–कुलदीप चंद अग्निहोत्री-
दिल्ली में इंडिया गेट के सामने राष्ट्रपति भवन है। इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन तक की दूरी पैदल
कुछ मिनटों में पूरी की जा सकती है। लेकिन राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने से पहले उत्तरी ब्लाक और
साउथ ब्लाक आते हैं। इन दोनों ब्लाक से भारत का शासन चलता है। यह सारी व्यवस्था अंग्रेज़ों ने
कर रखी थी। उन दिनों इंडिया गेट की छतरी के नीचे इंग्लैंड के राजा जार्ज पंचम का बहुत बड़ा बुत
लगा हुआ था और गेट की दीवारों पर उन भारतीय सैनिकों के नाम लिखे हुए थे जो अंग्रेज़ी साम्राज्य
की मज़बूती के लिए विश्वयुद्धों में मारे गए थे। इंडिया गेट से नाक की सीध में चलते हुए जो
विशाल भवन आता था, वहां इंग्लैंड के राजा का प्रतिनिधि वायसराय रहता था। भवन को भी
वायसराय भवन ही कहा जाता था। इस मार्ग की नाम भी इंग्लैंड सरकार ने किंग्सवे रखा हुआ था।
यानि राजा का रास्ता। लेकिन एक दिन इंग्लैंड को हिन्दुस्तान छोड़ कर भागना पड़ा। उसके भागने के
अनेक कारणों में से एक मुख्य कारण यह था कि उसी फौज ने, जिसके सैनिकों ने अंग्रेज़ी साम्राज्य
के लिए विश्व युद्धों में यूरोप के सुदूर देशों में अपने प्राणों की आहुति दी थी, अनेक स्थानों पर
अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह करना शुरू कर दिया था। आज़ाद हिंद फौज उसी का परिणाम था। मुम्बई
में जल सेना में विद्रोह के संकेत मिलने शुरू हो गए थे। भारतीय सैनिकों में, जो अब तक ‘लांग लिव
दि किंग’ का यह घोष करते हुए अंग्रेज़ों के साम्राज्य के लिए लड़ते थे, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की
प्रेरणा से नई चेतना जागृत होने लगी थी और लाँग लिव दी किंग के स्थान पर भारत माता की जय
का नारा लगने लगा था। इंग्लैंड समझ गया था कि अब हिन्दुस्तान पर ज्यादा देर राज नहीं किया
जा सकता।
उन्होंने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का क्या किया, यह आज तक रहस्य बना हुआ है। लेकिन नेता जी
ने जो आग लगा दी थी, उसको बुझाने की अब उनमें ताक़त नहीं रह गई थी। इंग्लैंड ने अपना
बोरिया बिस्तर समेट लिया। अब इंडिया गेट की छतरी के नीचे खड़े इंग्लैंड के राजा के बुत का,
वायसराय भवन में रह रहे उसके प्रतिनिधि का और दोनों को जोडऩे वाले किंगजवे का क्या किया
जाए, यह बड़ा प्रश्न था। नेता जी सुभाष चन्द्र बोस होते तो अलग बात थी, लेकिन उनका तो अता-
पता नहीं था। ब्रिटिश सरकार की मानें तो उनकी मृत्यु हो चुकी थी, लेकिन अन्य अनेक सूत्र कह रहे
थे कि वे मित्र राष्ट्रों की जेल में हैं। नए शासकों को उनकी खोज ख़बर लेने में रुचि नहीं थी। मोटी
बात यह कि वे इस ऐतिहासिक अवसर पर उपस्थित नहीं थे। मामला जवाहर लाल नेहरु और उनके
साथियों के हाथ में था। जार्ज पंचम की पत्थर की मूर्ति, जि़न्दा वायसराय और दोनों को जोडऩे वाले
किंग्जवे का क्या किया जाए? एक सीधा और आसान तरीक़ा था जो ऐसे अवसर पर आम आदमी
करता है। दोनों को सही सलामत उनके अपने देश इंग्लैंड भेज दिया जाए और रास्ते का नाम बदल
दिया जाए। लेकिन यह तो आम आदमी करता है।
जवाहर लाल नेहरु तो आम आदमी थे नहीं। वे इंग्लैंड से पढक़र आए थे। उन्होंने कहा तीनों
हिन्दुस्तान में ही रहेंगे। इन्होंने हिन्दुस्तान के लिए बहुत कुछ किया है। जार्ज पंचम भी इंडिया गेट
पर रह कर हमें प्रेरणा देते रहेंगे और वायसराय, जो उस समय लार्ड माऊंटबेटन थे, वे भी भारत का
मार्गदर्शन पूर्ववत करते रहेंगे। अलबत्ता अब वे भारत के वायसराय नहीं बल्कि गवर्नर जनरल
कहलाएंगे। जहां तक किंग्जवे का सवाल है उसका नाम भी वही रहेगा परन्तु उसे अब अंग्रेज़ी में न
लिख कर हिन्दी में राजपथ लिखा जाएगा। इसलिए जार्ज पंचम भी डटे रहे। अंग्रेज़ों के चले जाने के
बाद भी नेहरु की कृपा से लार्ड माऊंटबेटन वायसराय भवन में डटे रहे। नेहरु के इसी व्यवहार को
देखते हुए इंग्लैंड की महारानी के भारत आने पर नागार्जुन ने लिखा था, आओ रानी, हम ढोएंगे
पालकी, यही हुई है राय जवाहरलाल की रफू करेंगे फटे-पुराने जाल की यही हुई है राय जवाहरलाल
की आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी! आओ शाही बैंड बजाएं, आओ बंदनवार सजाएं, ख़ुशियों में डूबे
उतराएं, आओ तुमको सैर कराएं, उटकमंड की, शिमला-नैनीताल की आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी!
लेकिन देश भला जवाहर लाल की राय से कितनी देर चलता? जल्दी से लार्ड माऊंटबेटन को दिल्ली
से चलता किया गया। यह अलग बात है कि माऊंटबेटन मरने से पहले तक पूछता रहा कि क्या मेरे
मरने पर भारत में राजकीय शोक मनाया जाएगा? पंडित जवाहर लाल के शिष्यों को लेकर माऊंटबेटन
का विश्वास बिल्कुल सही था।
माऊंटबेटन के मरने पर इंग्लैंड में तो नहीं पर भारत ने राजकीय शोक मनाया गया। लेकिन उससे
पहले जवाहर लाल की राय के बावजूद 1960 में जार्ज पंचम को इंडिया गेट की छतरी ख़ाली करनी
पड़ी थी। लेकिन प्रश्न था अब वहां कौन बैठेगा? बहुतों ने कहा महात्मा गान्धी का बुत वहां लगाया
जाए। लेकिन शायद यह साहस गांधी की क़सम खाने वाली सरकार भी नहीं कर सकती थी। इसलिए
नहीं कि महात्मा गांधी की स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका कम थी। उनकी बहुत बड़ी भूमिका थी। लेकिन
उनका रास्ता अहिंसा और करुणा पर आधारित था। वह ‘बिन खड्ग और ढाल’ वाला रास्ता था।
उन्होंने स्वतंत्रता के लिए संग्राम का रास्ता नहीं चुना था, बल्कि संवाद का रास्ता चुना था। वे
स्वतंत्रता संवाद के साधक थे और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस स्वतंत्रता संग्राम के सेनापति थे। आज
इंडिया गेट पर नेताजी बोस की प्रतिमा स्थापित हो गई है। राजपथ भी कत्र्तव्य पथ हो गया है। धीरे-
धीरे देश जवाहर लाल की राय से मुक्त हो रहा है जिसके चलते कभी विवशता में ही नागार्जुन ने
कहा था, आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी! मैंने राजपथ से राजाओं-रानियों की पालकी उठा कर परे कर
दी है और नेता जी के कत्र्तव्य पथ पर चल निकले हैं। गुलामी के प्रतीक कई मार्ग, सरकारी संस्थानों
के नाम, भवन आदि अभी भी भारत में हैं। उनके नाम भारतीय योद्धाओं के नाम से रखने की मांग
वर्षों से हो रही है। कई सडक़ों व भवनों के नाम बदले भी गए हैं। जो बाकी बचे हैं, अब शायद उनकी
बारी है। भारत का भारतीयकरण होना चाहिए, न कि अंगे्रजीकरण। अंग्रेजी की अनिवार्यता को अब
हटा देना चाहिए।