स्वतंत्रता संग्राम में तिलक जी का योगदान

asiakhabar.com | July 22, 2021 | 5:01 pm IST

शिशिर गुप्ता

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध राष्ट्रीय आक्रोश का जन्मदाता माना जाता है।
उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध जन असंतोष प्रकट करने के अनूठे तरीके निकाले थे। गणेश पूजा उनमें से एक
थी। उस समय गणेशोत्सव धार्मिक कम और राष्ट्रीय पर्व ज्यादा था। बाल, लाल, पाल की त्रिमूर्ति की एक प्रमुख
कड़ी थे लोकमान्य तिलक। तीनों, जिनमें पंजाब के लाला लाजपतराय, बंगाल के बिपिन चंद्रपाल और महाराष्ट्र के
बाल गंगाधर तिलक शामिल थे, को ‘बृहदत्रायी’ भी कहा जाता था। तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को रत्नगिरि
में हुआ था। तिलक के पिताजी का नाम गंगाधर शास्त्री और माता का नाम पार्वती बाई था। उनके पिता संस्कृत के
विद्वान थे और उन्होंने अपना करियर एक शिक्षक के रूप में प्रारंभ किया था। कुछ समय बाद उनका स्थानांतरण
पूना हो गया। 1871 में 15 वर्ष की आयु में तिलक का विवाह हो गया। तिलक की सारी पढ़ाई-लिखाई पूना में हुई।
तिलक ने प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद उन्होंने वकालत की डिग्री हासिल की। अपनी
कालेज की शिक्षा के दौरान वह प्रोफैसर बर्डस्वर्थ और प्रोफैसर शूट से काफी प्रभावित हुए। बर्डस्वर्थ ने उन्हें अंग्रेजी
साहित्य पढ़ाया और शूट ने इतिहास तथा राजनीतिक अर्थव्यवस्था। इस दौरान जो ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया, वह
उनके भावी जीवन में काम तो आया ही, उससे उन्हें अंग्रेजों के असली इरादों को समझने में भी सहायता मिली।
तिलक राजनीति और मैटाफिजिक्स से संबंधित पश्चिमी विचारों से प्रभावित थे। उन पर पश्चिमी विचारों का कितना

प्रभाव था, यह उन्होंने स्वयं स्वीकार किया था। शिक्षा पूर्ण करने पर तिलक को अच्छी-खासी सरकारी नौकरियों के
ऑफर मिले थे, परंतु उन्हें ठुकराते हुए उन्होंने राष्ट्र एवं समाज में जागृति उत्पन्न करने के काम को ज्यादा महत्त्व
दिया। तिलक की निश्चित धारणा थी कि आज की शिक्षा के आधुनिक सिद्धांतों को आम लोगों तक पहुंचाना
चाहिए। इस तरह की शिक्षा से ही आम जनता में चेतना आएगी और तभी ब्रिटिश साम्राज्य के असली इरादों को
जनता समझ पाएगी।
अपने इस चिंतन के अनुकूल तिलक ने आगरकर, चिपलनकर और नामजोशी के सहयोग से एक इंगलिश स्कूल की
स्थापना की और बाद में 1885 में डेक्कन एजुकेशन सोसायटी भी गठित की, परंतु कुछ मुद्दों पर गंभीर मतभेद
होने के कारण उन्होंने इससे अपना संबंध तोड़ लिया। सच पूछा जाए तो इस सोसायटी से संबंध विच्छेद करने के
बाद ही तिलक का असली सार्वजनिक जीवन प्रारंभ हुआ। इस बीच तिलक ने ‘केसरी’ और ‘मरहूटा’ नामक दो
अखबारों पर पूरा नियंत्रण हासिल कर लिया। इनके माध्यम से तिलक के आकर्षक बहुरंगी व्यक्तित्व से आम लोगों
का परिचय हुआ। तिलक ने 1904 में गायकवाड़ा नाम का भवन खरीदा। उसके एक हिस्से में वह स्वयं रहते थे
और दूसरे हिस्से में उन्होंने अपना छापाखाना स्थापित किया था। इसी छापेखाने में अखबार छाप कर ये देशवासियों
में चेतना फैलाने का काम करते थे। अखबारों के प्रकाशन के साथ-साथ वह सार्वजनिक गतिविधियों में व्यस्त रहते
थे। उनका काफी समय अध्ययन में ही जाता था। वह लगभग प्रति सप्ताह एक न एक सार्वजनिक सभा को
संबोधित करते थे। तिलक का संपूर्ण जीवन ‘कर्मयज्ञ’ था। इस कर्मयज्ञ का मुख्य उद्देश्य उस राष्ट्र को जगाना था
जो कुंभकर्णी निद्रा की स्थिति में था। अभूतपूर्व इच्छाशक्ति, परिश्रम और संगठन की असाधारण क्षमता का उपयोग
कर उन्होंने राष्ट्र में एक नई चेतना का संचार करने का प्रयास किया। उनके इसी प्रयास के चलते उन्होंने यह अमर
नारा दिया था कि ‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और उसे मैं लेकर रहूंगा।’ उनके इस नारे ने राष्ट्र के
समक्ष एक मंजिल तय कर दी। तिलक ने बार-बार घोषणा की थी कि उन्हें ‘संपूर्ण स्वराज्य’ चाहिए। उन्होंने अपनी
इस अभूतपूर्व घोषणा को लंदन तक पहुंचाया। तिलक ने एक ऐसा काम किया जिसने उन्हें अमरत्व प्रदान किया है।
वह काम है उनके द्वारा लिखित ‘गीता रहस्य’। इस ग्रंथ की रचना उन्होंने जेल में की थी। यह ग्रंथ उनकी महान
प्रतिभा का द्योतक है।
तिलक के व्यक्तित्व के दो पहलू थे। एक ओर उनके क्रांतिकारी विचार थे तो दूसरी ओर सामाजिक सुधारों के प्रति
उनका दृष्टिकोण परंपरावादी था। उनका विचार था कि एक सच्चा राष्ट्रभक्त पुरातन की नींव पर ही आधुनिक राष्ट्र
की इमारत खड़ी करेगा। एक ऐसी इमारत जो प्रगति एवं आवश्यक सुधारों के रास्ते में बाधक न बने। तिलक के
व्यक्तित्व व कृतित्व पर टिप्पणी करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था- तिलक का एक ही धर्म था- अपने देश से
मोहब्बत। अपनी अखबारों से उन्होंने देशवासियों में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध आक्रोश जगाया। उनकी लेखनी
इतनी क्रांतिकारी थी कि उसके कारण उन्हें सजा भी भुगतनी पड़ी। ऐसे ही दो लेखों का शीर्षक था ‘देश का दुर्भाग्य’
और ‘ये समाधान यथेष्ट नहीं है’। इन लेखों की भाषा इतनी जोशीली थी कि अंग्रेजों ने उन्हें छह साल की सजा दी
और बर्मा की मांडले जेल भेज दिया। वहां से 17 जून 1914 को उनकी रिहाई हुई। इस तरह अपनी लेखनी और
प्रभावशाली भाषणों से तिलक ने सारे देश में नवचेतना का संचार किया। एक ऐसी चेतना जिसे बाद में क्रांतिकारियों
और महात्मा गांधी सरीखे नेताओं ने आगे बढ़ाया, जिसके चलते अंततः हमारी मातृभूमि आजाद हुई। तिलक के
बहुत सपने थे और राष्ट्र के लिए उनकी बहुत आकांक्षाएं थीं, परंतु उनके पूरे होने के पहले ही एक अगस्त 1920
को उनका देहावसान हो गया।


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