-ललित गर्ग-
दुनिया में कठोर कानूनों के बावजूद आर्थिक अपराधों की चरम पराकाष्ठा है। अर्थ का नशा जब, जहां जिसके भी
चढ़ता है, वह इंसान को सारी मर्यादाओं, अनुशासन एवं कानूनों को तिलांजलि देने को मजबूर कर देता है, वह सब
कुछ ताक पर रख देता है, खुदगर्ज बन जाता है। अपने सुख, आर्थिक लाभ एवं स्वार्थ के सिवाय कुछ नहीं सोचता
एवं देखता है। इस बात की पुष्टि पैंडोरा पेपर लीक में जो 1.2 करोड़ दस्तावेज सामने आए हैं, उससे होती है।
पिछले एक दशक में सामने आए पैराडाइज पेपर्स व पनामा पेपर्स की कड़ी में यह नया मामला हैं, उसने पूरी दुनिया
में कई सत्ताधीशों, कारोबारियों व नौकरशाहों की असलियत को उजागर किया है। इसके जरिये उन्नतीस हजार
ऑफशोर कंपनियों व ट्रस्टों के स्वामित्व के विवरण उजागर हुए हैं। यह अब तक का सबसे बड़ा आर्थिक अपराध का
प्रकटीकरण है, जो यह खुलासा करता है कि कैसे सत्ताधीश व प्रभावशाली लोग कानून के छिद्रों का इस्तेमाल करके
काले धन को सफेद बनाने की कुत्सित कोशिश कर रहे हैं, सरकार की आंखों में धूल झोंकते हैं, कानूनों की
धज्जियां उड़ाते हैं, कर चोरी करते हैं।
आज सत्ताधीशों, कारोबारियों व नौकरशाहों की समृद्धि बढ़ती जा रही है। वे अपने अधिकारों का धड़ल्ले से दुरुपयोग
कर रहे हैं। उनके इर्द-गिर्द आर्थिक अपराधों का खेल आप जगह-जगह पर देख सकते हैं।
समूची दुनिया में कानूनों एवं बंदिशों के बावजूद यह आंधी धड़ल्ले से चल रही है, इसमें जिन सैंकड़ों लोगों के नाम
सामने आए हैं उनमें प्रभावशाली राजनेताओं, अरबपतियों, मशहूर व्यक्तियों और धार्मिक हस्तियों ने खरबों डॉलर की
संपत्ति का कर बचाने के लिये ऑफशोर विदेशी कंपनियों के खातों का उपयोग किया है। जो बड़े आलीशान भवनों,
समुद्र तटीय संपत्ति व जमीनों की खरीद के जरिये अपने काले धन को छिपा रहे हैं। धन के इन गुप्त भंडारों के
खुलासे में जो प्रमुख नाम हैं, उनमें जॉर्डन के शाह, चेक प्रधानमंत्री, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन व पाक
प्रधानमंत्री इमरान खान के सहयोगी शामिल हैं। भारत के भी कुछ समृद्ध हस्तियों के नामों का इसमें खुलासा हुआ
है। कुल तीन सौ भारतीयों व सात सौ पाकिस्तानियों के नाम इस खुलासे में सामने आये हैं। जाहिर बात है कि बड़े
पैमाने पर कर चोरी और काले धन को छिपाया जाना सामाजिक व आर्थिक असमानता का हिस्सा ही है, जो बड़ा
एवं अक्षम्य आर्थिक अपराध है। किस तरह व्यक्ति स्वयं को प्रतिष्ठित करने के लिये औरों के अस्तित्व एवं
अधिकारों को नकारता है, अतिश्योक्तिपूर्ण आर्थिक संग्रह की प्रतिस्पर्धा होती है। इसी में आतंकवाद पनपता है,
आदमी-आदमी से असुरक्षित महसूस करता है। इन स्थितियों में चेहरे ही नहीं, चरित्र तक अपनी पहचान खोने लगे
हैं। नीति एवं निष्ठा के केन्द्र बदलने लगे हैं।
दरअसल इस बड़े खुलासे को सामने लाने में इंटरनेशनल कंसोर्टियम ऑफ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स यानी
आईसीआईजे के 117 देशों के साढ़े छह सौ खोजी पत्रकारों ने भाग लिया था। इसमें उजागर हुए नामों में कुछ पहले
ही धन शोधन व टैक्स चोरी के मामलों में दागदार हैं। यह भी चिन्ताजनक तथ्य सामने आया कि अमीर व
ताकतवर लोग कैसे समानांतर अर्थव्यवस्था चला रहे हैं। पैंडोरा पेपर का खुलासा ऐसे वक्त में हुआ है जब पूरी
दुनिया कोरोना महामारी के संकट से जूझ रही है। इस संकट ने न केवल लाखों लोगों का जीवन छीना है बल्कि
रोजगार संकट के चलते अमीर-गरीब के बीच की खाई भी चौड़ी हुई है। एक ओर अमीरों की ऊंची अट्टालिकाएं,
दूसरी ओर फुटपाथों पर रेंगती गरीबी। एक ओर वैभव ने व्यक्ति को विलासिता दी और विलासिता ने व्यक्ति के
भीतर क्रूरता जगाई, तो दूसरी ओर गरीबी तथा अभावों की त्रासदी ने उनके भीतर विद्रोह की आग जला दी। वह
प्रतिशोध में तपने लगा और दुनिया में बुराइयां, अपराध, हिंसा, युद्ध की मानसिकता बिन बुलाए घर आ गई। इसे
विडंबना ही कहा जायेगा कि कोरोना संकट के बीच वित्तीय गतिविधियों पर अंकुश के चलते जहां पूरी दुनिया में
गरीबी का दायरा बढ़ा है वहीं अमीर और अमीर हुए हैं।
ब्रिटेन के चैरिटी समूह ऑक्सफैम इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के एक हजार सबसे अमीर लोगों ने
नौ महीनों के भीतर ही कोविड संकट से हुए नुकसान की भरपाई कर ली है। वहीं दुनिया के सबसे गरीब लोगों को
आर्थिक नुकसान से उबरने में एक दशक से भी अधिक समय लग सकता है। कोरोना के वायरस ने जीवन की क्षति
व आर्थिक संकट बढ़ाकर असमानता को और बढ़ा दिया है। बताते हैं कि भारत में लॉकडाउन के दौरान अरबपतियों
की संपत्ति में पैंतीस फीसदी की वृद्धि हुई है। सही मायनों में ऑफशोर विदेशी कंपनियों के खातों का उपयोग करके
भारत जैसे विकासशील देशों में संपन्न और ताकतवर लोग देश को राजस्व कर से वंचित कर रहे हैं। यह वह धन
है, जिसकी देश में बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, पर्यावरण व अन्य बड़ी परियोजनाओं को मूर्त रूप देने के लिये
जरूरत होती है। सरकारों को खुलासे में उजागर लोगों की वित्तीय गतिविधियों की व्यापक जांच करनी चाहिए। सख्त
कार्रवाई ही गलत तरीके से अर्जित बेहिसाब धन के संचय व छुपाने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने का काम कर सकती
है।
हम चाहें, तो दूसरे देशों से सबक ले सकते हैं। न्यूजीलैंड और स्केंडिनेवियाई देश बेशक छोटे देश हैं, लेकिन वे हमारे
लिए आदर्श हो सकते हैं। वहां टैक्स बहुत ज्यादा वसूला जाता है, लेकिन लोग खुशी-खुशी इसे देते हैं, और काली
कमाई वहां महज एक प्रतिशत है। लोगों को यह भरोसा है कि जो पैसे उनसे लिए जा रहे हैं, वह उनके हित में खर्च
होंगे। वहां शिक्षा और बुनियादी ढांचे पर काफी निवेश किया जाता है। मगर अपने यहां आम धारणा है कि कुरसी
पर बैठे सभी भ्रष्ट है, जो सिर्फ और सिर्फ जनता से पैसे लूटकर अपना पेट भरता है। इसीलिए, हर कोई टैक्स
बचाने की जुगाड़ में रहता है।
समाज एवं राष्ट्र व्यवस्था को बदलने की बात की जाती है, किन्तु यह निश्चित मानें कि जब तक शासकों एवं
राजनेताओं की चेतना जागृत नहीं होती, कोई भी शासन प्रणाली आ जाए और दुनिया का कितना भी कुशल
प्रशासक सत्ता में आ जाए, समाज-राष्ट्र व्यवस्था में कोई भी बदलाव नहीं आ सकता। वर्तमान युग की जो स्थिति
है, उस पर हम विचार करें। आज की स्थिति यह है कि आदमी स्वयं को नहीं दूसरों को देखने में ज्यादा रस ले
रहा है। अपनी कमियों पर उसका कभी ध्यान नहीं जाता। दूसरों की कमियों को देखना, छिद्रान्वेषण करना उसका
स्वभाव बन गया है। शासन करने वाले ही कानूनों की धज्जियां उड़ाते हैं, यह चिंता की ही बात है और इसका
उदाहरण है इस तरह की आर्थिक गतिविधियों के खिलाफ मुहिम चलाने वाले ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर
और उनकी पत्नी पर लंदन में ऑफिस के लिये खरीदी गई संपत्ति में स्टैंप ड्यूटी न चुकाने के आरोप हैं। ऐसे ही
दाग रूसी राष्ट्रपति व्लादमीर पुतिन, चेक प्रधानमंत्री आंद्रे बबीस, अजरबैजान के राष्ट्रपति इल्हाम एलीयेव पर संपत्ति
खरीद के चलते लगे हैं। ऐसे में जब बड़े सत्ताधीश ही ऑफशोर विदेशी कंपनियों के जरिये काले धन छिपाने और
टैक्स बचाने के खेल में शामिल होंगे तो अन्य आर्थिक अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई कौन करेगा? जाहिरा तौर पर
ये नेता जनता के पैसे का उपयोग अपने परिवार को समृद्ध करने के लिये कर रहे हैं।
कहा जा रहा है कि भारत समृद्ध बन रहा है। अमीरों की संख्या बढ़ रही है। दुनिया के सबसे ज्यादा धनी लोगों में
तीन चार लोग भारत के भी हैं। देश का तेजी से आर्थिक विकास हो रहा है, वे सर्वे के नतीजे बता रहे हैं। लेकिन
इस आर्थिक विकास के गर्भ में कितने अपराध पनप रहे हैं, कितने सत्ताधारी लोग कानून की धज्जियां उडा रहे है,
इस पर विचार होना चाहिए। संतुलन गड़बड़ा रहा है। एक ओर अरबपतियों की कतार बढ़ रही है तो दूसरी ओर भूख
और गरीबी झेल रहे लोगों की कतार बढ़ रही है। यह दोषपूर्ण अर्थव्यवस्था का परिणाम है, यह अपराधों की बुनियाद
पर खड़ी आर्थिक व्यवस्था है। जब तक पक्षपातपूर्ण एवं अपराधपूर्ण अर्थनीति चलेगी, तब तक स्थिति में कोई सुधार
की संभावना नहीं होगी, भ्रष्टाचार भी नहीं रूकेगा। हमें तो नहीं लगता कि देश के नीति निर्माता और संचालक
अर्थव्यवस्था के सुधार का कोई प्रयत्न कर रहे हैं।