-निर्मल रानी-
वैसे तो राजनीति शास्त्र के अनुसार लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता पर नकेल कसने के लिये विपक्ष का
मज़बूत होना बहुत ज़रूरी है। अन्यथा सत्ता के पक्ष में आया प्रचंड बहुमत और साथ साथ विपक्ष का
बिखरा व कमज़ोर होना सत्ता को अहंकारी व बेलगाम कर सकता है। यहाँ तक कि तानाशाही के रास्ते
पर भी ले जा सकता है। पूर्व में भारत की राजनीति में पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर राजीव
गाँधी, अटल बिहारी बाजपाई व मनमोहन सिंह के शासनकाल तक में यह देखा गया है कि जहां
मज़बूत विपक्ष अपनी रचनात्मक भूमिका निभाता आया है वहीँ सत्ता द्वारा भी विपक्ष को पूरा मान
सम्मान दिया जाता रहा है और संसद में उसे अपनी बात कहने व सुझाव अथवा कोई आवश्यक
संशोधन पेश किये जाने का अवसर दिया जाता रहा है। परन्तु 2014 के बाद देश की राजनीति में
एक बड़ा परिवर्तन देखा जा रहा है। ‘डबल इंजन की सरकार’ के नाम पर राज्यों में सक्रिय दलों को
समाप्त करने की कोशिश की जा रही है।
कांग्रेस मुक्त भारत जैसा ग़ैर लोकतान्त्रिक नारा देकर मुख्य विपक्षी दल को समाप्त करने की
साज़िश रची जा रही है। विभिन्न विपक्षी दलों के नेताओं को या तो पद अथवा पैसों की लालच देकर
ख़रीदा जा रहा है या ई डी, सी बी आई व इनकम टैक्स जैसे विभागों का भय दिखाकर उन्हें अपने
पक्ष में किया जा रहा है। क्या तमाशा है कि विपक्षी दलों में रहकर ई डी, सी बी आई व इनकम
टैक्स से डरने वाला नेता जब सत्ता के पक्ष में आ जाता है तो वह भय मुक्त हो जाता है ? यानी
भ्रष्टाचारी का ‘गंगा स्नान’ हो जाता है। हद तो पिछले दिनों उस समय हो गयी जबकि यू पी ए की
चेयरपर्सन व कांग्रेस अध्यक्ष जैसे पदों पर रही सोनिया गाँधी व कांग्रेस के निवर्तमान अध्यक्ष राहुल
गाँधी को ई डी के दफ़्तर में बार बार बुला कर उन्हें नीचा दिखाने व उनका मनोबल तोड़ने की
कोशिश की गयी। आज देश में मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में तोड़ फोड़, ख़रीद फ़रोख़्त
या ई डी का भय दिखाकर बनाई जाने वाली सरकारें चल रही हैं।
बहरहाल, विपक्ष को समाप्त करने की सत्ता की इन कोशिशों के मध्य एक बार फिर विपक्ष को
एकजुट करने की कोशिशें तेज़ हो गयी हैं। इस बार विपक्षी एकता की धुरी बने हैं बिहार के मुख्य
मंत्री नितीश कुमार। अकाली दल और शिव सेना की ही तरह नितीश कुमार के जे डी यू का भी
भारतीय जनता पार्टी के साथ एन डी ए का हिस्सा बनने का लंबा अनुभव था। परन्तु जब उन्हें यह
एहसास होने लगा कि भाजपा अपने ‘विपक्ष मिटाओ’ विशेषकर क्षेत्रीय दल मिटाओ अभियान के तहत
जे डी यू को भी निगलने की फ़िराक़ में है। तभी उनकी आँखें खुलीं और वे भाजपा से नाता तोड़ कर
‘भाजपा भगाओ’ मुहिम के सूत्रधार बन बैठे। पिछले दिनों विपक्ष को एकजुट करने के अपने इसी
अभियान के तहत नितीश कुमार ने दिल्ली में कांग्रेस नेता राहुल गाँधी, सीता राम येचुरी, अरविन्द
केजरीवाल, डी. राजा, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, ओम प्रकाश चौटाला, शरद यादव व
एचडी कुमारस्वामी आदि नेताओं से मुलाक़ात की। वे भजपा विरोधी सभी दलों को राष्ट्रीय स्तर पर
एकजुट कर भाजपा के ‘अपराजेय’ होने का भ्रम तोड़ना चाहते हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर
राव भी राष्ट्रीय स्तर पर किसी ऐसे ही विपक्षी गठबंधन को आकार देने के प्रयास में हैं।
परन्तु इन नेताओं की कोशिशों से इतर कुछ नेता ऐसे भी हैं जिनकी नज़रें भाजपा को सत्ता से हटाने
से ज़्यादा इस बात पर टिकी हैं कि किस तरह उनका प्रधानमंत्री बनना अथवा मुख्यमंत्री बनना
सुनुश्चित हो सके। किस तरह उनके संगठन के विस्तार की निरंतरता बनी रही और वे एक राज्य के
बाद दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे फिर चौथे राज्य में अपना जनाधार बढ़ाते रहें। और इन्हीं में कुछ
ऐसे दल भी हैं जो धर्मनिरपेक्षता की दुहाई भी देते हैं और साथ ही कांग्रेस को भी भाजपा जैसा ही
अपना दुश्मन भी समझते हैं। ऐसे ही दल व उनके नेता ग़ैर भाजपा व ग़ैर कांग्रेस मोर्चे के गठन की
बात करते हैं। जबकि हक़ीक़त यह है कि लाख कमज़ोर होने के बावजूद किसी भी विपक्षी दल के
लिये कांग्रेस की अनदेखी कर पाना संभव नहीं है। चाहे वे समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव हों,
बसपा की मायावती, आप के अरविंद केजरीवाल, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी, ए आई आई एम
के असदुद्दीन ओवैसी या भाजपा का सैद्धांतिक रूप से विरोध कर रहे और कोई संगठन। वर्तमान में
इन सभी को अपनी निजी व अपने दलों की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं से ऊपर उठकर सोचने की
ज़रुरत है। यदि यह दल व इनके नेता भाजपा को देश के लोकतंत्र के लिये यहाँ तक कि देश के
संविधान व देश के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिये ख़तरा मानते हैं फिर किसी कांग्रेसयुक्त विपक्षी
गठबंधन से पहले ही इन्हें अपने दल के पैर पसारने, अपनी गद्दी सुरक्षित करने जैसी चिंताएं आख़िर
क्यों सताने लगती हैं।
विपक्षी एकता में बाधा बनने वाले तथा भाजपा की ही तरह कांग्रेस से भी भयभीत दिखाई देने वाले
नेता व दल इस तथ्य की अनदेखी क़तई नहीं कर सकते कि इस समय राहुल गांधी ही देश के अकेले
विपक्षी नेता हैं जो किसी ई डी व सी बी आई की परवाह किये बिना जनसरोकार के मुद्दों को लेकर
सत्ता पर लगातार हमलावर हैं। पिछले दिनों दिल्ली के रामलीला मैदान में ‘मंहगाई पर हल्ला बोल’
जैसा विशाल व ऐतिहासिक आयोजन कर और अब कन्याकुमारी से कश्मीर तक की भारत जोड़ो यात्रा
के द्वारा जो राष्ट्रीय प्रयास राहुल गाँधी व कांग्रेस द्वारा किये जा रहे हैं इस तरह का आयोजन कर
पाना किसी भी कांग्रेस विरोधी क्षेत्रीय दल के बूते की बात नहीं। इसलिये यह कहने में कोई हर्ज नहीं
कि नितीश कुमार व के चंद्रशेखर राव जैसे नेताओं के विपक्षी एकता के लिये किये जा रहे प्रयासों में
यदि कोई भी दल या नेता किसी तरह के किन्तु परन्तु का सहारा लेकर विपक्षी एकता में पलीता
लगाने की कोशिश करता है तो इससे दो ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है। या तो वह दक्षिणपंथी
सांप्रदायिक शक्तियों की कठपुतली बनकर ऐसा कर रहा है या फिर उसे भी अपने किये गये दुष्कर्मों
के चलते ई डी व सी बी आई का भय सता रहा है। अन्यथा सच तो यही है कि अनियंत्रित व
अहंकारी सत्ता के इस दौर में राष्ट्रीय स्तर पर मज़बूत व एकजुट विपक्ष ही वर्तमान समय में देश की
सबसे बड़ी ज़रुरत है।