-डा. रवीन्द्र अरजरिया-
देश में विकृतियां परोसने का दौर शुरू हो गया है। इस दौर के पीछे विदेशों से आने वाले अर्थ का
प्रलोभन, विलासता की आकांक्षा और सम्पत्ति जुटाने की हवस है। अनावश्यक बातों को तूल देकर
सुर्खियां बटोरने का फैशन चल निकला है। कहीं फोटो पर विवाद तो कहीं निजिता पर प्रहार। कहीं
जीवन जीने की शैली पर प्रश्न चिन्ह तो कहीं आस्था के आयामों से हत्याओं का दौर। कहीं संकीर्ण
मानसिकता का परचम तो कहीं स्वार्थ पूर्ति हेतु षडयंत्र। वर्तमान में ऐसे अनगिनत कारक देश की
दिशा और दशा को पतन के गर्त में ले जा रहे हैं। इन सब के पीछे सोचा-समझा षडयंत्र और राष्ट्र
विरोधी ताकतें सतत काम कर रहीं हैं। इस पूरे ताने-बाने में वे लोग शामिल हैं जो सम्पत्ति, सम्मान
और संसाधन की चरम सीमा पर स्वयं का नाम लिखा देखना चाहते हैं। राजनीति का चेहरा निरंतर
कुरूप होता जा रहा है। अपना का लाभ, अपनों का लाभ और अपनी पार्टी का लाभ जैसे तीन सूत्रीय
आदर्श वाक्य अधिकांश दलों के अन्दर अप्रत्यक्ष में तूफानी गति पकड चुके हैं। सीमित समय के लिए
सत्ता के माध्यम से समाज सेवा हेतु सदनों में पहुंचने हेतु ताकतवर लोगों में होड लगी है। सत्ता सुख
के सीमित समय को असीमित और असीमित को परिवार हेतु स्थाई बनाने वाले जहां एक ओर अपने
मतदाताओं के साथ खुलेआम धोखा करते देखे जा रहे हैं वहीं पार्टी से जुडे जमीनी कार्यकर्ताओं को
थोडे में ही उलझाये रखना उनकी फिरत बन चुकी हैं। स्वयं का वर्चस्व, परिवारजनों का रुतवा और
खास सिपाहसालारों का आतंक बढाने वाले खद्दरधारियों ने स्वयं को देश का कर्णधार स्थापित कर
लिया है। विभाग की बारिकियों से अनभिग्य लोगों के हाथों में विभाग की व्यवस्था आते ही
अधिकारियों के पौ-बारह होने लगते हैं। जटिल कानूनों की मनमानी व्याख्याओं को हथियार के तौर
पर उपयोग करके सरकारी महकमों के स्थाई कारिन्दे खजाने का माल व्यक्तिगत तिजोरियों में भरने
में लग जाते हैं। जनप्रतिनिधि तो आयाराम-गयाराम है, उनकी भागीदारी तो केवल संवैधानिक
औपचारिकताओं की अस्थाई पूर्ति के लिए ही होती है। इसी अस्थाई औपचारिकताओं की पूर्ति करने
वाले स्वयं को स्थाई बनाने की जुगाड में तल्लीन हो जाते हैं। चुनावी माहौल में मुफ्तखोरी की
घोषणायें, अनुदान की सूची और सुविधाओं का सब्जबाग दिखाने वाले नेताओं ने आज तक आम
आवाम के सामने कभी भी सरकार के आय के संसाधनों और खर्चों को नियंत्रित करने का खाका पेश
नहीं किया। विकास तो तब होगा जब सरकारी आय बढेगी और आय भी तभी बढेगी जब उत्पादन,
बिक्री और शुल्कों की राशि ईमानदारी से जमा होगी। सरकारी महकमों में कर्तव्यों के प्रति समर्पण,
अनुशासन और राष्ट्र भक्ति होगी। अधिकांश स्थानों पर सरकारी ढांचे को राजशाही की तरह चलाने
वाले लोगों की भीड जमा है। व्यक्तिगत तुष्टिकरण के लिए पदों के दुरुपयोगों की घटनायें आम हो
गईं है। चोर की शिकायत डकैत से करने की लोकोक्ति का व्यवहारिक स्वरूप सामने आ रहा है।
चुनावी घोषणाओं में बेतहाशा वेतन पाने वाले सरकारी तंत्र की सुविधाओं मेें कटौती, टैक्स चोरों पर
नकेल और वास्तविक मजदूर-किसानों तक न पहुंचने वाली सरकारी योजनाओं के दोषियों पर
दण्डात्मक कार्यवाही की बात किसी भी दल के मुख से नहीं निकल रही है। न्यूनतम 6 हजार से
लेकर अधिकतम 15 हजार रुपये में जीवन यापन होने की धरातली स्थिति में भी सरकारी मुलाजिमों
पर पचासों हजार की सरकारी राशि लुटाई जा रही है। बिना अवरोध के भारी भरकम रुपये तनख्वाय
पाने वालों से दैनिक कार्य आख्या मांगी ही नहीं जाती। वे प्रतिदिन कितने बजे आते हैं, इसे अंकित
करने के लिए तो औपचारिक व्यवस्था है परन्तु वे पूरे दिन में क्या और कितना काम करते हैं, इसके
व्यवहारिक स्वरूप की जानकारी लेने वाली कोई भी व्यवस्था नहीं है। राजनैतिक पार्टियों के घोषणा
पत्रों में अव्यवस्थाओं, मनमानियों और मक्कारी पर लगान लगाने वाले बिन्दु आते ही नहीं है। जहां
कांग्रेस का परिवारवाद अब पर्दे के पीछे से सियासती समीकरण बैठाकर असंतुष्टों को बटोरने के साथ-
साथ यात्राओं के माध्यम से देश के विकास का सपना देख रहा है वहीं सरकारी तंत्र की बारीकियों के
जानकार आम आदमी पार्टी के आलाकमान ने मतदाताओं की सब्जबाग देखने की नस को दबाना शुरू
कर दिया है। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी का सनातनी कार्ड तेजी से सामने आ रहा है तो
शिवसेना जैसे दल अपने आदर्श पुरुष के सिध्दान्तों को तार-तार करके सत्ता पाने हेतु समझौतावादी
बन चुके हैं। मुस्लिम समाज की स्वयंभू ठेकदार बनी आल इण्डिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन
पार्टी निरंतर देश के सौहार्दपूर्ण वातावरण में जहर घोलने का काम कर ही है वहीं अनेक पार्टियों के
संस्थापकों की औलादों ने संगठन को विरासती हक मानकर चलाना शुरू कर दिया है। ऐसे में
राजनैतिक दलों के नेताओं की व्यक्तिगत जिन्दगी को खबरें बनाकर परासने का भी क्रम चल निकला
है। एक खास तबके का ध्यानाकर्षित करके टीआरपी, हिट्स आदि के माध्यम से लाभ कमाने का
रास्ता खोजने वाले देशवासियों को मुख्यधारा से निरंतर दूर कर रहे हैं। किसी एक व्यक्ति की कथनी-
करनी को प्रचारित करके उसे भगवान बनाने वाले लोगों के अनेक गिरोह सक्रिय हैं। मुद्दा देश के
विकास का है, मद्दा आम नागरिकों के जीवनस्तर को ऊठाने का है, मद्दा लोगों को राष्ट्रीयता की
मुख्य धारा से जोडने का है, मद्दा विश्व समुदाय का सिरमौर बनने का है, मुद्दा मानवता के आधार
को मजबूत करने का है। मगर ऐसे मुद्दे कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। तुष्टीकरण, लालच और
व्यक्तिगत हितों को अनैतिकता, असंवैधानिकता और अराजकता के माध्यम से परवान चढाने वालों
व्दारा बनाये गये अमानवीय साजिशों के मकडजाल को तोडना होगा तभी देश की अस्मिता को विश्व
के हडपखोरों से बचाया जा सकेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ
फिर मुलाकात होगी।