
हम लोग लंबे अरसे से काम करते-करते ऊब चुके थे। मानसिक थकान हावी होने लगी थी। गर्मी का मौसम भी हमें उकसा रहा था कि हमें कहीं भ्रमण के लिए जाना चाहिए। अतः हम लोगों ने अपनी मोटरसाइकिलें तैयार कीं और गढ़वाल का रुख किया। इस यात्रा में मेरे तीन और साथी अशोक शर्मा, अजय विसारिया व अजय पटेल थे। हम लोग जब अपने काम से ऊबने लगते हैं और रिचार्ज होने की जररूत महसूस करते हैं तो गढ़वाल, कुमायूं या हिमाचल, जहां भी संभव हो चल देते हैं। इस बार हम कोई विशेष कार्यक्रम या निश्चित गंतव्य तय किए बगैर ही चल पड़े थे। अपनी मोटरसाइकिलों की सर्विस हमने खुद ही की। छोटी-मोटी कमियों को ठीक किया। अपने स्पेयर्स में प्लग, बल्ब, क्लच, केबिल, स्पेयर टयूब, पंचर किट और फुट पंप आदि लिए। जींस जैकेट्स और विंड चीटर्स लिए। स्टिल कैमरा, हैंडी कैम, फिल्म रोल्स, कैसेट्स और बैटरी आदि भी ली और अगले दिन भोर की बेला में रवानगी दर्ज कर दी।
पांडवों ने की स्थापना
सुबह पांच बजे अलीगढ़ से चलकर दोपहर 12 बजे हम आराम से हरिद्वार पहुंच गए। बीच में मेरठ के आगे पुरकायी कस्बे में हमने नाश्ता भी किया। हरिद्वार में हर की पौड़ी पर बैठकर विचार-विमर्श किया कि अब कहां चला जाए। इसके पहले हम लोग बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री आदि स्थानों पर दो-तीन बार हो आए थे। इसलिए तय हुआ कि इस बार तुंगनाथ मंदिर चलें। ऐसा माना जाता है कि पंचकेदार के मंदिरों की स्थापना पांडवों ने कराई थी। केदारनाथ की स्थापना युधिष्ठिर ने कराई थी, तुंगनाथ की अर्जुन ने, मध्यमहेश्वर की भीम, रुद्रनाथ की नकुल तथा कल्पेश्वर की स्थापना सहदेव ने कराई थी।
संगम कई धाराओं का
हरिद्वार से ऋषिकेश तक ट्रैफिक अधिक है। मैदानी मार्ग छोड़कर अब पहाड़ों का सुहाना सफर शुरू हो चुका था। पहाड़ी मार्ग शुरू हो जाने से हम सावधानीपूर्वक ड्राइव करने लगे। ऋषिकेश पार करने से पहले हमने गढ़वाल मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस से श्रीनगर तथा चोपता के गेस्ट हाउस में फोन से अपने लिए कमरों की बुकिंग करा दी। ऋषिकेश से हम जल्दी ही देवप्रयाग पहुंच गए। फुट हिल्स के हिस्से में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के कारण पहाड़ कई जगह एकदम नंगे लगते हैं। इससे यहां का शानदार दृश्य बिगड़ रहा है। पेड़ कम होने से भूस्खलन की घटनाएं भी बढ़ रही हैं।
पहले पड़ाव पर
आगे यह रास्ता पहले तो बड़ी तेजी से ऊंचाई पकड़ता है। फिर जल्दी ही घाटी का फैलाव बढ़ने लगता है। नदी की धारा भी धीरे-धीरे हमसे दूर हो गई। हम लोग 380 किलोमीटर का सफर तय कर चुके थे और अब श्रीनगर निकट आने वाला था। सड़कें काफी चैड़ी हैं। मोड़ दूर-दूर हैं। हम लोग रफ्तार बढ़ाकर शाम के करीब साढ़े छह बजे श्रीनगर पहुंच गए। अब हमारा पहला पड़ाव आ चुका था।
संकरी होने लगी सड़क
थोड़ा आगे चलते ही मार्ग अधिक सर्पिल मोड़ अधिक गहरे और सड़क संकरी होने लगी। नदी की धारा कहीं तो बेहद तेज दिखती और कहीं चैड़ाई मिलते ही फैलाव लेकर किनारों से टक्कर मारती शोर करती नीचे की ओर जाती दिखाई देती है। कई जगह बीच धारा में पड़ी बड़ी-बड़ी चट्टानें नदी के साथ क्रीड़ा करती हुई सी लगती हैं। जैसे-जैसे मार्ग कठिन होता जा रहा था हमारा आनंद भी बढ़ता जा रहा था। हम लोग बिना किसी कठिनाई के रुद्रप्रयाग पहुंचे। वहां से थोड़ी ही देर में आगे चल पड़े। रास्ता एक बार फिर ढलान लेने लगता है। वहां से जल्दी ही हम कुंड पहुंच गए।
कई स्तर पहाड़ों के
इसके आगे जमीन पर कई तरह के फूल दिखने लगे। कहीं-कहीं तो ये छोटे-छोटे फूल इतने अधिक हैं कि ढलान हरे कम और पीले-नीले अधिक नजर आते हैं। हम लोग ढलानों पर शॉर्टकट लगाते, रुकते-चलते आगे बढ़ते गए। 3500 मीटर की ऊंचाई पर मौसम विभाग की एक प्रयोगशाला रास्ते से थोड़ा हटकर बनी है। यह लोग वर्ष में केवल दो माह यहां कार्य करते हैं। यहां तक कि चार-पांच माह जब यह स्थान बर्फ से ढका रहता है तब यह लोग चार-पांच माह का जरूरी सामान लेकर यहीं जमे रहते हैं। यहां से पहाड़ों के सात-आठ स्तर दिखाई देते हैं, जो बर्फ से ढकीचोटियों पर खत्म होते हैं। ढलानों का गहरा हरा रंग, चट्टानी पहाड़ों का गहरा सलेटी रंग और हिम से ढकी चोटियों का सफेद रंग बेहद शानदार दृश्य रचते हैं। इसे देखकर एहसास होता है कि स्वर्ग की कल्पना शायद ऐसे ही दृश्यों से प्रभावित है।
विविधता वनस्पतियों की
अगली सुबह थोड़ा सामान लिया और मोटरसाइकिल लेकर मंडल की ओर आ गए। वहां स्थित ग्रामीण बैंक के स्टाफ से मुलाकात की। मोटरसाइकिल वहीं छोड़ी और अत्रिमुनि आश्रम तथा सती अनुसुइया मंदिर के पैदल मार्ग पर बढ़ चले। मंडल लगभग 1800-1900 मीटर पर है और चोपता से तीखी ढलान लगभग पूरे मार्ग पर है। मंदिर की दूरी सात-आठ किलोमीटर है। थोड़ा आगे चलते ही वनस्पतियों की विविधता देखने को मिलने लगती है। जंगल इतना घना है कि 11-12 बजे की धूप भी भूमि पर मुश्किल से पहुंचती है। हम लोग 5-6 किलोमीटर आसानी से चलते हुए पहुच गए। वहां कभी ऋषि अत्रि का प्रसिद्ध आश्रम था। अब यहां प्रतीक स्वरूप केवल एक गुफा है। पास में ही एक झरना है। उसके पीछे से गंगा की एक धारा की परिक्रमा की जा सकती है। परंतु पत्थरों पर काई के कारण काफी चिकनाहट थी। परिक्रमा करके हम लोग आगे चल पड़े। जल्दी ही हम लोग मंदिर पर जा पहंुचे। यह मंदिर सती अनुसुइया के यहां तपस्या करने के कारण बनाया गया है। मंदिर निर्माण की दृष्टि से बहुत पुराना नहीं लगता, परंतु यहां स्थापित मूर्तियां काफी पुरानी हैं। स्थानीय लोग इसकी देखभाल करते हैं। इससे आगे का मार्ग रुद्रनाथ की ओर जाता है, पर रास्ता लंबा है और एक दिन में पहुंच कर वापसी संभव नहीं है। अतः हमने यहीं से वापस लौटने का निर्णय किया। इस रास्ते पर जोंकें बहुत हैं। अभी बरसात शुरू नहीं हुई थी, इसके बावजूद जोकों को अपने पैरों से हटाने के लिए हमें नमक और माचिस का उपयोग करना पड़ रहा था। हम लगातार चलते हुए 5 बजे तक वापस मंडल आ गए। यहां कुछ देर रुककर वापस चोपता आ गए।
एक ताल देवताओं का
अगले दिन मोटरसाइकिल लेकर हम लोग ऊखी मठ की ओर चले। 10-12 किलोमीटर पर एक संपर्क मार्ग सारी ग्राम की ओर जाता है। आज हमारा लक्ष्य इस क्षेत्र की बेहद खूबसूरत और अपेक्षाकृत कम ऊंचाई पर स्थित देवरिया झील थी। इसके बारे में हमें पहले भी बताया गया था। सारी ग्राम संपर्क मार्ग पर 7-8 किलोमीटर है, जहां एक बस निकलने जितनी चैड़ाई की सड़क निर्माणाधीन है। मार्ग असमतल, कम चैड़ा और दुर्गम है। हम लोग सारी ग्राम जल्दी ही पहुंच गए। गांव की एक दुकान पर गेस्ट हाउस के एक व्यक्ति का परिचय देकर मोटरसाइकिलें खड़ी कीं और पैदल मार्ग पर बढ़ चले। सारी गांव 2400-2500 मीटर पर स्थित है। देवरिया ताल का मार्ग लगभग दो-ढाई किलोमीटर है, पर चढ़ाई इतनी खड़ी है कि कई जगह रुकना पड़ा। हम एक-सवा घंटे में ताल के नजदीक पहंुच गए। अंतिम ऊंचाई से ताल तक ढलान मोटी घास से ढका है। ताल का दृश्य अनुपम है। सामने हिमाच्छादित चोटियां इतनी पास हैं कि लगता है कि हाथ बढ़ाकर हम उन्हें छू सकते हैं। विशेषकर चैखंबा इतना खूबसूरत लगता है कि हम लोग ठगे से रह जाते हैं। ताल में हिमशिखरों की छाया इतनी सजीव है कि ऐसा लगता है कि एक पर्वत श्रृंखला पानी में भी है। इसका नाम देवरिया ताल एकदम ठीक रखा गया है। कहते हैं यहां देवता वास करते हैं और चैखंबा उनका मंत्रणास्थल है। हम लोग देवरिया ताल के सौंदर्य में खो गए।
वापस लौटते हुए
हम लोगों ने गांव पहुंचकर उसी दुकान पर दाल-चावल खाये जहां मोटरसाइकिलें खड़ी की थीं। थोड़ी देर आराम के बाद वापस चोपता आ गए। गेस्ट हाउस पहंुचकर सामान व्यवस्थित किया। फिर बाहर कुर्सियां डालकर देर तक अन्य यात्रियों से बातें करते रहे। घर से निकले पांच दिन हो चुके थे, अब हम वापसी पर विचार कर रहे थे। 30-35 किलोमीटर की ट्रेकिंग के बाद फेफड़े खुल गए थे। हम मानसिक रूप से रिचार्ज हो चुके थे। क्योंकि हम दैनिक रुटीन से तो दूर थे ही, अखबार टीवी आदि से भी दूर थे। बस खा रहे थे, घूम रहे थे और आराम कर रहे थे। हरियाली का सकारात्मक असर हम पर खूब पड़ा था।