिला। उसने समाजवादी पार्टी की टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ कर जीत तक
हासिल कर ली। अपराधों को जातिगत आधार बनाने की कीमत भी फूलन को चुकानी पड़ी। दूसरी
जाति से दुश्मनी के कारण फूलन देवी की हत्या हो गई। माफिया, सरगनाओं और चंबल के डकैतों ने
भी राजनीतिक दलों को मोहरा बनाया है। ऐसे कुख्यात अपराधियों का अपराध का ही नहीं बल्कि
राजनीति का भी लंबा इतिहास रहा है, जिसकी आड़ में उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई न हो सके।
अपने काले कारनामों पर लारेंस बिश्नोई, आनंदपाल, मोनू मानेसर, मुख्तार अंसारी और लवली आनंद
जैसे अपराधियों ने जाति का सहारा लेकर अपराधों के काले कारनामों को गौरवान्वित करने का प्रयास
किया है। ऐसे अपराधी अपनी राबिन हुड की छवि को बनाने का प्रयास करते हैं। जाति के अलावा
इसमें यदि सांप्रदायिक रंग भी मिल जाए तो अपराधी को बचनेे के लिए एक मजबूत सहारा मिल
जाता है। राजनीतिक दलों के लिए ऐसे अपराधी वोट जुटाने और सांप्रदायिक आधार पर वोटों को
ध्रुवीकरण करने का काम करते हैं। जातिगत शरण लेने वाले अपराधी का आधार सिर्फ अपनी जाति
तक सीमित रहता है, जबकि अपराध के बाद सांप्रदायिक आधार पर बांटने से अपराधी के राजनेता
बनने के रास्ते भी खुल जाते हैं। राजनीति का चोला पहन कर सांप्रदायिक घटनाओं को अंजाम देना
ज्यादा आसान होता है। बिहार और उत्तरप्रदेश में कुख्यात माफिया लंबे अर्से तक राजनीतिक कवच
की आड़ में अपराधों की सजा से बचते रहे हैं। हालांकि अब दोनों राज्यों की स्थिति में सुधार है।
उत्तरप्रदेश में भाजपा की योगी सरकार ने मुख्तार अंसारी सहित दूसरे माफिया और गैंगस्टर को
सलाखों के पीछे भेजने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। इतना ही नहीं, ऐसे अपराधियों की सम्पत्ति
कुर्क करने और अतिक्रमण को ढहाने को भी अंजाम दिया गया, ताकि दूसरे अपराधी भी इससे सबक
सीख सकें।
ऐसा ही बिहार में माफियाओं के साथ किया गया। माफियाओं को इस बात का बखूबी एहसास कराया
गया कि जाति, धर्म और क्षेत्र की आड़ लेकर अपराधों पर पर्दा डालना आसान नहीं है। इसके बावजूद
राजनीतिक दल ऐसे कुख्यात अपराधियों की छवि भुनाने में पीछे नहीं हैं। मुख्तार अंसारी के मामले
में एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी योगी सरकार पर संप्रदाय के आधार पर कार्रवाई
करने का आरोप लगा कर अल्पसंख्यकों का वोट बैंक रिझाने का प्रयास करते रहे हैं। ऐसे दुर्दांत
अपराधियों के मामले में पुलिस की हालत कठपुतली की तरह होती है। पुलिस राज्यों सरकारों के
अधीन काम करती है। पुलिस की कार्रवाई राज्य सरकार की मंशा के बगैर नहीं हो सकती। इसका
बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश है। उत्तर प्रदेश की पुलिस ने कई कुख्यात बदमाशों और माफियाओं को ढेर
कर दिया। इतना ही नहीं, पुलिस ने अपना इकबाल इस कदर कायम किया कि कुछ बदमाशों ने तो
जमानत पर जेल से रिहा होने तक से इंकार कर दिया कि कहीं पुलिस उनका एनकाउंटर नहीं कर दे।
पुलिस में यह साहस आया सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति के कारण। यही पुलिस समाजवादी और
बहुजन समाजवादी पार्टी के सत्ता में रहने पर कुछ नहीं कर पाई। इससे जाहिर है कि जब तक पुलिस
को अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करने की पूरी स्वायत्तता नहीं मिलेगी तब तक पुलिस अपनी वर्दी
का खौफ अपराधियों में पैदा नहीं कर पाएगी। राजनीति में अपराधियों की घुसपैठ के कारण
सामाजिक वातावरण बिगड़ता है और पुलिस के लिए अपराधी तत्त्वों के खिलाफ कार्रवाई करना
मुश्किल हो जाता है। डरी हुई पुलिस का अपराधियों में खौफ बनाना मुश्किल कार्य है। इसलिए पुलिस
को राजनीति का संरक्षण मिलना चाहिए।