-सत्यम पांडेय-
इसमें तो किसी को कोई संदेह नहीं होगा कि फासीवाद दरअसल पूंजीवादी व्यवस्था का ही एक निकृष्ट और क्रूर रूप
है। लेनिन ने बीसवीं सदी के पहले दूसरे दशक तक के पूंजीवाद का विश्लेषण करते हुए बताया था कि साम्राज्यवाद
पूंजीवाद की उच्चतम अवस्था है। उनका मानना था कि साम्राज्यवाद के चलते पूंजीवादी मुल्कों की लूट की आपसी
लड़ाई इतनी प्रखर हो जाएगी और शोषण इतना अधिक हो जाएगा कि क्रांतिकारी नेतृत्व हासिल होने पर मेहनतकश
शोषण के इस जुए को उतार फेंकेगा और इस तरह साम्राज्यवाद पूंजीवादी व्यवस्था का अंतिम सोपान साबित होगा।
प्रथम विश्व युद्ध में यह काफी हद तक साबित भी हुआ, जब तीसरी दुनिया के संसाधनों और बाजारों पर कब्जे के
लिए अनेक मुल्क आपस में इस कदर उलझे कि पूरी दुनिया युद्ध का मैदान बन गई। इसी ‘आलमी लड़ाई’ के
दौरान स्वयं लेनिन के नेतृत्व में सोवियत क्रांति हुई जिसने पूरी दुनिया में समता के स्वप्न को विस्तार दिया।
दुनिया के अनेक देशों में समाजवादी सरकारें स्थापित हुईं और औपनिवेशिक गुलामी में जकड़े देशों में मुक्ति की
लड़ाइयां आरंभ हुईं। यदि पूंजीवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ी जाती तो यह युद्ध के अंत की शुरुआत थी,
लेकिन महज दो दशक के अंदर ही दुनिया दूसरी आलमी लड़ाई में फंस गई।
यह अपने अस्तित्व पर आए संकट से निबटने की एक पूंजीवादी रणनीति थी। पूंजीवाद की अनेक खासियतें हैं
जिनमें सबसे प्रमुख है, नित नए संकटों से निबटने की उसकी कलाबाजियां। इस बार उसने फासीवाद का सहारा
लिया और एक नस्ल की श्रेष्ठता के नाम पर मनुष्यता के साथ जो अत्याचार हुए, उन्होंने दुनिया को कंपा दिया।
इससे एक ओर तो सोवियत समाजवादी गणतंत्र की जनता संघर्ष कर रही थी, तो दूसरी तरफ लोकतंत्र की बात
करने वाले पूंजीवादी मुल्क।
बहरहाल, यह लड़ाई फासीवाद के तात्कालिक खात्मे के साथ खत्म हुई और पुराने पूंजीवादी देशों ने कल्याणकारी
राज्य की अवधारणा को प्रस्तुत कर अपने चेहरों से रक्त के दाग मिटाने की कोशिश आरंभ की। अब आते हैं,
लोकतंत्र पर। गौर से देखा जाए तो यूरोप में औद्योगिक क्रांति के आने के बाद तीन नए विचार दुनिया में आए-
पूंजीवाद, लोकतंत्र और आधुनिकता। मजे की बात है कि ये तीनों एक-दूसरे से पृथक होने के बावजूद आपस में
नाभिनालबद्ध हैं। लोकतंत्र अपने आपमें एक आधुनिक विचार है जो व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता पर जोर देता
है। ये तत्व पूंजीवाद को एक नैतिक वैधता प्रदान करते हैं जो उस दौर में सामंतवाद के बरअक्स एक आधुनिक
उत्पादन प्रणाली के रूप में प्रकट हुआ था।
अपनी सीमाओं के बावजूद लोकतंत्र अब तक की सबसे बेहतर शासन व्यवस्था सिद्ध हुई जिसने राजनीतिक बराबरी
को स्थापित किया और आज सार्वभौमिक मताधिकार के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को अपने शासक चुनने का
अधिकार मिला है। आधुनिकता और पूंजीवाद के दौर में लोकतंत्र आता है, लेकिन सत्ता तंत्र का निर्वाचन सभ्यताओं
के इतिहास में सब जगह कभी न कभी, किसी न किसी रूप में मौजूद रहा है। भारतीय संदर्भों में देखें तो छठवीं
शताब्दी ईसा पूर्व के महाजनपदों में अधिकांश की शासन और निर्णय प्रक्रिया बहुत हद तक लोकतांत्रिक थीं, लेकिन
वह दौर सामंतवाद का था। बहरहाल, भविष्य का समाजवाद लोकतंत्र के बिना संभव नहीं होगा।