नई दिल्ली। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह लाइफ सपोर्ट सिस्टम को लेकर एक नया कानून लाएगी। इसके तहत एक मेडिकल बोर्ड फैसला ले सकेगा कि कृत्रिम तरीके से किसी मरीज को लंबे समय तक जीवित रखा जाए या नहीं।
मगर, सरकार ने लोगों को यह अधिकार देने का विरोध किया है कि वे अपनी इच्छा से लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाने का फैसला पहले ही कर दे कि मेडिकली होपलेस मामले में उन्हें लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर नहीं रखा जाए। एक मसौदा बिल पर लोगों से सुझाव मांगे गए हैं, जिसके तहत एक मेडिकल बोर्ड को यह तय करने की अनुमति होगी कि किसी मरीज को लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर लंबे समय तक रखा जाए या उसे हटा दिया जाए।
पैसिव यूथेनेशिया (इच्छामृत्यु) का देश में कानून है। अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल पीएस नारसिंह ने पांच न्यायाधीशों की पीठ को बताया कि हम इसके साथ सौदा करेंगे। इस पर चर्चा हो रही है कि नागरिकों को उनकी गरिमा और शांति से मरने की इजाजत देने के लिए अनुमति देनी है या नहीं।
पीएस नरसिम्हा ने कहा कि इच्छामृत्यु की वसीयत लिखने की इजाजत नहीं दे सकते हैं। इसका गलत इस्तेमाल हो सकता है। कॉमन कॉज नाम के एनजीओ की ओर से दायर याचिका में वकील प्रशांत भूषण तर्क कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी 2015 में इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने के लिए केस संविधान बेंच को रेफर कर दिया था।
इसमें ऐसे शख्स की बात की गई थी, जो बीमार है और मेडिकल सलाह के मुताबिक उसके बचने की उम्मीद नहीं है। प्रशांत भूषण का कहना है कि मौजूदा प्रणाली के तहत डॉक्टर और परिवार के सदस्य यह फैसला लेते हैं कि मरीज को लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर रखा जाए या नहीं। भूषण ने कहा कि सम्मान के साथ मरने का अधिकार, जीवन के अधिकार का हिस्सा है।
बहस इस बात को लेकर हो रही है कि क्या किसी शख्स को यह हक दिया जा सकता है कि वह यह कह सके कि कोमा जैसी स्थिति में पहुंचने पर उसे जबरन जिंदा न रखा जाए। उसे लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाकर मरने दिया जाए। इस मामले में सरकार की ओर से पेश हुए नरसिम्हा ने कोर्ट में कहा कि इच्छामृत्यु की वसीयत लिखने की इजाजत नहीं दे सकते हैं। इसका गलत इस्तेमाल हो सकता है। उन्होंने कहा कि पैसिव यूथेंसिया पर फैसले का हक मेडिकल बोर्ड का है। कोई इसकी वसीयत नहीं लिख सकता है।