सुरेंद्र कुमार चोपड़ा
दुनिया भर में कोरोना की संक्रमण की रफ़्तार तेजी से बढ़ रहा है। उसी रफ्तार से शहरों से पलायन कि वजह से
रोजगार भी छीना है। लॉकडाउन कि वजह से अर्थव्यवस्था की हालत बदहाल है। कारपोरेट क्षेत्र का बुरा हाल है।
शहरों से लोगों का पलायन गाँवों की तरह हुआ है। लेकिन गाँव में रोजगार कि सुविधा उपलब्ध नहीँ सारी निर्भरता
कृषि पर निर्भर है। खेती- किसानी का बुरा हाल है। ग्रामीण इलाकों में कृषि की लागत बढ़ रहीं है। महँगाई तेजी से
बढ़ रहीं है। हर- रोज डीजल- पेट्रोल का दाम बढ़ने की वजह से कृषि क्षेत्र में जहाँ लागत बढ़ रहीं है। वहीं ट्रांसपोर्ट
सेक्टर भी मालभाड़े में वृद्धि चाहता है। जिसका नतीजा है कि महँगाई बढ़ेगी तो हालात और बेकाबू होंगे। इसका
असर आम आदमी और किसानों पर सबसे अधिक पड़ेगा। लॉकडाउन में घर के युवा जो परदेश में रह कर परिवार
की आर्थिक मदद करते थे वह शहर छोड़ कर गाँव चले आएं हैं। जिसका असर घरेलू अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है।
डीजल की बढ़ती कीमतों की वजह से इसका असर दूसरे क्षेत्रों के साथ सबसे अधिक कृषि पर पड़ रहा है। जिसका
नतीजा है कि ट्रैक्टर की जुताई, खेतों कि सिंचाई महँगी हो चली है। जिसकी वजह से किसान परेशान हैं और खेती
का लागत घाटा बढ़ रहा है, लेकिन इस तरफ़ सरकार का कोई ध्यान नहीँ है। अंतर्रष्ट्रीय बाजार में लॉकडाउन की
वजह से कच्चे तेल कि माँग कम होने के बावजूद भारत में लगातार डीजल और पेट्रोल कि कीमतों में बढ़ोत्तरी की
जा रहीं है। हालात ऐसे बन रहें हैं कि ट्रांसपोर्टर हड़ताल पर जा सकते हैं, अगर ऐसी स्थिति बनी तो सरकार के
लिए महँगाई संभालना और मुशिकल होगा। डीजल कि कीमतों में लगातार बढ़ोत्तरी जारी है।
ट्रक आपरेटरों के दावों को माने तो अब पहले कि अपेक्षा अधिक मूल्य के ईधन की खपत हो रहीं है। जिसकी वजह
से ट्रक संचालकों घाटा लग रहा है। लॉकडॉउन खुलने के बाद भी ट्रकों का संचालन उस तादात में नहीँ हो पा रहा
है।ट्रांसपोर्टर कम से कम 20 फीसदी भाड़ा बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं। अगर ऐसा होता है तो महँगाई और बढ़ेगी।
किसानों कि हालत खस्ता होगी। जिसका परिणाम भी किसानों को भुगतना पड़ेगा। देश भर में अगर ऐसा हुआ तो
ज़रूरी वस्तुओं के दाम बढ़ जाएंगे। फल, सब्जियां और खाने- पीने की वस्तुओं कि कीमत और बढ़ जाएगी। कोरोना
संक्रमण पहले से परेशान आम आदमी और परेशान हो जाएगा।
मीडिया में आयीं खबरों में ट्रांसपोर्ट यूनियनें डीजल की बढ़ती कीमतों कि वजह से मालभाड़ा बढ़ाना चाहती हैं।
डीजल कि बढ़ती कीमतों से उन्हें घाटा लग रहा है। ट्रक संचालक कम से 20 फीसदी भाड़ा बढ़ाना चाहते हैं। उनके
दावे को सच माने तो पूरी आय में 65 फीसदी हिंसा सिर्फ़ ईधन पर खर्च हो जाता हैं। 20 फीसदी हिस्सा और टोल
टैक्स का होता है। ट्रक संचालक चाहते हैं कि डीजल कि कीमतों में हर दिन वृद्धि करने के बजाय मासिक या
तिमाही किया जाय। सरकार अगर ऐसा करती है उन्हें घाटा नहीँ होगा और एक निश्चित अंतराल वह भी अपनी
स्थिति सुधार सकते है।
आल इंडिया मोटर ट्रांसपोर्ट काँग्रेस के पूर्व अध्यक्ष बालमलकीत सिंह के दावे को सच माने तो कोरोना संक्रमण कि
वजह बाजार सुस्त पड़े हैं। ट्रांसपोर्ट क्षेत्र को काम नहीँ मिल पा रहा है। 55 फीसदी ट्रकों का पहिया जाम है।
लॉकडाउन की वजह से कारोबार ठप है तो ट्रकों कि माँग नहीँ आ रहीं है। उत्पादन ठप होने और कच्चे माल की
ज़रूरत न होने से ट्रकों कि उतनी आवश्यकता भी नहीँ है। कोरोना का संक्रमण जिस गति से बढ़ रहा है निकट
भविष्य में अनलॉक को पुनः लॉकडाउन की तरफ़ ले जाया जा सकता है। क्योंकि सरकार के पास दूसरा कोई
विकल्प ही नहीँ बचता है। उस हालत में स्थिति क्या होगी आप समझ सकते हैं।
ट्रक आपरेटरों ने अगर 20 फीसदी मालाभाड़ा बढ़ाया तो इसका सीधा असर आम आदमी पर पड़ेगा। क्योंकि जब
मालभाड़ा बढ़ेगा तो महँगाई स्वाभाविक रूप से बढ़ेगी। डीजल- पेट्रोल पर सरकारें जब चाहती हैं तब दाम बढ़ा देती
हैं। इसका सीधा असर आम आदमी के साथ सबसे अधिक कृषि क्षेत्र पर पड़ता है। क्योंकि कृषि की लागत सीधे बढ़
जाती है और दूसरे तरफ से उसी पर महँगाई कि भी मार पड़ती है। देश की 70 फीसदी आबादी आज भी कृषि पर
निर्भर है। उस स्थिति में कृषि में फसलों का समर्थन मूल्य नहीँ बढ़ाया जाता है।
डीजल- पेट्रोल पर सरकार को मूल्य नियंत्रण की स्थिति लानी चाहिए। क्योंकि यह आम आदमी के अधिकार से जुड़ा
मामला है। इसका सबसे अधिक असर आम आदमी पर ही पड़ता है। क्योंकि दाम बढ़ने पर ट्रक आपरेटर मालभाड़ा
बढ़ा देता है। उत्पादन इकाईयां भी महँगाई का हवाला देकर अपने अनुसार मूल्य निर्धारित करती हैं।
दैनिक जीवन में आने वाली ज़रूरी वस्तुओं के दाम
आसमान छुने लगते हैं। खाद्य सामग्री महँगी हो जाती है। फल, सब्जी और दूध कि कीमतें आसमान पहुँच जाती
हैं। रेल किराया और यातायात महँगे हो जाते हैं। लेकिन कृषि लागत बढ़ जाती है और किसान अपनी फसलों का
लागत मूल्य भी नहीँ वसूल पाता है। जबकि व्यापरी वर्ग माँग और आपूर्ति का हवाला देकर कई गुना दाम
उपभोक्ताओं से वसूलता है।
कृषि मानसून आधारित है। फसल की बुआई किसान करता है, लेकिन फसल पक कर उसके घर आएगी कि नहीँ
यह प्रकृति और मानसून तय करता है। अनुकूल मौसम नहीँ हुआ तो फसल लागत लेकर भी चली जाती है जिसका
खमियाजा निर्बल किसान को भुगतना पड़ता है। जिसका नतीजा है कि कृषि में लागत घाटा बढ़ता जा रहा है।
किसान आत्महत्या को मज़बूर है। जबकि दूसरे सेक्टर में इस तरह कि स्थिति नहीँ है। सरकार को डीजल और
पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी और राज्यवार वैट की स्थिति कि समीक्षा करनी चाहिए। कृषि क्षेत्र को कम से कम यानी
नियंत्रित मूल्य पर डीजल की उपलब्धता करानी चाहिए। क्योंकि कृषि में बढ़ते लागत घाटे कि एक वजह डीजल की
बढ़ती कीमतें भी हैं।