रांची। होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करने के बाद देश के बड़े होटल्स में अच्छी नौकरी की। लाखों रुपए के सालाना पैकेज को छोड़कर 29 साल के मंगेश झा ने एक बदलाव लाने के लिए नौकरी छोड़कर गावों की यात्रा करना शुरू कर दिया। वह झारखंड के हर गांव में जाते हैं और जहां वाहन नहीं जा सकते हैं, वहां पैदल ही पहुंचते हैं। यह सब इसलिए ताकि वह जितनी महिलाओं को संभव हो सके सैनेटरी नैपकीन मुहैया करा सकें।
मंगेश ने 2009 में भुवनेश्वर से होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करने के बाद कई बड़े होटल्स में नौकरी की, तो उन्होंने वहां असमानता देखी। मंगेश ने वहां देखा कि शहर के बड़े होटल्स में लोग महंगे पकवान थाली में छोड़ देते हैं, जबकि देश के ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों के लोगों के पास तो पर्याप्त खाना ही नहीं है।
ये पहली ऐसी बात जिसने में मंगेश को झकझोरा। मंगेश शहरी और आदिवासियों के बीच की असमानता को देखकर उद्वेलित थे। आदिवासियों के लिए कुछ करने की मंशा से मंगेश अपने-पिता के साथ रांची रहने लगे, ताकि आदिवासियों को और करीब से समझ सकें।
तभी उन्हें पता चला कि मासिक धर्म के दौरान महिलाएं प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर थीं और पीरियड्स के दौरान घास का इस्तेमाल करती थीं। मंगेश ने ग्रामीण महिलाओं को सस्ती कीमत में सैनेटरी नैपकीन मुहैया कराने के लिए पहल शुरू की। शुरू में उनकी मां पैड्स बनाती थीं, लेकिन बाद में वे जिस गांव में जाते थे, उस गांव की वॉलेंटियर्स भी उनके साथ जुड़ती गईं।
इसके बाद अब मंगेश गावों में छोटी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट लगाने की प्लानिंग कर रहे हैं। शुरुआत में मंगेश की मंशा को लेकर गांव की महिलाओं को संदेह होता था, लेकिन अब वे मंगेश की पहल के बाद जागरुक हो रही है। कई गांवों में महिलाएं माहवारी के दौरान कपड़े की जगह राख, घास और भूसी का प्रयोग करती हैं।
यहां की महिलाओं को तो पैड के बारे में जानकारी ही नहीं थी। इन पारंपरिक व्यवस्थाओं के कारण बड़ी संख्या में महिलाएं बीमार हो रही थीं। कई महिलाएं संक्रमण की चपेट में आ जाती थीं।