भगवद्गीता के आठवें अध्याय के 24वें श्लोक में भगवान योगाभ्यासियों और सिध्द योगियों के शरीर शांत होने के
उपरांत उनके प्रयाण के बार में सम्यक जनकारी देते हैं। -श्लोक 24
अग्निज्र्योतिरहः भुक्लः शण्मासा उत्तरायणाम।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।
अग्नि, ज्योति, शुक्लपक्ष और सूर्य के उत्तरायण के छः महीनों में प्रयाण करने वाले वे लोग जो ब्रह्मा को जानते हैं,
ब्रह्मा के पास जाते हैं।
दिन, मास और वर्ष के प्रकाश और अंधकार का अपना समय होता है। प्रकाश और अंधकार के इन समयों का चक्र
अपने देवताओं के प्रभाव के अधीन होता है। इसका अर्थ है कि कोई देवता है जिसके प्रभाव के अधीन दिन आता है
और कोई देवता है जिसके प्रभाव के अधीन रात आती है। कोई देवता है जिसका महीने के शुक्ल पक्ष पर अधिकार
है, और कोई देवता है जिसका कृष्ण पक्ष पर अधिकार है। इसी प्रकार ऐसे देवता हैं, जो उत्तरायण के छः महीने के
प्रशासक होते हैं और अन्य ऐसे होते हैं, जो दक्षिणायण के प्रशासक होते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति अपना भौतिक शरीर समय के स्वामी अग्नि और ज्योति के अधीन त्याग
करते हैं, और दिन के समय, शुक्ल पक्ष में और उत्तरायण के समय प्रयाण करते हैं, वे क्रमानुसार इस कालावधि के
देवताओं से रक्षित मार्ग से होकर जाते हैं और जगत के रचयिता ब्रह्मा के लोक में पहुंचते हैं। ये ऐसे लोग होते हैं,
जिनकी योग में गति होती है और जिन्हें ब्रह्मा का ज्ञान होता है। ब्रह्मा के स्तर पर पहुंचने के पश्चात वे पृथ्वी
पर वापस होने की संभावनाओं से परे हो जाते हैं और ब्रह्मलोक में तब तक वास करते हैं, जब तक ब्रह्मा का
जीवनकाल पूरा नहीं हो जाता। अन्ततोगत्त्वा वे ब्रह्मा के साथ ही ब्रह्मा को प्राप्त हो जाते हैं।
निश्चित ही उन लोगों की मृत्यु का प्रश्न नहीं उठता, जिन्होंने पृथ्वी पर अपने जीवनकाल में ही शाश्वत मुक्ति
प्राप्त कर ली है और ब्रह्मा की नित्यता, परमसत्ता में प्रतिष्ठित है। मृत्यु का क्षेत्र उन्हें स्पर्श नहीं करता। उनका
मन सर्वोच्च सत्ता के साथ एक हो जाता है, उनके प्राण शाश्वत प्रकृति के पराजीवन के साथ एक हो जाते हैं।
व्यक्ति के रूप में अपने शरीर का प्रयोग करने के बावजूद वे पराजीवन को जीते हैं। शरीर का त्याग करने या मृत्यु
की प्रक्रिया, जो भी कहो उनके पराजीवन को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुंचती। वे देवत्त्व को जीते हैं और जब
सांस लेना बंद कर देते हैं, तब शांत रूप में नित्य देवी सत्ता हो जाते हैं।
इस श्लोक का शरीर त्याग करने के उपरांत योगी के मार्ग का वर्णन करने का आशय उस सिध्द योगी की अवस्था
का वर्णन करना नहीं है, जिसने पृथ्वी पर अपने जीवनकाल में शाश्वत मुक्ति प्राप्त कर ली हो। यह केवल उनके
बारे में बात करता है, जिनके लिये मृत्यु शब्द का प्रयोग किया जा सकता है और जो शरीर का त्याग कर इससे
बाहर जाते हैं। इसका प्रयोग उनके लिये हुआ है, जो ध्यान तो करते हैं और जिन्होंने भावातीत सत्ता, आत्मचेतना
या आत्मानंद का अनुभव तो किया है, किन्तु ब्रह्मानंद का, उस परम तृप्ति का जहां वैयक्तिक चेतना पराचेतना का
स्तर प्राप्त कर लेती है, मृत्यु के क्षेत्र से परे सर्वव्यापी सत्ता का अनुभव नहीं किया है।
ब्रह्मानंद में लीन योगी का शरीर जब अपने क्रियाकलाप करना बंद कर देता है, तब उसके प्राण शरीर नहीं छोड़कर
बाहर नहीं जाते, क्योंकि उसके प्राण तो पहले ही दैवी प्राण हो चुके होते हैं। जब शरीर काम करना बंद कर देता है
तब उसके प्राण केवल व्यष्टिता छोड़ते हैं और उसकी समष्टिता कायम रहती है। वे योगाभ्यासी जिनका सिध्द होना
बाकी है, जो ब्रह्मा के ज्ञाता हैं अपने मार्ग में अग्नि, ज्योति, दिन, शुल्क पक्ष और उत्तरायण काल के अपने-अपने
देवताओं की सहायता से ब्रह्मलोक में समय व्यतीत कर ब्रह्मा को प्राप्त होते हैं।