-कुशल कुमार-
गांधी जैसा अढ़ाई घड़ी का जीवन भी मिले तो बहुत है। मेरी मां यह हिमाचली पहाड़ी उक्ति अक्सर
सुनाया करती थी। महात्मा गांधी जी के प्रति आम लोगों के दिल में कितना सम्मान, प्यार, आस्था
और विश्वास था। उनकी एक आवाज पर लोग सडक़ों पर निकल आते थे। इसके चलते कांग्रेस एक
पार्टी से ऊपर उठ कर एक जन आंदोलन बन गई थी। यह जन आंदोलन एक प्रमुख कारण था
जिसके कारण अंग्रेजों को न केवल भारत बल्कि अपनी सभी कॉलोनियों को आजाद करने के लिए
मजबूर होना पड़ा। इसके बावजूद किसी भी व्यक्ति के लिए गांधी जी से पूरी तरह सहमत होना
मुश्किल है और उससे भी मुश्किल है उनसे असहमत होना। यह दुविधा उनके साथियों में भी थी।
उनको लेकर लोगों में कई तरह की भ्रांतियां और असहमतियां रही हैं, जो समय के साथ और बढ़ती
जा रही हैं। अब तो ऐसा लगता है कि हमने अपने सामाजिक जीवन से उन्हें उनकी सोच और विचारों
के साथ हाशिए में डाल दिया है। सच में मजबूरी का नाम गांधी की तर्ज पर साल में दो बार उन्हें
रस्मी तौर पर याद किया जाता है। आज उनसे ज्यादा उनका हत्यारा चर्चित है।
मैं गांधी जी को आम उपलब्ध जानकारियों, धारणाओं और उनकी किताबें ‘सत्य के प्रयोग’ और ‘हिंद
स्वराज’ के माध्यम से समझने की कोशिश करता रहा हूं। इनके बारे में महान वैज्ञानिक अल्बर्ट
आइंस्टीन ने कहा है कि ‘भविष्य की पीढिय़ों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि
हाड़ मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति धरती पर आया था।’ सच में ऐसा ही हुआ है। लोगों को थप्पड़
वाली उनकी उक्ति अहिंसा का उदाहरण कम और मजाक अधिक लगती है। अहिंसा, सत्य और प्रेम
के जिस मार्ग पर उनके साथ पूरा राष्ट्र चल पड़ा, अद्भुत है। गांधी नाम के जिस झंझावात ने पूरी
दुनिया को झकझोर कर रख दिया था, आज उस पर कौन विश्वास कर सकता है। उन्हें ज्यादातर
महात्मा के नाम से ही संबोधित किया जाता है। सच में वे राजनेता कम और संत ज्यादा थे।
परंतु उन्हें किसी परम आध्यात्मिक ज्ञान और सत्य की तलाश नहीं थी। वे आम आदमी की पीड़ाओं
और दुखों का आध्यात्मिक नहीं बल्कि सामाजिक और राजनीतिक हल खोज रहे थे। वे मानव को
मुक्ति नहीं जीवन देना चाहते थे। एक ऐसा जीवन जिसमें कोई ऊंच-नीच, भेदभाव, शोषण और
असमानता न हो। उनका दृढ़ विश्वास था कि अहिंसा, प्रेम और सत्य के मार्ग पर चल कर यह
हासिल किया जा सकता है। वे सत्य के पथिक थे और उन्हें सत्य के साथ कोई समझौता मंजूर नहीं
था, परंतु वे अपने सत्य को किसी पर जोर-जबरदस्ती थोपना नहीं चाहते थे। वे एक धार्मिक व्यक्ति
थे और सभी धर्मों को समान मानते थे। वे जिस हिंदू धर्म में जन्मे थे, उससे बहुत प्यार करते थे,
परंतु इसकी कमियों के सक्रिय विरोधी थे। जिस मंदिर में उनका आखिरी आदमी नहीं जा सकता था,
वहां वे भी जाना नहीं चाहते थे। वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे और पतित पावन
रघुपति राघव राजाराम उनके प्रिय भजन थे। वे सत्य, प्रेम और प्रजा वात्सल्य तो राम से लेते हैं, पर
उनके मार्ग में अहिंसा के लिए कोई स्थान नहीं था। यह तथ्य है कि लगभग सभी लोग अपने-अपने
धर्मों की छतरियों में बंधे रहते हैं और जो धर्म को नहीं मानते हैं, वे भी अपनी नास्तिकता और
विचारधाराओं से बंधे होते हैं। दूसरे धर्मों और विचारों को मानने वाले लोगों को अपनी छतरी में लाने
की रक्तरंजित प्रतिद्वंद्विता सदियों से चलती आ रही है। आज भी मानवता इससे जूझ रही है।
गांधी जी इन सब में उलझना नहीं चाहते थे। वे जानते थे कि इनसानों पर धर्मों की बेडिय़ों की
जकडऩ, पकड़ इतनी मजबूत है कि उनके लिए इसके दायरे से बाहर आना असंभव है। उनका विश्वास
था कि सभी धर्मों में शुभ सगुण पक्ष होता है जो इनसान को बेहतर इनसान बनाता है। गांधी जी
इसी इनसान को संबोधित थे जबकि हम आज भी अपने-अपने कपड़ों, चोटियों और दाडिय़ों के प्यार
में उलझे हैं। उनके साथ यह बड़े मजे की बात है कि कोई भी उनको अपना नहीं मानता है। वे सबके
थे, पर उनका कोई नहीं था। सब उनको संदेह की नजर से देखते हैं। सभी को लगता है कि वे उसके
प्रतिद्वंद्वी धर्म के हितैषी थे। यह स्वाभाविक है, अहिंसा, प्रेम, सत्य के जिस मार्ग पर गांधी जी
चले, आसान नहीं है। कबीर पहले ही बता गए हैं कि प्रेम के ढाई आखर सबके बस की बात नहीं है
और जिगर मुरादाबादी तो कहते हैं, आग का दरिया है और डूब के जाना है। सच, मेरी मां सच कहती
थी गांधी जैसा जीवन सबके बस की बात नहीं है।