रायबरेली। चीख पुकार वैसी ही। मंजर भी 31 माह पुराना जैसा। इस बार सिर्फ दिशा बदली, तब बछरावां में ट्रेन के परखचे उड़े थे। तब खून से लथपथ लाशें सीएचसी से लेकर शहर के अस्पताल तक लाई गईं थीं। इस बार ऊंचाहार हादसे ने हर किसी को दहला दिया। जली और राख से लिपटी लाशें एंबुलेंस से जब उतारी जा रही थीं, तो पत्थर दिल वाले भी रो बैठे। यूं तो जिले ने दो दफा भयानक मंजर देखा। मगर इस बार वह तड़प उठा। आखिर उसके ही आंगन में बार-बार कालचक्र क्यों नाच उठता है।
साल 2015 के मार्च महीने की 20 तारीख। शुक्रवार का वह दिन जब देहरादून से वाराणसी जा रही जनता एक्सप्रेस बछरावां स्टेशन के पास हादसे का शिकार हो गई थी। इंजन के साथ ट्रेन के दो डिब्बे न सिर्फ पटरी से उतर गए थे, एक दूसरे पर चढ़ भी गए थे। इन बोगियों में सवार करीब 32 मुसाफिर निकले तो मंजिल के लिए थे लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। यात्रियों का स्टेशन आता, इससे पहले ही मौत हादसे की रूप में आ गई। इन 32 मुसाफिरों की जान चली गई थी जबकि दर्जनों की संख्या में लोग घायल हुए थे।
जनता एक्सप्रेस हादसे से पूरा जिला दहल उठा था। इसके जख्म अभी कुछ भरे ही थे कि बुधवार को एनटीपीसी में हुई दुर्घटना ने उन्हें फिर से कुरेद दिया। दोनों घटनाओं की भयावहता में कोई खास फर्क नहीं था। अंतर था तो सिर्फ इतना कि तब ट्रेन की बोगियों को काट कर मृतकों की लाशें और घायलों को निकाला गया था। और इस बार लोग शोले की तरह तप रही कोयले की राख में दबे थे। पहले राख को पानी डाल कर ठंडा किया गया। इसके बाद उसमें दबे श्रमिकों को बाहर निकाला गया।
जिला अस्पताल को भी आई जनता एक्सप्रेस की याद
वर्ष 2015 के बाद एक फिर जिला अस्पताल में स्थिति वैसी ही थी, जैसी जनता एक्सप्रेस हादसे के दौरान देखी गई। इमरजेंसी के बाहर स्ट्रेचर की लगी कतारें और अंदर डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों का भारी अमला। फर्राटा भरकर आती एंबुलेंस। मरीजों को लेकर वाडरें की तरफ भागते सवाजसेवी और अंदर लगी भीड़। मुख्यद्वार पर एंबुलेंस के लिए रास्ता साफ कराते पुलिस कर्मी और इमरजेंसी में भीड़ को रोकते अफसर। इस नजारे ने जनता एक्सप्रेस हादसे की याद दिला दी।