केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का कुख्यात बयान है कि भारत का ‘रुपया’ गिर नहीं रहा है,
बल्कि डॉलर मजबूत हो रहा है। इस बयान की व्याख्या वही कर सकती हैं, क्योंकि डॉलर के मुकाबले
रुपया लगातार कमजोर हो रहा है। ताज़ा स्तर 83.21 रुपए का है। यानी हमें एक डॉलर चाहिए, तो
उसके लिए 83 रुपए से ज्यादा का भुगतान करना पड़ेगा। जब 2014 में मोदी सरकार आई थी, तब
यह अवमूल्यन 63 रुपए का था। डॉलर की तुलना में इसी साल रुपए में 12 फीसदी से अधिक
गिरावट हो चुकी है, लेकिन वित्त मंत्री इसे रुपए की कमजोरी ही नहीं मानतीं। सरकार के प्रवक्ता
डॉलर के अलावा दूसरे देशों की मुद्राओं से तुलना करने लगते हैं कि वे मुद्राएं ज्यादा कमजोर हुई हैं
और रुपया अपेक्षाकृत ताकतवर है। पूरे देश की जनता को अनपढ़ और बेवकूफ समझते हैं ये सरकारी
पैरोकार! दूसरी तरफ विख्यात अर्थशास्त्री और इस विषय के उम्रदराज प्रोफेसर यह आकलन दे रहे हैं
कि रुपए का यह अवमूल्यन 100 रुपए तक जा सकता है।
इस साल के अंत तक ही डॉलर की कीमत 85 रुपए हो सकती है। इसके बहुआयामी प्रभाव होंगे।
भारतीय रिजर्व बैंक के ही एक विशेषज्ञ का मानना है कि जून, 2024 तक महंगाई से राहत मिलने
के 50 फीसदी आसार हैं। यानी मुद्रास्फीति बढ़ती ही जाएगी, क्योंकि सरकार को आयात बिल का
भुगतान डॉलर में करना पड़ता है। कच्चा तेल या आयातित वस्तुएं भारत को महंगी मिलती हैं,
नतीजतन आम उपभोक्ता को भी महंगी वस्तुएं ही मिलेंगी। यह सिलसिला लगातार जारी है और
स्पष्ट है कि 2024 के आम चुनाव तक भी महंगाई का दौर रहेगा। चूंकि रुपए का अवमूल्यन जारी
है, लिहाजा विश्व की आर्थिक रेटिंग एजेंसियों ने 2022-23 में हमारी आर्थिक विकास दर कम
आंकनी शुरू कर दी है। बेशक यह दर अब भी 6.5 फीसदी के करीब आंकी जा रही है, लेकिन
विशेषज्ञों के आकलन हैं कि हमारी वास्तविक विकास दर कोरोना महामारी से पहले के दौर की दर से
भी कम है। अर्थात यह 4-4.5 फीसदी होनी चाहिए। रुपए के अवमूल्यन का प्रभाव सिर्फ विकास दर
पर ही नहीं पड़ता, बल्कि औद्योगिक उत्पादन की दर भी नकारात्मक और बीते 18 महीनों के निचले
स्तर पर है। उत्पादन प्रभावित होगा, तो रोजग़ार और नौकरियों की संभावनाएं भी धूमिल होंगी। कुल
मिलाकर देश का जीडीपी भी कम होगा। हमारा व्यापार घाटा तो करीब 2 लाख करोड़ रुपए प्रति माह
तक पहुंच चुका है।
यह कोई सामान्य आंकड़ा नहीं है। दरअसल यह अवमूल्यन स्पष्ट करता है कि देश की अर्थव्यवस्था
में कई असंतुलन हैं। बेशक महंगाई, बेरोजग़ारी आदि की दरें बहुत ज्यादा हैं। उत्पादन कम है, तो
मांग भी कम है। बैलेंस ऑफ पेमेंट का भी असंतुलन है। रिजर्व बैंक बाज़ार में डॉलर फेंक चुका है,
नतीजतन रुपए का पतन धीरे-धीरे हो रहा है, लेकिन रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति और सामान्य महंगाई को
नियंत्रित करने में नाकाम रहा है। आयात ज्यादा है और निर्यात काफी कम है और विदेशी निवेश भी
कम हो रहा है, नतीजतन रुपए का अवमूल्यन लगातार जारी है। विदेशी मुद्रा के भंडार में भी कमी
आई है। साल के शुरू में जो भंडार 633 अरब डॉलर का था, वह आज घटकर 532 अरब डॉलर हो
गया है। यह कमी भी चिंताजनक है, क्योंकि हमारा आयात प्रभावित होता है। फिलहाल वैश्विक
आर्थिक परिस्थितियां बदलने वाली नहीं हैं, लिहाजा सरकार और नीति निर्माताओं को सचेत होना
पड़ेगा और अर्थव्यवस्था के जोखि़मों पर मंथन करना होगा। आर्थिक नीतियों के कारण विश्व ब्रिटेन
की प्रधानमंत्री लिज ट्रस का, मात्र 45 दिनों के कार्यकाल के बाद ही, इस्तीफा देख चुका है। ब्रिटेन में
मुद्रास्फीति की दर 11-12 फीसदी के आसपास है। भारत में भी महंगाई है, जिस पर चिंतन जरूरी
है।