-राकेश कुमार वर्मा-
हिन्दी में चिकित्सा शिक्षा पाठ्यक्रम सुनिश्चित कराने के साथ ही मध्यप्रदेश देश का पहला राज्य
बन गया है। केन्द्रीय गृह मंत्री ने इस तथ्य के पक्ष में महात्मा गॉधी के संकल्प को दोहराते हुए
बताया कि मातृभाषा में शिक्षा की व्यवस्था देश की सच्ची सेवा है, इसलिए नई शिक्षा नीति के
तहत क्षेत्रीय और मातृभाषा को महत्व दिया जा रहा है। उन्होंने आशा व्यक्त किया कि मातृभाषा
में चिकित्सा शिक्षा के अध्ययन से भारत विश्व में शिक्षा का बड़ा केन्द्र बनेगा।
भारत एक सघन बहुभाषी देश है जहां वर्ष 2011 की जनगणना प्रक्रिया में मातृभाषाओं की संख्या
19 हजार 569 दर्ज की गई। मातृभाषायी शिक्षा की वकालत के परिप्रेक्ष्य में कोठारी आयोग ने
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 को दोहराया था लेकिन इस दिशा में कोई निर्णायक प्रयास नही
हुआ अन्यथा 50 वर्षों बाद अब इन्हीं तथ्यों को शिक्षा नीति में पुन: दर्ज करने की आवश्यकता
नहीं होती। नीति परिवर्तन के पूर्व हमें समय की चुनौतियों को पहचानने और उनका सामना करने की
तैयारियों के साथ प्रस्तुत होना चाहिये था। चॅूंकि सरकार ने इस दिशा में सतही काम शुरू कर दिया
है तो उसके सकारात्मक परिवर्तन की आशा की जानी चाहिये।
नई शिक्षा नीति की अनुशंसाओं के साथ ही मातृभाषा से शिक्षण का प्रयास शुरू हो गया है। यह नीति
अनेक उपाय सुझाती है जैसे स्थानीय भाषा में पाठ्यसामग्री का निर्माण, बहुभाषी शिक्षण की
व्यवस्था, केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा स्थानीय भाषाओं के जानकार शिक्षकों की
व्यवस्था, क्षेत्रीय प्रोद्योगिकी का उपयोग। इसके साथ ही विज्ञान और गणित की पाठ्य सामग्री
यथांसभव द्विभाषी बनाई जायेगी जिसमें एक भाषा अँग्रेजी भी होगी। निश्चित ही यह नीति भारतीय
जनमानस से औपनिवेशिक पहचान को स्थानीयकरण के मजबूत सैद्धांतिक आधार तैयार करने में
सक्षम होगी। क्योंकि भारत में
वैज्ञानिकाश्च कपिल: कणाद: शुश्रुस्तथा। चरको भास्कराचार्यो वराहमिहिर सुधी।।
नागार्जुन भरद्वाज, आर्यभट्टो वसुर्वध्:, ध्येयोवेंकट रामश्चविजा रामानुजाय:।।
को चरितार्थ करता विज्ञों की समृद्ध परम्परा रही है, लेकिन भूमण्डलीकरण के इस परिदृश्य में
चरक, पतंजलि और बाग्भट्ट के पारम्परिक सिद्धान्तों का अनुकरण आसान नहीं होगा। इस
संबंध में विशेषज्ञों का मानना है कि हिन्दी में एमबीबीएस की शिक्षा के लिए चिकित्सा शब्दावली
का हिन्दी में अनुवाद सहित अभी बड़ी तैयारियों की आवश्यकता है। वर्तमान जारी नवीन पुस्तकों
में देवनागरी जैसे लेखन में अभी ‘र’ अक्षरों के प्रयोग को लेकर कई विसंगतियां आने की संभावना है।
राज्य सरकार ने हिन्दी में चिकित्सा पाठ्यक्रम तैयार करने का दायित्व हिन्दी विश्वविद्यालय
को सौंपा है लेकिन इसमें विशेषकर आदिवासी विद्यार्थियों को इसका लाभ पहुंचाने के लिए विशेष
प्रयास की आवश्यकता है।
इस संबंध में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डाक्टर भरत छपरवाल की धारणा है
कि विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध क्षेत्र में अद्यतन प्रगति के साथ गुणवत्तापूर्ण पाठ्यपुस्तके हैं।
ब्रिटिश मेडीकल जर्नल और न्यू इंग्लैंण्ड जर्नल जैसी गुणवत्ता वाली मेडीकल पत्रिकाओं में
प्रकाशित शोध लेखों को पाठ्यपुस्तकों में स्थान पाने के लिए न्यूनतम चार साल लग जाते हैं।
अर्थात सरकार ने इस घोषणा से पहले पर्याप्त तैयारी नहीं की। चूंकि जापान, फ्रांस, चीन रूस जैसे
देशों ने अपनी मूल भाषा में चिकित्सा शिक्षा के लिए सदियों से शोध कर एक समृद्ध पाठ्यक्रम
सामग्री विकसित की है, इसलिए वहा इस प्रकार की नीति सफल है।
विविध् कटिबंध और उससे प्रभावित जीवनशैली के बावजूद दुनिया एक मोहल्ले में परिवर्तित हो गई
हो तो ऐसे में चिकित्सा और सैन्य जैसे क्षेत्रों में एक मानक यूनिफार्म स्वरूप सुरक्षात्मक कवच
आवश्यक हो जाता है। जिस प्रकार संघ की शाखा पद्धति का विश्वभर में संस्कृत यूनिफार्म है।
इस परिप्रेक्ष्य में भाषा की एकरूपता वाली सुरक्षात्मक दीवार को गिराना ‘नीम हकीम खतरे जान’
जैसी विसंगतियों का नासूर बन सकती हैं। भारत जैसे देश में इसका खतरा और बढ़ जाता है। शायद
इसीलिए विज्ञापन के तारतम्य में भारतीय चिकित्सा परिषद ने जहॉं स्वास्थ्य से संबंधित दवा
के प्रति उदारता बरती वहीं उपचार संबंधी दवाओं के विज्ञापन के प्रति कठोरता दिखाते हुए उसे
गैरकानूनी बताया। उदाहरण के लिए अतिअम्लता से उत्पन्न उदरशूल से निजात पाने के लिए
प्राय: ‘एण्टासिड’ दवा का उपयोग किया जाता है लेकिन इसके सहदुष्परिणाम से होने वाले
ध्वजपतन (यंत्रयोग विकार) हमारे दाम्पत्य जीवन को प्रभावित करता है। वैश्वीकरण के इस युग
में अंतर्राष्ट्रीय प्रतिमानों के अनुरूप किसी जटिल शल्य क्रिया पर एक देश का चिकित्सक अन्य
देश के चिकित्सकों की सहायता प्राप्त करता है, ऐसे में यह नीति कहॉं तक कारगर होगी, कह
पाना मुश्किल है।
हालांकि बाजारवाद के युग में एलोपैथी चिकित्सा विश्व के संपूर्ण अर्थतंत्र को प्रभावित करता है।
भारत के बड़े बाजार पर छद्मरूपों से अभी भी यह एकाधिकार बनाये हुए है। ज्ञान अपरिमित है
इसके दोहन के लिए परस्पर अनुकरण से हम जीवन को समुन्नत बनाते हैं लेकिन जब हम अपनी
श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए अन्य मापदण्डों की उपेक्षा करने लगें तो उससे हमारा अहंकार बढ़ता
है। इसलिए आरएक्स को यथावत रख भाषा को फासिस्ट मानसिकता के दोष से मुक्त रखना
श्रेष्यकर होगा। चिकित्सकों द्वारा ओपीडी पर्चों पर अँग्रेजी में लिखी दवाओं को अधिकृत भेषज्ञ नही
बल्कि सरकारी स्कूलों से यदाकदा बारहवी पढ़कर आये अपात्र व्यक्ति ही वितरित करते हैं। ऐसे में
सरकार द्वारा झोलाछाप डाक्टरों के निर्मूलन के लिए किया गया अब तक का प्रयास सर्पशिशुओं की
तरह सहसा शतगुण होकर हाल ही में पनपे खांसी की दवा से मारे गये 66 अफ्रीकी बच्चों जैसे हश्र
की पुनरावृत्ति नहीं करेगा? किसी व्याधि के लिए हिन्दी में लिखी दवाओं की समग्र पुनरावृत्ति के
दुष्परिणामों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस व्यवस्था से चिकित्सक और रोगी के
बीच स्थापित कल्याणकारी विस्थापन भंग होने से सामाजिक व्यवस्था प्रभावित होगी।
अँग्रेजी सिर्फ सत्ता, प्रतिष्ठान, ज्ञान विज्ञान और शिक्षा के माध्यम में नहीं बल्कि भूमंडलीकरण
के बाद से तो देश में यह मध्यमवर्गीय समाज के सपनों में शामिल हो चुकी है। यही कारण है कि
न्यूनतम और द्वितीयक संसाधनों के साथ अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय सुदूर क्षेत्रों में कुकुरमुत्तों
की तरह फैल रहे हैं। ऐसे में यह नीति इन विद्यालयों पर किस तरह बंधनकारी होगी जिससे
स्थानीय भाषाओं को प्राथमिकता मिले। क्योंकि देश की सभी भाषायें राष्ट्रीय हैं इसलिए इनका
उन्नयन हमारा कर्तव्य है। दूसरी तरफ देश में निजी विद्यालयों का बढ़ता बाजार और उन्हें
पोषित करने वाले सरकारी और राजनीतिक परंपराओं ने जो परिवेश तैयार किया है उसमें भाषा और
संस्कृति से अधिक चिन्ता पूँजी निर्माण की रही है। ऐसी स्थितियों में मातृभाषा में शिक्षण की
कसौटी को किन मूल्यों पर निर्धारित किया जायेगा यह विचारणीय है। प्रसिद्ध अमरीकी
मानवविज्ञानी फ्रांज बोआज ने कहा है कि अगर परंपरा के रूप में अपने ऊपर थोपी गई बेडि़यों को
हम पहचान पाऍं तो ही उन्हें तोड़ सकने में समर्थ हो सकते हैं।
निश्चित ही यह नीति राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रति हमे सजग करती है लेकिन इसका अनुपालन न
सिर्फ सरकारों की दृढ़ इच्छा और दूरदर्शिता पर निर्भर करेगा बल्कि संपूर्ण समाज को इस चुनौती
का सामना करने के लिए प्रतिबद्धता दिखानी होगी।