नई दिल्ली। अंग्रेजों से अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टन को बचाते हुए टीपू सुल्तान ने रणभूमि में अपनी जान दे दी थी। मगर, आज भी एक किंवदंती चली आ रही है कि ‘टाइगर ऑफ मैसूर’ ने अपने रॉकेट से अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। उप महाद्वीप में अंग्रेजों को सबसे कड़ी चुनौती का सामना टीपू के शासन में ही करना पड़ा था।
मैसूर में बने रॉकेट, दुनिया में सबसे पहले ऐसे आयुध थे, जिनका सफल इस्तेमाल सैन्य उपयोग के लिए किया गया था। लोहे से सिलेंडर में बारूद भरकर इन रॉकेट को विरोधी खेमे में दागा जाता था।
यह 18 वीं सदी में मैसूर में हैदर अली ने विस्फोटकों से भरे रॉकेट के पहले प्रोटोटाइप को विकसित किया था। उनके बेटे टीपू सुल्तान ने रॉकेट को और बेहतर बनाया और इसके डिजाइन में बदलाव किए। बेलनाकार लोहे के केस बनाकर उनमें बारूद भरा और उसके पीछे डंडा या तलवार लगई, जिससे वे काफी सटीक निशाना लगाने में सक्षम रहते थे।
टीपू के बनाए रॉकेट लगभग 2 किमी की दूरी तक मार करने में सक्षम होते थे। उस समय वह दुनिया के सर्वश्रेष्ठ रॉकेट्स थे। 1700 के दशक के अंत में एंग्लो-मैसूर युद्ध के दौरान टीपू सुल्तान ने जिन रॉकेट्स का इस्तेमाल किया, उन्होंने अंग्रेजों की सेना पर बड़ा प्रभाव डाला।
खासतौर पर 1780 में हुए द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध में, जब ईस्ट इंडिया कंपनी के गोला बारूद में टीपू के रॉकेट ने धमाका कर ब्रिटिश सेना को भारत में करारी शिकस्त दी थी। ब्रिटिश पैदल सेना ने उनसे पहले कभी इस तरह के हथियार को नहीं देखा था।
उन्हें सच में पता ही नहीं था कि टीपू की सेना के आखिर किस चीज से हमला किया था। इस तरह के हमले से ब्रिटिश सैनिक बेहद डरे हुए और भ्रम में थे।