एक संन्यासी जीवन के रहस्यों को खोजने के लिए कई दिनों तक तपस्या और कठोर साधना में लगे रहे, पर आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। थक-हारकर घर लौटने का निश्चय किया। रास्ते में उन्हें प्यास लगी तो वह एक नदी के किनारे गए। देखा कि एक गिलहरी नदी के जल में अपनी पूंछ भिगोकर पानी बाहर छिड़क रही थी। संन्यासी ने उत्सुकता से गिलहरी से पूछा, तुम यह क्या कर रही हो?
गिलहरी ने उत्तर दिया, इस नदी ने मेरे बच्चों को बहाकर मार डाला। मैं नदी को सुखाकर ही छोडूंगी। संन्यासी ने कहा, तुम्हारी छोटी-सी पूंछ में भला कितनी बूंदें आती होंगी। यह नदी कैसे सूख सकेगी? गिलहरी बोली, यह नदी कब खाली होगी, यह मैं नहीं जानती। लेकिन मैं अपने काम में निरंतर लगी रहूंगी। मुझे सफलता क्यों नहीं मिलेगी? संन्यासी सोचने लगा कि जब यह नन्ही गिलहरी इतना बड़ा कार्य करने का स्वप्न देखती है, तब भला मैं मस्तिष्क और मजबूत बदन वाला मनुष्य अपनी मंजिल को क्यों नहीं पा सकता।