लवण्या गुप्ता
राजू 3 साल का है उसके स्कूल में दाखिला करने का वक्त आ गया है। इसका दाखिला किस स्कूल में कराएं, घर
वाले 6 महीने से इस बात पर चर्चा कर रहे थे। किंतु फिर भी कोई एक स्कूल नहीं चुन पाए थे। हर कोई नया-नया
स्कूल का नाम बता रहा था।
आखिर में दाखिले वाला दिन आ गया। अब दाखिले के लिए स्कूल के फार्म स्कूल की व्यवस्था व पढ़ाई, व स्कूल
टाइम का पता लगाना शुरू किया गया।
अंग्रेजी-स्कूलों की मांग थी कि बच्चे के मां-बाप अंग्रेजी बोलना, लिखना, पढ़ना जानते हों। किंतु राजू के बाप तो
एक मामूली दुकानदार थे। इसीलिए उन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी।
अब समस्या ये थी कि कहीं पर भी अंग्रेजी स्कूल में भर्ती हो जाए। काफी धूल छानने के बाद एक छोटा सा अंग्रेजी
माध्यम का प्राइवेट स्कूल मिला। अब समस्या ये थी कि वह घर से काफी दूर है। और बच्चा काफी छोटा है पढ़ाई
जरूरी या बच्चा?
यह भी एक समस्या थी।
थक-हार कर उसका (राजू का) दाखिला हिंदी माध्यम में ही करा दिया गया। मगर अभी राजू के पापा ने हार नहीं
मानी थी। वह अंग्रेजी स्कूल में दाखिला कराने के बाद भागदौड़ कर रहे थे। एक माह बाद एक विद्यालय में एक
सीट खाली मिल ही गई।
और इस दाखिले के उसे कुछ पैसा भी खर्च करना पड़ा।
आखिर राजू का दाखिला अंग्रेजी विद्यालय में हो ही गया। और उसका एक माह हिंदी विद्यालय में बैठने का
आभास भी हो गया था। राजू का समय भी खराब नहीं हुआ और वह अंग्रेजी विद्यालय में भी पढ़ने लगा है।
ये राजू के दिमाग का काम था। राजू के पिता हिंदी भी सही से नहीं जानते थे पर उन्होंने अपने बच्चे को अच्छा
पढ़ाने के लिए बड़ा परिश्रम किया आजकल दाखिला भी बहुत मुश्किल से होता है पर अब राजू का तो, देर से ही
सही दाखिला हो ही गया था।