-अरुण कुमार डनायक-
कलकत्ता में जिन्ना की सीधी कार्रवाई का सबसे ज्यादा असर हुआ था। पहले हिन्दू विरोधी दंगे हुए
और लगभग पांच हजार लोग मारे गए, जवाब में हिंदुओं ने भी उग्र हिंसात्मक प्रदर्शन किए और
मुसलमानों का कत्लेआम किया। नफरत और हिंसा का उत्तर तो प्रतिहिंसा ही है, ऐसा एक बार फिर
सिद्ध हुआ और पूर्वी बंगाल में नोआखली, जहां अस्सी प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी थी, हिन्दू
विरोधी दंगे भडक़ उठे। इन दंगों को शांत कराने गांधीजी वहां गए और लगभग चार महीने तक वहां
के ग्रामीण इलाकों का भ्रमणकर कौमी एकता स्थापित करते रहे। अपना मिशन पूर्ण कर जब वे एक
बार फिर नोआखली की यात्रा की योजना बना रहे थे तब उन्हें लगातार बिहार की बिगड़ती स्थितियों
के संदेश मिल रहे थे। कलकत्ता में हुई सीधी कार्रवाई का दुष्परिणाम नोआखली में हिंदुओं का
कत्लेआम था, तो नोआखली की घटनाओं ने बिहार को सांप्रदायिकता की आग में धकेल दिया था।
यद्यपि बिहार में कांग्रेस के नेतृत्व वाली राज्य सरकार काम कर रही थी, केंद्र से भी अनेक नेताओं
ने बिहार की स्थिति को काबू करने के लिए दौरे शुरू कर दिए थे। पंडित नेहरू तो स्वयं बिहार आए
और उन्होंने मुसलमानों को आश्वस्त करने का सफल प्रयास किया, लेकिन हिन्दू विद्यार्थियों द्वारा
किए गए विरोध प्रदर्शन से एक बार फिर मुसलमान दहशत में आ गए। मुस्लिम नेताओं को भय था
कि यदि स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी तो मुसलमानों का सफाया कर दिया
जाएगा। केवल गांधीजी ही मुसलमानों के मन से इस भय को दूर कर सकते हैं, ऐसा अनेक मुस्लिम
नेताओं का मानना था। गांधीजी ने भी बिहार जाना तय किया और वे 02 मार्च 1947 को हावड़ा से
पटना के लिए रवाना हो गए।
पटना में उनसे मिलने वालों ने उन्हें जो जानकारियां दीं उससे वे काफी व्यथित हुए। डाक्टर राजेन्द्र
प्रसाद ने भी उन्हें बताया कि मुसलमानों के आर्थिक विरोध का आह्वान किया जा रहा है। दोनों
नेताओं का यह मत था कि हिन्दू और मुस्लिम समुदाय एक दूसरे से गुंथे हुए हैं। हिंदुओं में विवाह
अगर ब्राह्मण करवाता है, तो चूडिय़ां मुस्लिम फेरी वाले देते हैं, नाई और हज्जाम मुसलमान हैं और
इनके सहयोग के बिना हिंदुओं का सबसे पवित्र संस्कार विवाह तक नहीं हो सकता। ऐसे में दोनों को
अलग कर देना किसी जिंदा आदमी के हाथ-पैर काटकर अलग कर देना होगा। गांधीजी ने डाक्टर
राजेन्द्र प्रसाद को सलाह दी कि यदि सभी लोग सहज निष्ठा से सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित करने में
जुट जाएं तो एक बार फिर चंपारण जैसा चमत्कार हो सकता है। गांधीजी के सामने एक और चुनौती
थी- नौआखली में जब कोई दंगा-पीडि़त हिन्दू उनके पास आकर अपना दुख सुनाता तो गांधीजी उस
व्यक्ति को रोने-कलपने पर उलाहना देते हुए ईश्वर पर विश्वास रखने और आत्म-बलिदान का पाठ
पढ़ाते थे, लेकिन बिहार में मुसलमानों को उन्होंने ऐसी सलाह नहीं दी क्योंकि यहां उन्हें अभी
मुसलमानों की असंदिग्ध दोस्ती और विश्वास को जीतना बाकी था। ऐसे में उलाहने को उनकी
हृदयहीनता मानी जाती।
गांधीजी का मत था कि वे हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के बीच समान रूप से लोकप्रिय हैं। उन्होंने
अपने लंबे राजनीतिक जीवन में दोनों संप्रदायों के बीच कभी भी भेदभाव नहीं किया था। उनका यह
विश्वास सही भी था। उनकी बात मुसलमान 1920 से मानते आ रहे थे और भारत की आजादी के
लिए चलाए जा रहे विभिन्न आंदोलनों में बढ़-चढक़र हिस्सा ले रहे थे। लेकिन 1942 में ‘भारत छोड़ो
आंदोलन’ के समय जब कांग्रेसी नेता जेल में बंद थे, तब जिन्ना की मुस्लिम लीग को मुस्लिमों के
बीच घुसपैठ का अवसर मिला। जिन्ना बहुसंख्य मुसलमानों को यह समझाने में कामयाब रहे कि
गांधीजी हिंदुओं के नेता हैं तथा मुस्लिम लीग ही मुसलमानों की सच्ची हितैषी है। यही अविश्वास
सांप्रदायिक दंगों के मूल में था और गांधीजी उस विश्वास को पुन: हासिल करना चाहते थे। गांधीजी
ने बिहार में भी गांव-गांव घूमकर, प्रार्थना सभा के माध्यम से, विभिन्न विचारधारा के प्रतिनिधियों से
मुलाकात कर कौमी एकता स्थापित करने की कोशिश शुरू कर दी। उन्होंने कांग्रेस के उन कार्यकर्ताओं
से, जिन पर दंगों में भाग लेने का आरोप था, अपना दोष खुले मन से स्वीकार करने का आग्रह
किया। गांधीजी जब बिहार पहुंचे तब तक यद्यपि हिंदुओं के मन से प्रतिशोध की भावना तो शांत हो
चुकी थी, पर सारा वातावरण अराजकता, हिंसा और घृणा से भरा हुआ था। गांधीजी की प्रेरणा से
हिंदुओं ने मुस्लिमों के पुनर्वास व राहत शिविरों में सहयोगी का दायित्व निभाने में मदद की और
राहत कोष में खुले हृदय से दान भी दिया। मुस्लिम लीग राहत शिविरों के संचालन में अड़ंगेबाजी कर
रही थी और मुसलमानों को भडक़ाकर बंगाल में या फिर मुस्लिम बहुल इलाकों में बस जाने हेतु
प्रेरित कर रही थी। गांधीजी नागरिकों के किसी भी स्थान में बसने की सुविधा के पक्षधर थे और
बिहार में अक्सर कहते भी थे कि नागरिकों को अपनी पसंद के स्थान में बस जाने से रोका नहीं जा
सकता।
मुस्लिम लीग की योजना थी कि मुसलमानों को ऐसी जगह भेज दिया जाए जहां उनकी आबादी
अधिक हो, लेकिन गांधी इस योजना के सख्त खिलाफ थे। दूसरी ओर, झारखंड, मध्यभारत के बस्तर
और उससे सटे हैदराबाद में अलगाव के बीज फैलाकर भारत के एक बड़े भूभाग को पाकिस्तान में
मिलाने की मुस्लिम लीग की सोच थी। मुस्लिम लीग की दूसरी मांग, जिससे गांधी जी को सख्त
ऐतराज था, वह थी मुसलमानों को हथियार देने की मांग। जब गांधीजी के सामने मुस्लिमों को
विस्थापित करने का प्रस्ताव मुस्लिम लीग के नेताओं ने प्रस्तुत किया तो उन्होंने इसे सिरे से नकार
दिया और अपना जोर इस दिशा में लगाया कि हिंदुओं का हृदय परिवर्तन कर उन्हें दंगा पीडि़त
मुसलमानों को उनके ही घरों में बसाने के लिए प्रेरित किया जाए। गांधीजी को अपने इस मिशन में
पर्याप्त सफलता मिली और इस प्रकार उनकी सद्भावना और सर्वधर्म समभाव की नीति ने भारत के
एक बड़े भूभाग को पाकिस्तान में मिलाने की कोशिश को ध्वस्त कर दिया। गांधीजी अप्रैल के प्रथम
पखवाड़े में दिल्ली में रहे, ताकि नवनियुक्त वाइसराय से मुलाकात कर सकें। वे एक बार फिर अप्रैल
में बिहार आए, 24 मई 1947 तक वहां रहे और फिर दिल्ली चले गए जहां एक नई भूमिका उनका
इंतजार कर रही थी। गांधीजी के बिहार प्रवास की एक घटना, जब एक रोज सुबह की सैर से वे लौट
रहे थे तो रास्ते में एक बुजुर्ग, अंधा भिखारी उनसे मिलने के लिए खड़ा था। गांधीजी को देख पाने में
असमर्थ भिखारी ने अपने चार आने उनके चरणों में रख दिए जो उसने भीख मांगकर एकत्रित किए
थे। यह उस कोष के लिए उसका सहयोग था जो गांधीजी ने बिहार के पीडि़त मुसलमानों के कष्ट
निवारण के लिए शुरू किया था। हर्ष से भरे गांधी जी ने कहा कि इस व्यक्ति ने अपना सर्वस्व दान
में दिया है, यह दान तो चार करोड़ रुपए के बराबर है। उन्होंने प्यार से भिखारी की पीठ थपथपाई
और उससे भीख मांगना छोड़ देने को कहा। साथ ही गांधीजी ने अपनी मंडली के एक सदस्य से कहा
कि यदि सूरदास कातना सीखने को तैयार हैं तो उन्हें एक तकली दे दी जाए और यदि यह संभव
नहीं हो तो पटना के सदाकत आश्रम में उसे अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए कोई योग्य काम दे
दिया जाए।