कई दशक पहले की गई कोई वैज्ञानिक खोज, जिसे वर्षों पहले नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया हो और आज भी वह खोज उतनी ही प्रासंगिक हो तो उससे जुड़े वैज्ञानिकों को बार-बार याद करना जरूरी हो जाता है। चन्द्रशेखर वेंकटरामन या सर सीवी रामन एक ऐसे ही प्रख्यात भारतीय भौतिक-विज्ञानी थे, जिन्हें उनके जन्मदिन के मौके पर दुनिया भर में याद किया जा रहा है। उन्हें विज्ञान के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहला एशियाई होने का गौरव प्राप्त है।
प्रकाश के प्रकीर्णन पर उत्कृष्ट कार्य के लिए सर सीवी रामन को वर्ष 1930 में नोबेल पुरस्कार दिया गया। उनका आविष्कार उनके नाम पर ही रामन प्रभाव के नाम से जाना जाता है। रामन प्रभाव का उपयोग आज भी विविध वैज्ञानिक क्षेत्रों में किया जा रहा है। भारत से अंतरिक्ष मिशन चन्द्रयान ने चांद पर पानी होने की घोषणा की तो इसके पीछे भी रामन स्पैक्ट्रोस्कोपी का ही कमाल था।
लंदन में चल रही भारतीय विज्ञान के 5000 वर्षों के सफर पर केंद्रित प्रदर्शनी में रामन प्रभाव की खोज के दौरान सर सीवी रामन द्वारा उपयोग किए गए यंत्रों को प्रदर्शित किया गया है।
फोरेंसिक साइंस में तो रामन प्रभाव का खासा उपयोग हो रहा है और यह पता लगाना आसान हो गया है कि कौन-सी घटना कब और कैसे हुई थी। दरअसल, जब खास तरंगदैर्ध्य वाली लेजर बीम किसी चीज पर पड़ती है तो ज्यादातर प्रकाश का तरंगदैर्ध्य एक ही होता है। लेकिन हजार में से एक ही तरंगदैर्ध्य मे परिवर्तन होता है। इस परिवर्तन को स्कैनर की मदद से ग्राफ के रूप में रिकॉर्ड कर लिया जाता है। स्कैनर में विभिन्न वस्तुओं के ग्राफ का एक डाटाबेस होता है। हर वस्तु का अपना ग्राफ होता है, हम उसे उन वस्तुओं का फिंगर-प्रिन्ट भी कह सकते हैं। जब स्कैनर किसी वस्तु से लगाया जाता है तो उसका भी ग्राफ बन जाता है। और फिर स्कैनर अपने डाटाबेस से उस ग्राफ की तुलना करता है और पता लगा लेता है कि वस्तु कौन-सी है। हर अणु की अपनी खासियत होती है और इसी वजह से रामन स्पैक्ट्रोस्कोपी से खनिज पदार्थ, कार्बनिक चीजों, जैसे- प्रोटीन, डीएनए और अमीनो एसिड का पता लग सकता है।
सीवी रामन ने जब यह खोज की थी तो उस समय काफी बड़े और पुराने किस्म के यंत्र थे। खुद रामन ने भी रामन प्रभाव की खोज इन्हीं यंत्रों से की थी। आज रामन प्रभाव ने प्रौद्योगिकी को बदल दिया है। अब हर क्षेत्र के वैज्ञानिक रामन प्रभाव के सहारे कई तरह के प्रयोग कर रहे हैं। इसके चलते बैक्टीरिया, रासायनिक प्रदूषण और विस्फोटक चीजों का पता आसानी से चल जाता है। अब तो अमेरिकी वैज्ञानिकों ने इसे सिलिकॉन पर भी इस्तेमाल करना आरंभ कर दिया है। ग्लास की अपेक्षा सिलिकॉन पर रामन प्रभाव दस हजार गुना ज्यादा तीव्रता से काम करता है। इससे आर्थिक लाभ तो होता ही है साथ में समय की भी काफी बचत हो सकती है।
शिक्षार्थी के रूप में रामन ने कई महत्वपूर्ण कार्य किए। वर्ष 1906 में रामन का प्रकाश विवर्तन पर पहला शोध पत्र लंदन की फिलोसोफिकल पत्रिका में प्रकाशित हुआ। उसका शीर्षक था- ‘आयताकृत छिद्र के कारण उत्पन्न असीमित विवर्तन पट्टियां’। जब प्रकाश की किरणें किसी छिद्र में से अथवा किसी अपारदर्शी वस्तु के किनारे पर से गुजरती हैं तथा किसी परदे पर पड़ती हैं तो किरणों के किनारे पर मद-तीव्र अथवा रंगीन प्रकाश की पट्टियां दिखाई देती हैं। यह घटना `विवर्तन’ कहलाती है। विवर्तन गति का सामान्य लक्षण है। इससे पता चलता है कि प्रकाश तरंगों में निर्मित है।
ब्रिटिश शासन के दौर में भारत में प्रतिभाशाली व्यक्ति के लिए भी वैज्ञानिक बनने की सुविधा नहीं थी। अत: रामन भारत सरकार के वित्त विभाग की प्रतियोगिता में बैठ गए। प्रतियोगिता परीक्षा में भी रामन प्रथम आए और जून, 1907 में वह असिस्टेंट एकाउटेंट जनरल बनकर कलकत्ता चले गए। एक दिन कार्यालय से लौट रहे थे कि उन्होंने एक साइन-बोर्ड देखा, जिस पर लिखा था ‘वैज्ञानिक अध्ययन के लिए भारतीय परिषद् (इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन ऑफ साइंस)’। उनके अंदर की वैज्ञानिक वृत्ति जागृत हो गई। रामन के अंशकालिक अनुसंधान का क्षेत्र ”ध्वनि के कम्पन और कार्यों का सिद्धान्त” था। रामन का वाद्य-यंत्रों की भौतिकी का ज्ञान इतना गहरा था कि वर्ष 1927 में जर्मनी में प्रकाशित बीस खण्डों वाले भौतिकी विश्वकोश के आठवें खण्ड के लिए वाद्य-यंत्रों की भौतिकी का लेख रामन से तैयार कराया गया। सम्पूर्ण भौतिकी-कोश में रामन ही ऐसे लेखक थे, जो जर्मनी के नहीं थे।
कलकत्ता विश्वविद्यालय में वर्ष 1917 में भौतिकी के प्राध्यापक का पद सृजित हुआ तो वहां के कुलपति आशुतोष मुखर्जी ने उसे स्वीकार करने के लिए रामन को आमंत्रित किया। रामन ने उनका निमंत्रण स्वीकार करके उच्च सरकारी पद से त्याग-पत्र दे दिया। कलकत्ता विश्वविद्यालय में रामन ने कुछ वर्षों में वस्तुओं में प्रकाश के चलने का अध्ययन किया। वर्ष 1921 में रामन विश्वविद्यालयों की कांग्रेस में प्रतिनिधि बनकर ऑक्सफोर्ड गए। जब रामन जलयान से स्वदेश लौट रहे थे तो उन्होंने भूमध्य सागर के जल में उसका अनोखा नीला व दूधियापन देखा। कलकत्ता विश्वविद्यालय पहुंचकर रामन ने पार्थिव वस्तुओं में प्रकाश के बिखरने का नियमित अध्ययन शुरू किया। लगभग सात वर्ष बाद रामन अपनी उस खोज पर पहुंचे, जो ‘रामन प्रभाव’ के नाम से विख्यात है। उनका ध्यान वर्ष 1927 में इस पर गया कि जब एक्स किरणें प्रकीर्ण होती हैं, तो उनकी तरंग लम्बाइयां यानी तरंगदैर्ध्य बदल जाती हैं। तब प्रश्न उठा कि साधारण प्रकाश में भी ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए?
रामन ने पारद आर्क के प्रकाश का वर्णक्रम स्पेक्ट्रोस्कोप में निर्मित किया। इन दोनों के मध्य विभिन्न प्रकार के रासायनिक पदार्थ रखकर तथा पारद आर्क के प्रकाश को उनमें से गुजारकर वर्णक्रम बनाए। उन्होंने देखा कि हर स्पेक्ट्रम में अन्तर पड़ता है और प्रत्येक पदार्थ अपनी तरह का अन्तर डालता है। श्रेष्ठ स्पेक्ट्रम चित्र तैयार किए गए और उन्हें मापकर तथा गणना करके उनकी सैद्धान्तिक व्याख्या की गई। इस तरह प्रमाणित किया गया कि यह अन्तर पारद प्रकाश के तरंगदैर्ध्य में परिवर्तित होने के कारण पड़ता है। इस तरह रामन प्रभाव का उद्घाटन हो गया। रामन ने 29 फरवरी, 1928 को इस खोज की घोषणा की थी। यही कारण है कि इस दिन को भारत में प्रत्येक वर्ष ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।