सरसंघचालक मोहन भागवत कई बार जनसंख्या नियंत्रण का मुद्दा उठा चुके हैं। कभी समीक्षा के
तौर पर, तो कभी समग्र नीति बनाने के आग्रह के साथ वह जनसंख्या पर अपनी चिंता और उससे
जुड़े सरोकार जता चुके हैं। जब भी आरएसएस प्रमुख ने ऐसा कोई वक्तव्य दिया है, तो उनके विरोधी
मुस्लिम दलियों ने सवाल उठाए हैं कि क्या भागवत भारत सरकार का हिस्सा हैं? या वह मोदी
सरकार के सलाहकार हैं? अथवा केंद्र सरकार के संचालक हैं? दरअसल ये सवाल बेमानी और दुराग्रही
हैं। जनसंख्या की समस्या को हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से नहीं देखना चाहिए। बेशक भारत में
जनसंख्या-विस्फोट के हालात अब नहीं हैं। औसतन प्रजनन दर 2.1 के करीब स्थिर-सी लगती है,
लेकिन आबादी की गति उसी तरह टिक-टिक कर बढ़ती जा रही है, जिस तरह ‘टाइम बम’ फटने से
पहले आवाज़ करता है। भारत के संसाधन भी सीमित हैं। विश्व की करीब 2.45 फीसदी ज़मीन भारत
के हिस्से में है, जबकि सिर्फ 4 फीसदी जल उपलब्ध है, लेकिन विश्व की 16-18 फीसदी जनसंख्या
भारत में है। क्या ये समीकरण हमें भयभीत नहीं करते? क्या बढ़ती आबादी को हम सहजता से
खिला-पिला सकते हैं? उसका सही भरण-पोषण कर सकते हैं? उसे बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और
स्वच्छ पेयजल मुहैया करा सकते हैं?
ऐसे कई सवाल जेहन में उभर सकते हैं। सरसंघचालक भागवत ने सलाह दी है और देश का प्रत्येक
जागरूक नागरिक भी यह सुझाव दे सकता है कि जनसंख्या-नियंत्रण पर समान और व्यापक नीति
तैयार की जानी चाहिए। समान नीति हरेक समुदाय पर समान रूप से लागू होगी। इसे मुसलमानों को
निशाना बनाकर, उनकी आबादी कम करने की, सरकार या संघी कोशिश न समझा जाए। जनगणना
के जो आंकड़े उपलब्ध हैं, उनके मुताबिक 2019-20 के दौरान हिंदुओं की औसत प्रजनन दर 1.94
रही है, जबकि मुसलमानों में यह 2.36 थी। अंतर बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन भारत की कुल
आबादी 142.1 करोड़ को छू चुकी है, जबकि चीन 142.6 करोड़ की आबादी के साथ पहले स्थान
पर है। विश्लेषण बता रहे हैं कि 2025 में भारत की जनसंख्या दुनिया में सर्वाधिक होगी और 2048
में हम 150 करोड़ के आंकड़े को पार कर जाएंगे। हैरान करने वाला तथ्य यह है कि 2100 में भारत
की आबादी घटकर करीब 109 करोड़ रह जाएगी। फिलहाल वक्त का सरोकार यह है कि जनसंख्या
के असंतुलन को ठीक किया जाए। शहर और गांव के बीच यह असंतुलन अब भी भयावह है। व्यक्ति
मजदूर है, गरीब है, झुग्गी-झोंपड़ी में रहने को विवश है, अनाज के लिए सरकार पर आश्रित है,
लेकिन बच्चों की भीड़ पैदा कर रहा है।
इस असंतुलन को दुरुस्त करना जरूरी है। भागवत का सुझाव है कि धर्म पर आधारित जनसंख्या पर
भी ध्यान देने की जरूरत है। जनसंख्या का असंतुलन भौगोलिक सीमाओं को भी बदल सकता है।
उन्होंने उदाहरण दिया कि जनसंख्या का संतुलन बिगडऩे से इंडोनेशिया से ईस्ट तिमोर, सूडान से
दक्षिण सूडान और सर्बिया से कोसोवा नाम के नए देश बन गए। सरसंघचालक के आगाह को
समझना चाहिए। हमारे देश में जनसंख्या अथवा हिंदू-मुसलमान के नाम पर कई विरोधाभास भी हैं।
संघ प्रमुख तो हम सब भारतीयों का ‘डीएनए’ समान मानते हैं और जनसंख्या-नियंत्रण की भी बात
करते रहे हैं, लेकिन कथित हिंदूवादी साधु-संत और साक्षी महाराज सरीखे सांसद 5-8 बच्चे पैदा करने
के आह्वान करते रहे हैं। इस विरोधाभास का इलाज क्या है? हालांकि ऐसे आह्वान करने वालों का
आरएसएस से कोई सीधा संबंध नहीं है, लेकिन सांसद तो भाजपा के हैं। साधु-संतों का समर्थन भी
संघ परिवार करता आया है। आखिर किस सत्य को स्वीकार किया जाए? यदि 2100 में हमारी
आबादी घटकर 109 करोड़ तक लुढक़ सकती है, तो वह स्थिति भी चिंतनीय है, क्योंकि हमारी
आबादी देश का ताकतवर श्रम-बल और विराट मानव-संसाधन भी है। बहरहाल, जनसंख्या की समस्या
भी उतनी ही गंभीर है, जितनी गरीबी, महंगाई, बेरोजग़ारी की समस्याएं हैं।