-डॉ. नाज़ परवीन-
देश के ग्रामीण इलाकों में अक्सर देखा गया है कि महिलाओं को यदि कोई शारीरिक बीमारी होती है तो वो महिला
डॉक्टर के पास जाना ज्यादा पसंद करती हैं उसका सबसे बड़ा कारण उनका सहजता से अपनी समस्या समझा पाना
रहता है। ऐसा ही महिलाओं के द्वारा अपनी शिकायत महिला थाने में दर्ज कराना ज्यादा सहज दिखाई देता है वो
अपनी बात महिला पुलिस से ज्यादा आसानी से कर पाती हैं। मुझे याद है कुछ समय पहले मैं पास के सरकारी
अस्पताल में किसी काम से गयी थी। वहाँ एक 10-12 साल की उदास,निढाल, डरी सहमी सी बच्ची एक महिला
पुलिस कर्मी से कभी कुछ बात करती, कभी उसके काँधे से लग जाती ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वो उसकी बहुत
नजदीक हो, पास ही खड़ा एक व्यक्ति पानी की बोतल हाथ में लिए बार बार उस महिला पुलिस से उसे पानी देने
के लिए पूछ रहा था। वो बच्ची उस व्यक्ति की तरफ कम ही देख रही थी।शायद वो उस बच्ची का पिता था। मैंने
कुछ देर बाद उस महिला पुलिस कर्मी से पूछा- क्या हुआ है इसे? क्या ये बच्ची आपकी कोई जानकार है? उसने
मुझे उत्तर दिया- नहीं! मैं इस बच्ची को नहीं जानती। मैं बस अपनी ड्यूटी कर रही हूँ। शायद इस बच्ची के साथ
कुछ गलत हुआ है। इसका मेडिकल टेस्ट होना है हम सभी इसीलिए यहाँ उपस्थित हैं। मैं स्तब्ध थी उस बच्ची को
देख जो अपने पिता में एक पुरुष और उस अंजान पुलिस कर्मी में अपनी सी एक महिला की तलाश में सहज होने
की कोशिश कर रही थी..। उस बच्ची के उदास चेहरे में महिला पुलिस कर्मी के प्रति सहजता साफ देखी जा सकती
थी। उस दिन ऐसा आभास हुआ की महिला पुलिस कर्मियों की संख्या में बढ़ोतरी महिलाओं के प्रति अपराध को कम
करने में मील का पत्थर साबित हो सकता है।
वैश्विक राजनीति के परिवेश में महिलाओं की बढ़ती भूमिका कई नये आयाम स्थापित कर रही है, जो सामाजिक
न्याय व्यवस्था के बेहतर भविष्य की आधारशिला हो सकती है।
वर्षों से शक्ति,सहभागिता और सत्ता का गठजोड़ सामाजिक परिवर्तन का आधार बना है। सत्ता के समीकरण को
साधने में अहम हिस्सेदार देश की महिलाएं रही हैं जो कई बार देश में किंग मेकर का काम करती हैं परंतु सत्ता में
उनकी हिस्सेदारी न के बराबर ही है। समाज के कई अहम मुद्दों के समाधान में अपने जुझारू व्यक्तित्व का
परिचय देने के बाद भी, देश की राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों का रुझान अब तक महिलाओं को महिला वोट बैंक से
ज्यादा ऊपर नहीं उठा सका है। इसके अलग अलग कारण हो सकते हैं लेकिन वर्तमान समय में महिलाओं से
संबंधित समस्याओं का समाधान ढूँढने के लिए हमें कई मुद्दों पर खुल कर बात करनी होगी। जिनसे देश की आधी
आबादी राजनीति में अपनी बराबर की दावेदारी पेश कर पाए। तभी सही मायने में महिलाओं से जुड़े शिक्षा, समाज,
सुरक्षा, आत्मनिर्भरता जैसे मुद्दे हल हो पाएंगे।
आज देश आजादी के 75 साल का जश्न मना रहा है। आजादी के 75 साल बाद समाज में क्रांतिकारी बदलाव देखे
जा सकते हैं। महिलाएं बढ़ चढ़ कर रोजगार में सहभागी बन रही हैं। महिलाएं मजदूर भी हैं और रिक्शा चालक भी
साथ ही सरकारी नौकरी से सेना तक में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी हैं लेकिन उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम
है। इससे उनकी समस्याएं जो पहले घर में ही दफन हो जाती थी अब बाहर खुलकर तो आ रही हैं लेकिन समाधान
की दहलीज पर आकर सिमट जा रही हैं जिस तरह से उनका निराकरण होना चाहिए वह नहीं हो पा रहा है।
महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध का ग्राफ इस बात की गवाही देता है यदि समाज और सरकार को महिलाओं की
समस्या का पुख्ता हल ढूँढना है तो समय रहते देश में महिलाओं का शिक्षा, व्यवसाय, सिविल सेवा,सेना और संसद
में प्रतिशत बढ़ाना होगा।
आजादी के 75 साल बाद भी महिलाएं आखिर कहाँ खड़ी हैं? जब हम इस विषय पर गौर करते हैं तो समाज में
महिलाओं को लेकर कई चिंताएं जाहिर होती हैं, कई समस्याएं हैं जिनके सवाल दुनियाभर के समाज वैज्ञानिक
तलाशने में लगे हैं हम महिला सशक्तिकरण को लेकर कितना ही अपनी पीठ थपथपा लें लेकिन हमें गौर करना
होगा कि अभी भी एन सी आर बी के आकड़ों में उछाल कम नहीं हुआ है। उसका ग्राफ लगातार बढ़ रहा है जिसमें
सुधार लाना समाज और सरकारों का अहम् मुद्दा होना चाहिए।
इसके सुधार का एक रास्ता महिलाओं की सत्ता और सरकार में बढ़ती भागीदारी से भी होकर गुजरता है। अक्सर
चुनाव के पहले महिलाओं के सत्ता में प्रतिनिधित्व पर बढ़ चढ़ कर बहस होती है लेकिन चुनाव आते आते महिलाओं
की हिस्सेदारी कई वजहों से कम होने लगती है, ज्यादातर राजनीतिक दलों से उन्हें उम्मीदवाद नहीं बनाया जाता,
सबकी अपनी अपनी दलीलें होती हैं जिसका सीधा परिणाम सरकार में उनकी हिस्सेदारी कम कर देती है। हमें इस
विषय पर खुल कर सोचना होगा। महिलाएं जब किंग मेकर हो सकती है तो फिर किंग क्यों नहीं?
वर्तमान समय में देश के 28 राज्यों में से केवल एक राज्य में ही महिला मुख्यमंत्री हैं। देश में ममता बनर्जी,
जयललिता, मायावती, सुषमा स्वराज, नजमा हिपतुल्ला आदि अनेकों महिलाओं ने आपने राजनैतिक जुझारू
प्रतिनिधित्व से यह साबित किया है की वो समाज, प्रदेश और राष्ट्र का बेहतर प्रतिनिधित्व कर सकती हैं, लेकिन
फिर भी आजादी के 75 साल पूरे होने के पड़ाव पर हमें केवल एक ही महिला प्रधानमंत्री मिली और वो भी मजबूत
राजनैतिक परिवार से संबंध रखती थी। संभवतः यदि वो भी किसी सामान्य परिवार से होती तो हम अभी भी भारत
की पहली महिला प्रधानमंत्री की कमी को भरने के इंतजार में होते। देश की महिलाओं ने अपनी काबिलियत से
राष्ट्रपति, वित्तमंत्री, मुख्यमंत्री और राज्यपाल जैसे जिम्मेदार पदों को बखूबी संभाला है।
निश्चित तौर पर अभी हाल ही में देश के पांच राज्यों में हुए विधान सभा चुनावों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ा
है। पंजाब में पहले के मुताबिक महिलाओं की दोगुनी संख्या हो गयी है। पंजाब में 117 सीटों में 13 महिला हैं
जबकि पहले केवल 6 थी। उत्तर प्रदेश में 403 सीटों में 46 महिलाओं को चुना गया है। उत्तराखंड में 70 सीटों में 8
महिलाएं हैं, मणिपुर में 60 सीटों में 5 महिलाएं चुनी गई और गोवा में 40 सीटों में 3 महिलाएं ही आधी आबादी
का प्रतिनिधित्व करेंगी। आजादी की पहली जंग में तलवार से बंदूक तक, स्वतंत्रता की लड़ाई में खूफिया तंत्र से
पैदल मार्च तक, लाठियों से लेकर गोलियां तक खाने में महिलाओं ने बराबर से सहभागिता की है। इतिहास के
पन्नों में दर्ज घटनाएं इस बात की तसदीक करती हैं लेकिन अभी भी उनका आधा प्रतिनिधित्व पाना बाकी है।
NCRB की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं की राजनीति में बढ़ती भूमिका के साथ महिलाओं के विरुद्ध अपराध में
भी 26 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जो निश्चित तौर पर चिंता का विषय है। वर्तमान लोकसभा में 78 और राज्य
सभा में 25 महिला सांसद आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। दोनों सदनों में महिला प्रतिनिधि के तौर पर
केवल 103 महिला सदस्य हैं यानी 13 फीसदी जबकि विश्व के कई देशों में इसमें काफी अंतर है जैसे दक्षिण
अफ्रीका में 43 फीसदी, रवांडा में 62 फीसदी, अमेरिका में 24 फीसदी, ब्रिटेन में 32 फीसदी, और बांग्लादेश में 21
फीसदी है।
इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन के मुताबिक भी राष्ट्रीय संसद में महिलाओं की भूमिका में भारत का 148वां स्थान है।
ऐसे में यह प्रश्न उठना वाजिब है कि यदि महिलाओं के लिए कोई कानून पास होता है तो उसमें महिला
प्रतिनिधित्व होना चाहिए ताकि महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर न्याय हो सके। जैसा की महिलाओं की शादी के लिए
न्यूनतम उम्र पर सिफारिश देने वाली संसदीय समिति के गठन में होना चाहिए था जहाँ 31 सदस्यों में से सिर्फ
एक महिला सांसद थी। महिलाओं की समस्या और समाधान पर महिलाओं को अपना पक्ष रखना होगा। वर्ड
इकोनॉमी फोरम के द्वारा जारी ग्लोबल जेंडर गैप 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक राजनीतिक सशक्तिकरण के मामले
में भारत 18वें स्थान पर है।
वर्तमान में भारत की साख और धाक दुनिया में तेजी से बढ़ी है ऐसे में महिलाओं से जुड़े मुद्दों को हल करने के
लिए महिला प्रतिभागियों को हर क्षेत्र में आगे आना होगा। भारत की आधी आबादी को संसद व राज्य विधान मंडलों
में एक तिहाई आरक्षण दिलाने के लिए सभी राजनीतिक दलों को सर्वसम्मति बनाते हुए महिला आरक्षण विधेयक
को पारित करना चाहिये, जिसमें महिलाओं के लिये 33% आरक्षण का प्रावधान किया गया है। जब यह विधेयक
कानून का रूप ले लेगा तो लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व खुद ब खुद बढ़ जाएगा, जैसा
कि पंचायतों में देखा जा सकता है। देश में 73वें संविधान संशोधन के द्वारा महिलाओं को त्रिस्तरीय ग्रामीण
पंचायतों और शहरी निकायों में 1993 से 33% आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढे इसके लिए महिलाओं को स्वम् आगे आना होगा राजनीति में अपनी
रुचि को और बढ़ाना होगा। लड़कियों को कॉलेज के दौरान ही छात्र राजनीति का अहम् हिस्सा बनना होगा साथ ही
सभी पार्टियों को योग्य महिला उम्मीदवार को टिकट देना होगा इससे न केवल भारत की साख मजबूत होगी बल्कि
सामाजिक न्याय भी सुनिश्चित होगा।